असद ज़ैदी की वो चुनिंदा कविताएं जिन्होंने हिंदी साहित्य की बौद्धिक दुनिया में हलचल-भरी बहस शुरू कर दी थी
पिछले कई दशकों में हमारे समाज के बाहरी और भीतरी जीवन में जो कुछ भी टूटा और नष्ट हुआ है असद ज़ैदी उसे एक ऐसे व्यक्ति की तरह देखते, पढ़ते और लिखते हैं जिसकी परेशानी अपना चश्मा खुद ही ढूंढ लेती है. असद ज़ैदी के कविता-संग्रह ‘सामान की तलाश’ में कविता ‘1857 : सामान की तलाश’ 1857 पर लिखी गई वह बेजोड़ कविता है, जिसने हिंदी साहित्य की बौद्धिक दुनिया में एक ख़ास तरह की हलचल-भरी बहस को जन्म दे दिया था. संग्रह में ऐसी कई कविताएं हैं जो बेहद बारीक व्यंग्य, कटाक्ष और हाज़िर-जवाबी जैसे औज़ारों से उस विशाल राजनैतिक-सामाजिक प्रदर्शन की परतें खोलती हैं, जिसे हमारे देश का यथार्थ माना जाता है. ये सच है कि ऐसी कविताएं बार-बार नहीं लिखीं जातीं और इन्हें लिखने का साहस सबके बस की बात भी नहीं.
असद ज़ैदी के इस कविता-संग्रह की सबसे ख़ास बात ये है, कि इसमें शामिल बहुत सी कविताएं भारतीय कस्बाई ज़िंदगी के विलक्षण बिंबों के जरिए उन बदलावों को रेखांकित करती हैं- जो राजनीति, साहित्य, कला और भाषा के स्तर पर हमारे आसपास अक्सर घटित होते रहते हैं. अधिकतर कविताओं में ऐसे कई सारे चरित्र और नाम हैं, जो पहली बार किसी और कविता संग्रह में पढ़ने को नहीं मिले हैं. संग्रह में हल्की-फुल्की लगने वाली कविताएं भी हमारे समय की एक संजीदा तस्वीर बनाती हैं. जनक्षेत्र से ऐसे दृश्यों और लोगों को कविता में ढालने की कोशिश रघुवीर सहाय की कविताओं की याद दिलाती है.
असद ज़ैदी की कविताओं के बारे में मंगलेश डबराल लिखते हैं, “हमारी राजनीति में सांप्रदायिक फासीवाद का उभार और समाज का सांप्रदायीकरण एक नागरिक के नाते असद ज़ैदी की प्रमुख काव्य-चिंता है. समाज की इस गिरावट पर कई अद्वितीय कविताएं इस संग्रह में हैं. इसके लिए असद कभी हिंदी की राजनीति पर टिप्पणी करते हैं, तो कभी अमीर खां जैसे महान गायक की धुंधली पड़ती शास्त्रीय-दार्शनिक आवाज़ की स्मृति को उभारते हैं और यह सब वे जिस भाषा में करते हैं वह हिंदी-उर्दू के बीच एक नई आवाजाही, एक नई एकता का उदाहरण और हमारी काव्य-भाषा को समृद्ध करने की एक ठोस कोशिश है.”
आइए पढ़ते हैं असद ज़ैदी के कविता संग्रह ‘सामान की तलाश’ से ‘जो देखा नहीं जाता’, ‘हलफ़नामा’, ‘संपादक के नाम पत्र’, ‘हे ईश्वर’, ‘मेरे दुश्मन’, ‘इलाहाबादी लड़के’, ‘कौन नहीं जानता’, ‘इस्लामाबाद’, ‘सरलता के बारे में’, ‘अनुवाद की भाषा’ और ‘1857 : सामान की तलाश’ नाम से 11 चुनिंदा कविताएं-
1)
जो देखा नहीं जाता
हैबत के ऐसे दौर से गुज़रे हैं कि
रोज़ अख़बार मैं उलटी तरफ से शुरू करता हूं
जैसे यह हिंदी का नहीं उर्दू का अख़बार हो
खेल समाचारों और वर्ग पहेलियों के पर्दों से
झांकते और जज़्ब हो जाते हैं
बुरे अंदेशे
व्यापार और फैशन के पृष्ठों पर डोलती दिखती है
खते की झांईं
इसी तरह बढ़ता हुआ खोलता हूं
बीच के सफ़े, संपादकीय पृष्ठ
देखूं वो लोग क्या चाहते हैं
पलटता हूं एक और सफ़ा
प्रादेशिक समाचारों से भांप लेता हूं
राष्ट्री समाचार
गर्ज़ ये कि शाम हो जाती है बाज़ औकात
अख़बार का पहला पन्ना देखे बिना
2)
हलफ़नामा
नहीं ऐसा कभी नहीं हुआ
मनुष्य और कबूतर ने एक-दूसरे को नहीं देखा
औरतों ने शून्य को नहीं जाना
कोई द्रव यहां बहा नहीं
फ़र्श को रगड़कर धोया नहीं गया
हल्के अंधेरे में उभरती है एक आकृति
चमकते हैं कुछ दांत
कोई शै उठती है कील पर टंगी कोई चीज़
उतारती है चली जाती है
नहीं कोई बच्चा यहां सरकंडे की
तलवार लेकर मुर्ग़ी के पीछे नहीं भागा
बंदरों के क़ाफ़िलों ने
कमान मुख्यालय पर डेरा नहीं डाला
मैंने सारे लालच सारे शोर सारे
सामाजिक अकेलेपन के बावजूद केबल कनेक्शन
नहीं लगवाया
चचा के मिसरों को दोहराना नहीं भूला
नहीं बहुत-सी प्रजातियों को मैंने
नहीं जाना जो सुनना न चाहा
सुना नहीं, गोया बहुत कुछ मेरे लिए
नापैद था
नहीं पहिया कभी टेढ़ा नहीं हुआ
नहीं बराबरी की बात कभी हुई ही नहीं
(हो सकती भी न थी)
उर्दू कोई ज़बान ही न थी
अमीरख़ानी कोई चाल ही न थी
मीर बाक़ी ने बनवाई जो
कोई वह मस्जिद ही न थी
नहीं तुम्हारी आंखों में
कभी कोई फ़रेब न था.
3)
संपादक के नाम पत्र
दूसरों की आत्मकथाओं से बड़ा और क्या सहारा हो सकता है!
यों तो भुक्तभोगी एक मैं भी हूं,
पर गर्दिश के मारे व्यथित लेखकों की बात ही कुछ और है
जो उनके लिए यातना भरी आपबीती है
मेरे लिए आरामदेह एक दरी है.
सत्यकथाओं से निकलती ध्वनियां शैतान के स्नायुओं को भी
राहत और आराम पहुंचाती हैं
हमें पता चलता है हमारे प्रिय लेखक के एक सींग भी है
उसी नाराज यंत्र को रोज़ वह पहनाता है
बड़ी उद्विग्नता बड़ी आशा से गेंदे की माला.
प्रियवर मेरे साथ जो गुज़री कैसे लिखूं वह सब,
पर जो हो संक्षेप में हो, ऐसा कहकर आपने मेरी
सारी मुश्किल हल कर दी है.
यह लीजिए मेरी तमाम आपबीती —
जीवन में अब तक काफ़ी जलप्रदाय विभागों का
जल पी चुका हूं और हिंदी में बोलने की
बेकार ही कोशिश करता रहा हूं.
4)
हे ईश्वर
ईर्ष्या करना भी एक काम है
काश, मैं यही ठीक से कर पाता
मैंने कुछ लोगों से ईर्ष्या की
और कुछ लोगों का भला चाहा
जिनका चाहा था मैंने भला
उनमें बेशतर की डूबी नाव
वे करते हैं अब मुझी से ईर्ष्या
और जिन भाइयों से मैंने ईर्ष्या की
उनका अब रवैया ही कुछ और है
वे सभी भागवान चाहते हैं
तहे-दिल से मेरा भला.
5)
मेरे दुश्मन
जब मैं देखूंगा कि
वे बहुत क़रीब आ चुके हैं
और उन्होंने मुझे अभी देखा नहीं है
इससे पहले कि उनकी नज़र
मुझ पर पड़े
मैं अपने को सिकोड़कर
दो-तीन तहों में मोड़कर
या एक गोले में बदलता हुआ
फुर्ती से उनकी
टांगों के बीच से निकल जाऊंगा.
6)
इलाहाबादी लड़के
रात को देर तक ठोकपीट करते रहते हैं
इलाहाबाद से आए हुए कुछ नौजवान
कुछ दिनों में वे मंगलग्रह के लिए रवाना हो जाएंगे
संगीत सुनने का शौक अगर उन्हें इतना ही होता
तो वे इस तरह उसे न सुनते
पर मैं सोचता हूं चलो कुछ ही दिनों की बात है
फिर तो मंगलग्रह पर बजेगा यह संगीत
आधी रात को अचानक होने लगती है
कुछ भयानक उठापटक
कोई डेढ़ बजे सुनाई देती हैं
अजीबो-गरीब कराहें
अरे छोकरों, मंगलग्रह पर यह सब नहीं चलेगा
क्या तुम्हें कोई और काम नहीं
अपने भविष्य की कोई चिंता नहीं
पढ़ाई लिखाई का शौक नहीं
पढ़ाई! लिखाई!
किसलिए अंकल
हमा भारतीय प्रशासनिक सेवा की
परीक्षा में तो बैठ नहीं रहे
मंगलग्रह पर जा रहे हैं
यही तो हमारा काम है और यही भविष्य
चिंता हमें किस बात की!
7)
कौन नहीं जानता
कौन नहीं जानता
अयोध्या में सभी कुछ
काल्पनिक है
वह मस्जिद जिसे
ढहाया गया
काल्पनिक थी
वे तस्वीरें
किसी मशहूर फिल्म
के लिए थीं
यह एक दोपहर की झपकी थी
एक अस्तव्यस्त सा
स्वप्न था
या किसी का खर्राटा
जिसकी आवाज़ के पर्दे में मेहराब के चटकने की
खफीफ सी आवाज़ घुल गई
कुछ गुंबदें धीमी गति से गिरती चली गईं
काले सफेद धुंधलके में.
8)
इस्लामाबाद
मौसम ख़ुशनुमा था धूप में
तेज़ी न थी हवा धीरे-धीरे
चलती थी, पैदल चलता आदमी
चलता चला जा सकता था कई मील
बड़े मज़े से
यह भी एक ख़ुशफ़हमी थी हालांकि
मेरे साथ चलते शुक्ल जी से जब रहा न गया
तो बोले :
मेरे विचार से तो अब हमें इस्लामाबाद पर
परमाणु बम गिरा ही देना चाहिए.
9)
सरलता के बारे में
सच मानिए इंसान एक सरल मशीन है
वह अपनी साइकिल से भी सरल है
सुई-धागे से भी सरल है
मर्द सरल हैं औरतें उनसे भी सरल हैं
बच्चे ज़रा जटिल होते हैं पर वे भी आख़िर
बढ़कर पहुंचते हैं, बुनियादी सरलता की ओर
सरलता की ख़्वाहिश में वे धीरे-धीरे बड़े होते हैं
जटिलता मार डालती है इंसान को
उसकी सच्चाई को भी मार डालती है
कल एक औरत को जिसे मैं सरल इंसान मानता था
मार डाला एक जटिल और नफ़ीस मर्द ने
(उसकी नफ़ासत के हम सभी क़ायल हैं)
सभी को पता है इस घटना का
ऊपर की मंज़िल से उसे धक्का दिया था
अस्पताल के रास्ते में उसने
दम तोड़ दिया, कुछ बोल नहीं पाई
पुलिस कहती है मामला जटिल है जी
यह आत्महत्या भी हो सकती है
यों किसी पर संदेह भी किया जा सकता है
मोटिव देखना पड़ेगा क्लू मिलने चाहिए
सीधा प्रमाण कोई है नहीं
आपकी बात हम मान लें कि आत्महत्या यह नहीं थी
तो कारण दीजिए और कारण भी ध्यान रखिए
कई हो सकते हैं
मैं भी सोचता हूं कारण यहां कई हो सकते हैं
कोई महज़ धक्का दिए जाने से तो मरता नहीं
हां गिरने से ज़रूर मर सकता है
गिरने का संबंध गुरुत्वाकर्षण से है
उस औरत को उसके शौहर ने नहीं
पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण ने मारा
10)
अनुवाद की भाषा
अनुवाद की भाषा से अच्छी क्या भाषा हो सकती है
वही है एक सफ़ेद पर्दा
जिस पर मैल की तरह दिखती है हम सबकी कारगुज़ारी
सारे अपराध मातृभाषाओं में किए जाते हैं
जिनमें हरदम होता रहता है मासूमियत का विमर्श
ऐसे दौर आते हैं जब अनुवाद ही में कुछ बचा रह जाता है
संवेदना को मार रही है अपनी भाषा में अत्याचार की आवाज़.
11)
1857 : सामान की तलाश
1857 की लड़ाइयां जो बहुत दूर की लड़ाइयां थीं
आज बहुत पास की लड़ाइयां हैं
ग्लानि और अपराध के इस दौर में जब
हर ग़लती अपनी ही की हुई लगती है
सुनाई दे जाते हैं ग़दर के नगाड़े और
एक ठेठ हिंदुस्तानी शोरगुल
भयभीत दलालों और मुख़बिरों की फुसफुसाहटें
पाला बदलने को तैयार ठिकानेदारों की बेचैन चहलक़दमी
हो सकता है यह कालांतर में लिखे उपन्यासों और
व्यावसायिक सिनेमा का असर हो
पर यह उन 150 करोड़ रुपयों का शोर नहीं
जो भारत सरकार ने ‘आज़ादी की पहली लड़ाई’ के
150 साल बीत जाने का जश्न मनाने के लिए मंज़ूर किए हैं
उस प्रधानमंत्री के क़लम से जो आज़ादी की हर लड़ाई पर
शर्मिंदा है और माफ़ी मांगता है पूरी दुनिया में
जो एक बेहतर ग़ुलामी के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए कुछ भी
क़ुरबान करने को तैयार है
यह उस सत्तावन की याद है जिसे
पोंछ डाला था एक अखिल भारतीय भद्रलोक ने
अपनी-अपनी गद्दियों पर बैठे बंकिमों और अमीचंदों और हरिश्चंद्रों
और उनके वंशजों ने
जो ख़ुद एक बेहतर ग़ुलामी से ज़्यादा कुछ नहीं चाहते थे
जिस सन् सत्तावन के लिए सिवा वितृष्णा या मौन के कुछ नहीं था
मूलशंकरों, शिवप्रसादों, नरेंद्रनाथों, ईश्वरचंदों, सैयद अहमदों,
प्रतापनारायणों, मैथिलीशरणों और रामचंद्रों के मन में
और हिंदी के भद्र साहित्य में जिसकी पहली याद
सत्तर अस्सी साल के बाद सुभद्रा ही को आई
यह उस सिलसिले की याद है जिसे
जिला रहे हैं अब 150 साल बाद आत्महत्या करते हुए
इस ज़मीन के किसान और बुनकर
जिन्हें बलवाई भी कहना मुश्किल है
और जो चले जा रहे हैं राष्ट्रीय विकास और
राष्ट्रीय भुखमरी के सूचकांकों की ख़ुराक बनते हुए
विशेष आर्थिक क्षेत्रों से निकलकर
सामूहिक क़ब्रों और मरघटों की तरफ़
एक उदास, मटमैले और अराजक जुलूस की तरह
किसने कर दिया है उन्हें इतना अकेला?
1857 में मैला-कुचैलापन
आम इंसान की शायद नियति थी, सभी को मान्य
आज वह भयंकर अपराध है
लड़ाइयां अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद में पूरी होने के लिए
किसी और युग में किन्हीं और हथियारों से
कई दफ़े तो वे मैले-कुचैले मुर्दे ही उठकर लड़ने लगते हैं फिर से
जीवितों को ललकारते हुए जो उनसे भी ज़्यादा मृत हैं
पूछते हैं उनकी टुकड़ी और रिसाले और सरदार का नाम
या हमदर्द समझकर बताने लगते हैं अब मैं नजफ़गढ़ की तरफ़ जाता हूं
या ठिठककर पूछने लगते हैं बख़्तावरपुर का रास्ता
1857 के मृतक कहते हैं भूल जाओ हमारे सामंती नेताओं को
कि किन जागीरों की वापसी के लिए वे लड़ते थे
और हम उनके लिए कैसे मरते थे
कुछ अपनी बताओ
क्या अब दुनिया में कहीं भी नहीं है अन्याय
या तुम्हें ही नहीं सूझता उसका कोई उपाय.
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FIRST PUBLISHED : June 17, 2023, 00:34 IST