तेजस्वी के सीएम बनने और PK के सरकार बनाने के सपने पर लगा ग्रहण, नीतीश कुमार ने साबित किया- अभी वे थके नहीं


बिहार विधानसभा की चार सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे एनडीए के लिए उत्साहजनक हैं. रामगढ़, तरारी, बेलागंज और इमामगंज सीटों पर उपचुनाव हुए थे. ये सीटें इसलिए खाली हुई थीं कि पिछली बार इन सीटों पर जीते लोग अब सांसद बन गए हैं. रामगढ़ सीट आरजेडी नेता सुधाकर सिंह के सांसद बन जाने से खाली हुई थी तो बेलागंज सीट सुरेंद्र यादव के सांसद निर्वाचित होने से. तरारी सीट से सीपीआई (एमएल) विधायक सुदामा प्रसाद और इमामगंज से हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (HAM) प्रमुख जीतन राम मांझी के सांसद चुने से जाने से उनकी सीटें रिक्त हुई थीं. दो सीटों- रामगढ़ और बेलागंज पर आरजेडी का कब्जा था तो तरारी सीट पर आरजेडी की सहयोगी सीपीआई (एमएल) काबिज थी. सिर्फ इमामगंज की सीट एनडीए की थी.

उपचुनाव में आरजेडी शून्य पर सिमट गई है, वहीं एनडीए के खाते में सभी सीटें चली गई हैं. तकरीबन 35 साल बाद बेलागंज सीट से आरजेडी का कब्जा हटा है और जेडीयू की मनोरमा देवी ने जीत हासिल की है. रामगढ़ और तरारी सीट पर भाजपा ने जीत दर्ज की है, तो इमामगंज सीट पर हम (HAM) का कब्जा बरकरार है.

आरजेडी को नहीं पचेगी बेलागंज की हार
इन चार सीटों पर हुए उपचुनाव का सरकार पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है. अलबत्ता सीएम का सपना देख रहे तेजस्वी यादव के लिए यह बड़ा झटका है. इससे जनता के बीच यह संदेश जाएगा कि एनडीए से पार पाना अब तेजस्वी यादव के लिए आसान नहीं है. खासकर तब, जब बेलागंज में बीमारी की हालत में भी लालू प्रसाद यादव ने सभा की. यादव मतों को विभाजित होने से बचाने के लिए उन्होंने खुद जाकर संदेश दिया. मुस्लिम वोटर जन सुराज के मुस्लिम कैंडिडेट की वजह से न छिटक जाएं, इसके लिए सीवान के दिवंगत सांसद शहाबुद्दीन के बेटे को भी उपचुनाव में उतारा गया.

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लालू को कम से कम बेलागंज सीट पर अपने उम्मीदवार की जीत का पक्का भरोसा था. इसलिए कि सुरेंद्र यादव लंबे समय से बेलागंज का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं. इस बार उनके बेटे को आरजेडी ने उम्मीदवार बनाया था.

प्रशांत किशोर हार गए और हरा भी दिया
बहुजन समाज पार्टी (BSP) के संस्थापक कांशीराम की एक सियासी उक्ति थी. वे अक्सर इसे दोहराते थे. वे कहते थे कि कैंडिडेट को पहली बार हारने के लिए चुनाव लड़ना चाहिए. दूसरी बार हराने के लिए मैदान में उतरना चाहिए. तीसरी बार मैदान में डटे रहे तो यकीन मानिए कि कामयाबी मिलनी तय है. बिहार में प्रशांत किशोर इनमें दो स्टेप तो पहली बार में ही पार करते दिखते हैं.

जातीय घेरे में रहकर जातीय गोलबंदी तोड़ने की उन्होंने जन सुराज की नीति को अमल में लाने की पूरी कोशिश की. पर, वर्षों से जाति की जकड़न में उलझे बिहार को एक झटके में बाहर निकालना संभव हो ही नहीं सकता.

यही वजह रही कि प्रशांत किशोर की पार्टी जन सुराज लगभग हर सीट पर तीसरे नंबर पर रही और दूसरे की जीत में मदद पहुंचाई. कांशीराम की मान्यता के मुताबिक पहली ही बार में उन्होंने दो बाधाएं पार कर लीं. अगर इस हार से आहत हुए बगैर वे मैदान में डटे रहते हैं तो अब उनकी जीत की ही बारी आएगी.

नीतीश कुमार के दांव से आरजेडी हुआ चित
नीतीश कुमार की प्रतिष्ठा सीधे-सीधे भले दांव पर नहीं थी, लेकिन उपचुनाव में एनडीए की कामयाबी के प्रति वे जरूर आशान्वित रहे होंगे. इसकी तीन वजहें थीं. अव्वल यह कि बेलागंज में सुरेंद्र यादव की ही औकात की नेता मनोरमा देवी को जेडीयू ने उम्मीदवार बनाया था. वे जेडीयू की एमएलसी रह चुकी हैं. वे भी सुरेंद्र यादव की ही बिरादरी की हैं. दबंगई और धन के मामले में भी वे किसी से कमजोर नहीं थीं. हाल ही में उनके घर से बड़े पैमाने पर कैश और हथियार बरामद हुए थे.

नीतीश और जेडीयू के तमाम बड़े नेता बेलागंज में चुनाव प्रचार के लिए गए. जातीय से लेकर तमाम तरह के समीकरण साधे गए. नीतीश को बेलागंज में कामयाबी की पक्की उम्मीद इसलिए भी थी कि प्रशांत किशोर के बेलागंज में खेला करने की गुंजाइश जन सुराज के मुस्लिम उम्मीदवार की वजह से बन गई थी. उन्हें अनुमान था कि दो के झगड़े में तीसरे को लाभ हो जाएगा.

प्रशांत किशोर की सभाओं में मुसलमानों का जुटान देखकर आरजेडी के एम-वाई समीकरण में सेंधमारी साफ दिख रही थी. यादव बनाम यादव की लड़ाई में यादवों का बंटवारा तय था.

जन सुराज ने मुसलमानों में विभाजन रेखा खींच दी थी. खतरा भांपते ही लालू वहां पहुंच गए. सीवान के पूर्व सांसद और एम-वाई समीकरण के संस्थापकों में एक शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा शहाब भी बेलागंज पहुंचे. यानी उपचुनाव में एम-वाई समीकरण भी ध्वस्त हो गया है. इसके लिए प्रशांत किशोर की भूमिका को खारिज नहीं किया जा सकता.

Tags: Bihar election 2024, Nitish kumar, Prashant Kishore, Tejashwi Yadav



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