निरंजन श्रोत्रिय की कविताओं को पढ़ना हमारे भौंचक रह जाने के लिए काफी है



book 06 28 निरंजन श्रोत्रिय की कविताओं को पढ़ना हमारे भौंचक रह जाने के लिए काफी है

साहित्‍य समाज का दर्पण है. बचपन में यह वाक्‍य रटे रटाए निबंधों की तरह गुजर गया था. फिर जब किताबों से रिश्‍ता बढ़ा तो साहित्‍य में अपने आसपास को पाया और यह वाक्‍य अनुभूत होता गया. आज के समय में जब खूब लिखा जा रहा है, खूब छापा भी जा रहा है और जिसके छपने की गुंजाइश नहीं है वह सोशल प्‍लेटफार्म पर भी प्रचलित हो रहा है. हर लिखे का अपना पाठक समूह तैयार हो जाता है. ऐसे समय में जब हिट्स और लाइक प्रतिष्‍ठा तय कर रहे हैं तब निरंजन श्रोत्रिय की कविताएं आषाण के बादल सी बरसती हैं, कभी सावन की बदरी की तरह झरती हैं. बेशक, काव्‍य संग्रह का शीर्षक ‘न्‍यूटन भौंचक्‍का था’ है लेकिन इस संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए हम यकायक ठहर जाते हैं, कभी विचार की उंगली थामे चल पड़ते हैं अपने अनुभव लोक की यात्रा में. इन कविताओं को पढ़ कर हम थोड़ा खुश होते हैं, थोड़ा दु:खी, थोड़ी कसक साथ होती है, थोड़ी आस जन्‍म लेती है.

डॉ. निरंजन श्रोत्रिय समकालीन हिंदी साहित्‍य का जाना पहचाना नाम है. वे कवि हैं, कथाकार हैं, आलोचक हैं और पत्रिका ‘समावर्तन’ के संपादक हैं. देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं, कहानियों और आलोचनाओं के माध्‍यम से बड़े वर्ग तक पहुंचे हैं. ‘जहां से जन्म लेते हैं पंख’, ‘धुंआ’ और ‘जुगलबंदी’ पुस्‍तकों के बाद प्रकाशित काव्‍य संग्रह ‘न्‍यूटन भौंचक्‍का था’ प्रसिद्धि बटौर रहा है. मध्यप्रदेश के गुना जिले के आरोन में शासकीय महाविद्यालय में प्राचार्य डॉ. निरंजन श्रोत्रिय के इस काव्‍य संग्रह 75 कविताएं है या यूं कहिए जीवन के 75 के रंग हैं. इस काव्‍य इंद्रधनुष में उत्‍साह का लाल, उम्‍मीद का हरा, विश्‍वास का नीला तो हमें कचौटती परिस्थितियों का धूसर रंग भी है. जब बात इंद्रधनुष की आ ही गई तो उनकी एक कविता ‘कैनवास’ याद आती है जिसमें वे लिखते हैं, ‘नहीं बन पा रहा है मनचाहा रंग/सम्मिश्रण की कोशिशों के बावजूद/ थक गया है कैनवास/झूठी हरियाली समेटे-समेटे.’

कभी-कभी ही नहीं अब तो अकसर लगता है कि हमारा जीवन झूठी हरियाली से हरा है. हमारी खुशी वर्चुअल कारकों पर टिकी है और हमारी निराश लाइक्‍स की संख्‍या से उपजी. तभी तो आज का ‘समस्‍या’ कविता में वे लिखते है:

समस्या यह नहीं
कि ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ है
समस्या यह कि ‘नेट’ बहुत स्लो है
दुःख इस बात का नहीं कि पैरों में लकवा है
दिक्कत यह कि कम्प्यूटर ‘हैंग’ है
सवाल यह नहीं
कि हर रोज़ गायब हो रहे सैकड़ों बच्चे
चिंता यह कि पूरी फाइल ‘डिलीट’ हो गई है
कोई गम नहीं कि कविता नहीं लिख पा रहा
मलाल यह कि फोटो अपलोड नहीं हो पा रही
बगल में बैठा है दोस्त पर बात नहीं हो रही
क्या मजबूरी है कि सिग्नल नहीं मिल रहे
चूंकि खयालों में डूबा था
कि कब आएगा ‘विंडोज’ का नया वर्शन
सुन नहीं पाया दरवाजे पर हो रही दस्तक
उस दौर में जब ‘मेल बॉक्स’ भरे हों
और लाल डिब्बे खाली
समस्याएं स्वरूप बदल लेती हैं
जैसे कि
समस्या यह नहीं कि
कितना अकेला हो गया हूं इन दिनों
खुशी यह कि
कितने लोगों से जुड़ा दिख रहा हूं.

कितनी सहजता से कितनी गंभीर बात कह दी जा रही है यह कविता के अंत तक पहुंचते-पहुंचते जाहिर होता है. डॉ. निरंजन श्रोत्रिय की रचनाओं के विषय बहुत आम है, उनका ट्रीटमेंट भी उतना ही सहज है मगर उनका संदेश जितना व्‍यापक है, उतना ही पैना भी. जैसा कि, प्रख्‍यात फिल्‍मी गीत ‘एक दो तीन’ को केंद्र में रख लिखी गई इसी शीर्षक की कविता में वे लिखते हैं:

यदि आप ध्यान से सुनें
एक दो तीन मार्का यह हिट गीत
तो इसमें पूरे महीने को
सहर्ष बिताने का सूत्र व्याप्त है
और यदि बिता लिया एक महीना तो
बिताए जा सकते हैं बारह महीने भी
और यदि एक साल तो फिर पांच
और फिर कई-कई साल.
इस दौर में दुःख और कष्ट बड़ी बात नहीं
बड़ी बात है उन्हें सहना
उससे भी बड़ी बात उन्हें दुःख और कष्ट ही न मानना
वह वाकई युगपुरूष है
उसने समझा दिया इतना बड़ा दर्शन
यूं ही चुटकी बजाते.

कभी-कभी हमें अपना समय सबसे संवेदनाहीन युग लगता है. ऐसा समय जिसकी अपनी ढेरों समस्‍याएं हैं जो हमारा दम घोंट रही है मगर हर तरफ आदमी ही आदमी वाले इस समय में एक कांधा ऐसा नहीं मिलता जिस पर भरोसे से सिर टिकाया जा सके. जब कवि इस पीड़ा को महसूस करता है तो वह यूं लिखता है एक कविता:

न जाने किस बोझ या दर्द से झुके हुए हैं कंधे
बात-बात पर उचकाए जा रहे हैं.
खो चुके भरोसा
मिलते नहीं अब सर रख कर रोने और सोने के लिए
बल्कि नदारद अं‍तिम यात्रा से भी
ये अचानक क्या हुआ कंधों को
शरीर पर एक चेहरा और दो कंधे होते हैं.
इस हिसाब से देश में सवा अरब लोग और
ढाई अरब कंधे हुए
ढाई अरब बहुत बड़ी संख्या है
फिर भी कम क्यों लग रही है?

सवाल तो यह भी छोटा नहीं है कि पता पूछने पर घर तक छोड़ आने का सौजन्‍य रखने वाले समाज में अपरिचय और दूरी की चौकड़ी खिंच गई है. ‘शहर में पता बताने वाले’ कविता में कवि का अनुभव हमारा अनुभव भी तो है. जब वे लिखते हैं तो सहज ही हम भी सहमत हो जाते हैं उनके कथ्‍य से:

इन दिनों यह प्रजाति थोड़ी दुर्लभ होती जा रही
कि अपनी परेशानियों और काम धंधा छोड़
किसी को पता बताते फिरो कि जहां जाना नहीं है उन्‍हें
सो, इन दिनों पता पूछने पर
सधा और सीधा जवाब है
‘सॉरी, नो आइडिया!’

जब दुनिया इतने पतों की खोज से भरी हुई हो
और उन्हें बताने वाली कोई प्रजाति न हो
तो मान लें कि यह अहं, आत्‍ममुग्‍धता, व्‍यापार और स्‍वार्थ का
बेहद अमानवीय समय है,
कोरोना से कई गुना अधिक खतरनाक समय.

हमारे इसी समय में आधी दुनिया कह कर संबोधित की गई स्त्रियों के लिए वेतन, सुविधाएं और संवेदनाएं भी आधी नहीं हैं. आधी-अधूरी जी रहीं इन स्त्रियों की पीड़ा को कवि ने अपनी दृष्टि से देखा है. ‘लेडीज रूमाल’ कविता में वे लिखते हैं:

लेडीज रूमाल मर्दों के रूमाल से
छोटा होता है- लगभग आधा.
यह एक तथ्य है यदि इसे प्रश्न की तरह पूछें तो!
क्या आधा होता है स्त्रियों का पसीना?
या आंखों से झरने वाली वेदना?
क्या आधी होती हैं परेशानियां औरतों की
या कि संघर्ष पुरूषों की बनिस्बत?
क्या आधी होती है पकड़ औरत की हथेलियों की
जिसमें वह लेडीज़ रूमाल के साथ
इस दुनिया को भी भींच कर रखती हैं!
क्या इसीलिए छोटा होता है लेडीज रूमाल
ताकि रखकर उसे कहीं
घेरी जा सके अपनी जगह कथित औकात के मुताबिक?

इस तरह एक मुद्दे को सहजता से हमारे बीच रखते हुए ये कविताएं हमें रूकने पर विवश कर देती हैं क्‍योंकि इन कविताओं में हमारा अपना समय ठिठका हुआ है. ‘वर्णमाला का सौंदर्य’ कविता को ही एक उदारहण के रूप में देख लीजिए.

अनार, आम और इमली तक सहमति थी
लेकिन ईख के बारे में पूछा
कि ‘ई’ यदि ‘ईमान’ का सिखाएं तो?
-लेकिन ईमान कोई वस्तु नहीं
जिससे बच्चों को समझाया जा सके: उत्तर था
तो फिर ‘ई’ ‘ईंट’ का का कैसा रहेगा?
कुछ देर मौन पसरा रहा
– अनार, आम, इमली के स्वाद को समझें
इन फलों की नाजुकता के बरक्स ईंट की कठोरता?
वर्णमाला का कोई सौंदर्य भी होता है या नहीं?
‘ईख’ फाइनल और ‘ईंट’ अंततः वर्णमाला से बाहर हुई.
इस तरह नींव में मजबूती की जगह
मिठास को रखने के विचार का जन्म हुआ.

हमारे आसपास बिखरे विषय जो हमें कभी परेशान करते हैं, कभी हम उन्‍हें नजरअंदाज कर चल पड़ते हैं, इन कविताओं के माध्‍यम से हमारे रूबरू आ खड़े होते है और तब हम इनसे मुंह नहीं चुरा पाते हैं. इन कविताओं का पढ़ लेना वास्‍तव में हमारे भौंचक रह जाने के लिए काफी है.

Tags: Book, Hindi Literature, Hindi poetry



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