जानें कौन हैं कनकलता बरुआ, जिन्हें राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने किया याद, हाथों में तिरंगा लिए हुई थीं शहीद
नई दिल्ली. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू (President Draupadi Murmu) ने स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर अपने भाषण में महिला स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान की सराहना की. मुर्मू ने कहा, “स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर, मैं अपने साथी नागरिकों के साथ उन ज्ञात और अज्ञात स्वतंत्रता सेनानियों को कृतज्ञ श्रद्धांजलि अर्पित करती हूं जिनके बलिदानों ने भारत को राष्ट्रों के समुदाय में अपना उचित स्थान हासिल करना संभव बना दिया है.” मुर्मू ने कहा, मातंगिनी हाजरा और कनकलता बरुआ जैसी महान महिला स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत-माता के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया.
भारत की महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कनकलता बरुआ भारत छोड़ो आंदोलन के सबसे कम उम्र के शहीदों में से एक थीं. 20 सितंबर, 1942 को, बरुआ ने गोहपुर पुलिस स्टेशन पर तिरंगा फहराने के लिए मृत्यु वाहिनी समूह का नेतृत्व किया था. ब्रिटिश सेना द्वारा की गई गोलीबारी के बाद बरुआ की मौत हो गई थी लेकिन उनके हाथों में तिरंगा था. कनकलता बरुआ का जन्म 22 दिसंबर 1924 को असम के बरंगाबाड़ी गांव में हुआ था. द प्रिंट के अनुसार, उनके माता-पिता कृष्णकांत बरुआ और कोर्नेश्वरी बरुआ थे.
मृत्यु वाहिनी में सबसे कम उम्र की सदस्य बनीं थी कनकलता
फेमिनिज्म इंडिया वेबसाइट के अनुसार, बरुआ की मां का पांच साल की उम्र में निधन हो गया था. इसके बाद उनके पिता ने दोबारा शादी की, लेकिन एक दशक से भी कम समय के बाद उनका निधन हो गया था. ये घटनाक्रम विशेषकर महिलाओं के बीच स्वतंत्रता संग्राम को असम में अधिक से अधिक समर्थन मिलने की पृष्ठभूमि में आया है. उस दौर में कई महिलाएं ‘शांति वाहिनी’ और ‘मृत्यु वाहिनी’ में शामिल हो गईं थी.
On the eve of Independence Day, I join my fellow citizens in paying grateful tribute to the known and unknown freedom fighters whose sacrifices have made it possible for India to regain its rightful place in the comity of nations. Great women freedom fighters like Matangini Hazra… pic.twitter.com/US3b32LUll
— ANI (@ANI) August 14, 2023
आजाद हिंद फौज में शामिल होना चाहतीं थीं, लेकिन तब नाबालिग थीं…
जबकि पहले समूह के सदस्यों ने शांति से काम किया, दूसरे समूह के सदस्यों ने खुद को मौत का सामना करने के लिए तैयार किया. बरुआ शुरू में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल होना चाहती थीं. हालांकि, उसके नाबालिग होने की स्थिति ने उसे शामिल होने से रोक दिया गया था. इसके बाद बरुआ ने मृत्यु वाहिनी समूह में शामिल होना पसंद किया. मृत्यु वाहिनी की भी नाबालिगों को अनुमति न देने की एक समान नीति थी. लेकिन बरुआ ने किसी तरह अपना स्थान बना लिया और यहां तक कि उन्हें कैडर का प्रभारी भी बना दिया गया.
सबसे छोटी होने के बावजूद कनकलता ने जुलूस का नेतृत्व किया
बरुआ पर एक मोनोग्राफ लिखने वाली डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय की सेवानिवृत्त प्रोफेसर शीला बोरा ने 2020 में द इंडियन एक्सप्रेस को बताया था वह घटना से ठीक दो दिन पहले मृत्यु वाहिनी में शामिल हुई थी. दस्ते में 18 वर्ष और उससे अधिक आयु के सदस्यों को सख्ती से प्रवेश दिया गया लेकिन कनकलता एक अपवाद थी. वह जुलूस का नेतृत्व करना चाहती थी और बहुत समझाने के बाद उसे इसकी अनुमति दी गई.
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महज 17 साल की थी उम्र लेकिन जज्बा सबके समान था
20 सितंबर, 1942 को, महज 17 साल की उम्र में कनकलता बरुआ ने गोहपुर पुलिस स्टेशन की ओर मार्च में 5,000 स्वतंत्रता सेनानियों के एक समूह का नेतृत्व किया था. वे भारत छोड़ो आंदोलन के समर्थन में तिरंगा फहराना चाहती थीं. द प्रिंट के अनुसार, तब बरुआ को थाना प्रभारी द्वारा रोकने की कोशिश की गई थी, लेकिन तब बरुआ ने उससे कहा कि मैं तो अपना कर्तव्य निभा रही हूं और तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए. इसके बाद पुलिस स्टेशन आए बरुआ और उसके साथियों पर ब्रिटिश सेना ने अंधाधुंध फायरिंग की थी.
सबसे आगे थीं कनकलता बरुआ, सबसे पहले हुईं शहीद
कनकलता बरुआ, जुलूस में सबसे आगे थीं, उनकी हत्या नजदीक से गोली मारकर कर दी गई. गोलियों से छलनी होने के बावजूद बरुआ ने झंडे को नहीं छोड़ा और वह जमीन पर गिर गईं. बोरा ने बताया कि बरुआ नहीं चाहती थीं कि झंडा जमीन छुए, इसलिए एक अन्य महिला स्वयंसेवक मुकुंद काकोटी ने झंडा थाम लिया था. अंग्रेजों ने उसे भी गोलियां मार दी थीं. कनकलता बरुआ की शहादत ने लाखों लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा था. जुलूसों, रैलियों में महिलाएं बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रही. देशभक्ति का उत्साह अपने चरम पर था. भारतीय तट रक्षक ने 2020 में भारत छोड़ो आंदोलन के लिए अपनी जान कुर्बान करने वाली किशोरी को ICGS कनकलता बरुआ के नाम से शुरू किया गया है.