उल्‍टा दांव झेलेंगे या खुद पलट जाएंगे नीतीश? शराबबंदी वाले बिहार में सरकार के मुंह पर फिर पड़ा तमाचा


शराबबंदी वाले बिहार में अवैध शराब का कारोबार करने वालों ने सरकार के मुंह पर एक बार फिर करारा तमाचा जड़ा है. उन्‍होंने मेले में खुलेआम जहरीली शराब बेची और इसे पीकर ढाई दर्जन से ज्‍यादा लोग स्‍वर्ग सिधार गए. कई लोगों की आंखों की रोशनी चली गई सीवान और सारण जिलों में हुई इस घटना ने एक बार फिर नीतीश सरकार की पोल खोल दी.

इस घटना से यही साबित हो रहा है कि नीतीश सरकार शराबबंदी को लागू करवाने में पूरी तरह नाकाम हो रही है और पुरानी घटनाओं से सबक भी नहीं ले रही है. शराबबंदी के दौरान जहरीली शराब पीने से लोगों के मरने की कई वारदात हो चुकी हैं. दिसंबर 2022 में छपरा (सारण) में सबसे बड़ी वारदात हुई थी. तब जहरीली शराब पीने से 71 लोगों की जान गई थी. अकेले मशरक में 44 लोग मारे गए थे. फिर भी ताजा जहरीली शराब कांड का कनेक्‍शन भी मशरक से पाया गया है. घटना के बाद पकड़े गए लोगों में मशरक के कुछ धंधेबाज भी शामिल हैं.

मतलब साफ है कि इतनी बड़ी घटना हो जाने के बाद भी बिहार पुलिस जहरीली शराब का कारोबार बंद कराने में नाकाम रही. उस जगह भी नाकाम रही, जहां एक बार करीब चार दर्जन लोग जहरीली शराब पीकर जान गंवा चुके हैं.

राज्‍य में जहां जहरीली शराब का कारोबार नहीं रुक पा रहा, वहीं शराब की तस्‍करी भी जारी है. 15 अक्‍तूबर को बांका में एक ही गाड़ी से करीब एक करोड़ रुपये की शराब पकड़ी गई. ऐसे में सवाल उठता है कि क्‍या नीतीश सरकार को शराबबंदी के फैसले पर फिर से विचार करने की जरूरत है? क्‍या चुनाव से पहले इस मामले में वह पलटी मारेंगे या उल्‍टा दांव झेलने के लिए तैयार रहेंगे?

नीतीश सरकार ने अप्रैल, 2016 में शराबबंदी लागू की थी. तब राज्यभर में महिला समूहों ने शराब के खिलाफ अभियान चलाया था, क्योंकि इसे घरेलू हिंसा और आर्थिक तंगी का कारण माना जा रहा था. सरकार ने दावा किया कि शराबबंदी से परिवारों में खुशहाली और समृद्धि आएगी, घरेलू हिंसा के मामले कम होंगे.

नीतीश कुमार को यह उम्मीद भी थी कि उनके इस कदम से उन्‍हें चुनावी लाभ भी मिलेगा. खास कर, महिलाओं और हाशिए पर खड़े वर्गों का समर्थन बढ़ने की उम्‍मीद थी.

कहा जाता है कि शराबबंदी के बाद हुए पहले विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार को इसका फायदा भी मिला. खास कर महिला वोटर्स ने इसके लिए उनका विशेष समर्थन किया.

घरेलू हिंसा के मामले भी कम हुए, हेल्‍थ जर्नल ‘लांसेट’ के मुताबिक शराबबंदी के चलते घरेलू हिंसा के 21 लाख मामले कम हुए और 18 लाख बिहारवासी मोटापे से बच सके.

इसमें कोई दो राय नहीं कि बिहार में शराब का सेवन बड़ी समस्‍या थी. नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के 2011-12 के आंकड़े के मुताबिक, बिहार में प्रति व्‍यक्‍त‍ि शराब की सालाना औसत खपत 14.7 लीटर थी. देश में केवल पांच ही राज्‍य ऐसे थे जहां यह आंकड़ा इससे ज्‍यादा था. 2015-16 के नेशनल फैमिली हेल्‍थ सर्वे (एनएफएचएस) सर्वे के मुताबिक, 15 साल से ऊपर के करीब एक-तिहाई (29 प्रतिशत) पुरुष और एक फीसदी महिलाएं शराब का सेवन करती थीं. शराबबंदी से महिलाओं की स्‍थ‍िति में काफी सुधार की रिपोर्ट आई. आर्थ‍िक रूप से भी और सामजिक रूप से भी.

लेकिन, शराबबंदी पर अमल के मामले में नीतीश सरकार शुरू से कमजोर रही. इस वजह से शराबबंदी के चलते उनके पक्ष में बना माहौल धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगा.

शराबबंदी पर अमल में नीतीश सरकार की नाकामयाबी की कहानी आंकड़े भी बयान कर रहे हैं. नशाबंदी लागू होने के करीब तीन साल बाद भी बड़ी संख्‍या में लोग शराब का सेवन करते ही रहे. हालांक‍ि, इन तीन सालों में शराब का सेवन करने वाले पुरुषों की संख्‍या में 41.78 प्रतिशत की ही कमी आई. ‘लगभग रोज’ शराब पीने वालों की संख्‍या घट कर 29.72 प्रतिशत रह गई और शराब पीने वाली महिलाओं की संख्‍या में करीब 70 फीसदी की कमी आई.

शराबबंदी लागू कराने में नाकामी ने बिहार की प्रशासनिक व्यवस्था की कई खामियों को उजागर कर दिया. शराबबंदी के बाद अवैध शराब का धंधा तेजी से बढ़ा. पड़ोसी राज्यों-उत्तर प्रदेश, झारखंड और नेपाल से शराब की तस्करी में बढ़ोतरी हुई है. शराबबंदी के बाद अवैध कारोबारियों और तस्‍करियों के साम्राज्‍य पर सरकार चोट नहीं कर पाई. लोग कहने लगे कि शराबबंदी में शराब पहले से भी ज्‍यादा आसानी से मिलने लगी, फर्क इतना आया कि पैसे ज्‍यादा खर्च करने पड़ रहे. आरोप लगे कि शराबबंदी से कालेधन की एक समानांतर अर्थव्‍यवस्‍था जन्‍म लेने लगी, बड़ी संख्‍या में युवा शराब पहुंचाने के अवैध कारोबार में लग गए. यहां तक कि तस्‍करों ने महिलाओं को भी ‘कैरियर’ बना लिया.

नकली और जहरीली शराब पीने से बार-बार लोगों के मरने की घटनाएं प्रशासन की विफलता को ही दर्शाती हैं. शराबबंदी के उल्लंघन के मामले इतनी तेजी से बढ़े कि न्यायालयों और जेलों पर भारी बोझ पड़ गया. हजारों मामले लंबित हैं, जिससे अन्य महत्वपूर्ण मामलों पर ध्यान देना मुश्किल हो गया है.

पुलिस को शराबबंदी लागू कराने के लिए असीमित अधिकार मिले, जिससे भ्रष्टाचार और आम जनता का उत्पीड़न बढ़ा. गरीब और वंचित वर्गों के लोगों को झूठे मामलों में फंसाने के भी आरोप लगे हैं.

जहां एक तरफ सरकार ने शराबबंदी से परिवारों को सशक्त करने की बात कही थी, वहीं दूसरी तरफ कई परिवारों में पुरुषों ने शराब के स्थान पर नशीली दवाओं का सेवन शुरू कर दिया, जिससे नई समस्याएं पैदा हो रही हैं.

शराबबंदी से राज्य सरकार को भारी आर्थिक नुकसान हुआ. शराब बिक्री से मिलने वाला उत्पाद शुल्क पहले राज्य के राजस्व का महत्वपूर्ण हिस्सा था. इस नुकसान का असर कल्याणकारी योजनाओं और विकास कार्यों पर भी पड़ा है. इस नुकसान की भरपाई का कोई विकल्‍प सरकार तैयार नहीं कर सकी.

इस बीच, नीतीश सरकार को यूटर्न भी लेना पड़ा. जहां कानूनी स्‍तर पर राहत वाली घोषणाएं करनी पड़ीं, वहीं जहरीली शराब पीने से मौत पर मुआवजे के मामले में भी तेवर नरम करने पड़े.

अब एक बार फिर 2025 के विधानसभा चुनाव में शराबबंदी का मुद्दा बनना तय है, क्‍योंकि पार्टी बनाकर पहली बार राज्‍य के चुनावी मैदान में उतरने जा रहे प्रशांत किशोर ने कहा है कि अगर उनकी जन सुराज पार्टी सत्‍ता में आई तो सबसे पहले शराबबंदी हटाने का फैसला करेगी. शराबबंदी लागू कराने में नीतीश सरकार की नाकामी से उपजी समस्‍याओं के चलते इस मसले पर उन्‍हें अब पहले जैसा जनसमर्थन नहीं मिल रहा है. विपक्ष भी उन पर यह कह कर दबाव बना रहा है कि नीतीश ने बिना पूरी तैयारी के शराबबंदी लागू कर दी और इस वजह से कई नई समस्‍याएं पैदा कर दीं. इस तरह इस चुनाव में शराबबंदी का दांव नीतीश को उल्‍टा भी पड़ सकता है. या फिर, चुनाव से पहले उन्‍हें पलटना भी पड़ सकता है.

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