क्या हो अगर 1 रुपया और 1 डॉलर हो जाएं बराबर, क्या होगा इससे फायदा? क्यों कुछ देश कमजोर ही रखते हैं करेंसी



dollar rupee 2 क्या हो अगर 1 रुपया और 1 डॉलर हो जाएं बराबर, क्या होगा इससे फायदा? क्यों कुछ देश कमजोर ही रखते हैं करेंसी

हाइलाइट्स

डॉलर का रुपये के बराबर होने का मतलब है सस्ता आयात.
लेकिन भारत में इससे सामान बनाना और निर्यात महंगा हो जाएगा.
इसकी वजह से विदेशी निवेश भारत से निकलने लगेगा.

नई दिल्ली. किसी भी देश की करेंसी की कीमत अर्थव्यवस्था के बेसिक सिद्धांत, डिमांड और सप्लाई पर आधारित होती है. फॉरेन एक्सचेंज मार्केट में जिस करेंसी की डिमांड ज्यादा होगी उसकी कीमत भी ज्यादा होगी, जिस करेंसी की डिमांड कम होगी उसकी कीमत भी कम होगी. यह पूरी तरह से ऑटोमेटेड है. सरकारें करेंसी के रेट को सीधे प्रभावित नहीं कर सकती हैं.

इसलिए करेंसी की वैल्यू बहुत ज्यादा होने का मतलब यह नहीं होता कि वहां की अर्थव्यवस्था सबसे मजबूत है. आज हम चर्चा करेंगे कि आखिरी कि डॉलर के रुपये के बराबर होने के फायदे-नुकसान क्या है. क्या कभी डॉलर के समान थी रुपये की वैल्यू? भारत ने रुपये के कमजोर क्यों किया और बाकी देश भी ऐसा क्यों करते हैं.

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क्या होगा फायदा
आयात सस्ता होना से वस्तु व सेवाएं खरीदना सस्ता हो जाएगा. लग्जरी वाले आइटम भी सस्ते हो जाएंगे. उदाहरण के लिए आईफोन केवल 650 रुपये में मिल जाएगा. आयात सस्ता तो मतलब कच्चा तेल और नैचुरल गैस भी सस्ता हो जाएगा. जिन भी कामों में इनका इस्तेमाल होता है उन सभी के दाम नीचे आ जाएंगे. विदेश में जाकर पढ़ाई करना तुलनात्मक रूप से सस्ता हो जाएगा. विदेश पर्यटन लाखों नहीं हजारों में हो जाएगा.

नुकसान क्या है
आयात अगर सस्ता होगा तो निर्यात यहां से महंगा हो जाएगा. विदेशी कंपनियों का भारत आने का सबसे बड़ा कारण ही होता है कि यहां सस्ता लेबर मिल जाता है. अगर डॉलर और रुपया समान हो जाएगा तो विदेशी कंपनियों को यहां उतना ही खर्च करना होगा जितना वह अमेरिका या किसी और विकसित देश में कर रही हैं. ऐसे में वह अपनी फैक्ट्रियां यहां से उठा कर ऐसे देश में चली जाएंगी जहां लेबर सस्ता है. जैसे चीन, फिलीपींस आदि. सबसे गहरा धक्का सर्विस सेक्टर को लगेगा. जीडीपी का 60 फीसदी हिस्सा यहां से आता है और भारत में 27 फीसदी रोजगार यहां से मिलता है. आईटी सेक्टर इसका एक बड़ा भाग है.

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आईटी सेक्टर विदेशी कंपनियों को सेवाएं देने पर निर्भर है. अगर 1 डॉलर 1 रुपये के बराबर हुआ तो उनके लिए यहां निवेश करने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा. कई आईटी कंपनियां खतरे में पड़ जाएंगी. कई कॉल सेंटर्स बंद हो जाएंगे और बेरोजगारी एकदम से ऊपर भागेगी. जब विदेशी पैसा भारत में नहीं आएगा तो अंतत: अर्थव्यवस्था तेजी से नीचे की ओर गिरने लगेगी. यही कारण है कि चीन, जापान जैसे विकसित देश भी अपनी करेंसी की वैल्यू बहुत ऊपर नहीं जाने देते. जापान की करेंसी अभी भारत से भी कमजोर है लेकिन क्या जापान को एक पिछड़ा देश कहा जा सकता है, बिलकुल नहीं.

कब-कब गिराई गई वैल्यू
1947 में 1 डॉलर की कीमत 1 रुपये के ही बराबर थी. हालांकि, जैसे ही देश आजाद हुआ भारत को अंतरराष्ट्रीय मैट्रिक सिस्टम अपनाना पड़ा और उसके साथ ही रुपया लुढ़क गया. इसलिए आधिकारिक तौर पर आजाद भारत का रुपया कभी डॉलर के बराबर था ही नहीं. 1949 में 1 डॉलर 3.67 रुपये का हो गया. इसके बाद फिर चीन और पाकिस्तान से युद्ध के बाद 1966 में फिर से रुपये की वैल्यू घटाई गई. 1991 में आर्थिक संकट के समय 3 दिन में 2 बार रुपये की वैल्यू डॉलर के मुकाबले गिराई गई. 1 जुलाई 1991 और फिर 3 जुलाई 1991 को यह काम किया गया. तब रुपये को संभवत: सबसे तगड़ा झटका लगा था. रुपया उस समय अचानक 1 डॉलर के मुकाबले 25 का हो गया. वहीं, अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद यह 35 पर पहुंच गया. इसके बाद रुपये को फ्लोटिंग एक्सचेंज रेट पर डाल दिया गया.

क्या है निष्कर्ष
किसी भी बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के लिए करेंसी की वैल्यू बहुत अधिक होना अच्छा नहीं है. खासतौर पर ऐसे देश जो निर्यात से पैसा बना रहे हों. भारत को विदेशी निवेश की अभी जरूरत है. रुपये की वैल्यू बढ़ने से यह निवेश खतरे में पड़ सकता है. इसलिए कई अर्थशास्त्री यह भी मानते हैं कि भारत को अपनी करेंसी को और डीवैल्यू करना चाहिए. बता दें कि करेंसी की डीवैल्यूएशन सरकार खुद करती है ताकि विदेशी कंपनियां देश में निवेश करती रहे हैं.

Tags: Business news in hindi, Dollar, Indian currency, Rupee weakness



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