नीला और उसका इंतज़ार | – News in Hindi



Prague Diary नीला और उसका इंतज़ार | - News in Hindi

रंग नीले का साथ मुझे कविता और कला ने हासिल कराया. जिन शहरों में पला, बढ़ा और काम किया, वहाँ नीला दुर्लभ था और अक्सर उदास भी. शमशेर के नभ का वह गीला चौका, सुबह का वह नील शंख मेरी सृष्टि के लिये विरला था. कई बरस बाद मैंने अशोक वाजपेयी को अपनी प्रिय कविताओं का पाठ करते सुना था. नागार्जुन की ‘अकाल और उसके बाद’ के साथ उन्होंने शमशेर की ‘उषा’ सुनाई थी. “इस कविता को पढ़ने के बाद न जाने मैंने कितनी बार सुबह को देखा होगा, शमशेर को याद किया होगा,” अशोक वाजपेयी बोले थे.

मेरे लिये यह रंग उस धुंध की तरह था जो तेजी ग्रोवर के उपन्यास ‘नीला’ पर बहती है. रघुवीर सहाय ने उस नीले को देख लिया था जो किसी के कंधे पर जाकर नीला होता था. मैं उस कंधे की तलाश में था जो किसी भी रंग को नीले में बदल देता था.

कुछ बरस बाद मैंने मैगी नेल्सन की ब्लुएट्स पढ़ी. लुडविग विटगेंस्टाइन ने अपनी मृत्यु शैया पर रंगों के ऊपर एक गहन दार्शनिक टेक्स्ट लिखा था, लेकिन मैं नहीं जानता था कि कोई किसी एक रंग पर इतनी आत्मीय, मार्मिक और साथ ही वैचारिक किताब भी लिख सकता था. नेल्सन को इस रंग से इश्क था. वे जीवन को नीले के आइने से देखती थीं. जिस तरह पीले की आभा आप विन्सेंट वान गॉग के चित्रों के जरिये जानते हैं, जिनके कैनवास पर आकर पीला एक चमत्कारिक स्वरूप ले लेता है, नीला अब मेरे लिये कायनात का अंतिम स्वप्न बन गया था.

यह नीला मेरे जीवन में शिमला जाने के बाद अनायास आ गया. इस पहाड़ी शहर के आकाश पर नीला बेशुमार मोहिनी मुद्राओं में बरसता था. बर्फ़ के मौसम का सुहाना नीला, दिसंबर की शामों का खिलता हुआ नीला, अप्रैल का उदास नीला. लेकिन यह वह नीला अभी भी नहीं था जो आपको पूरी किताब लिखने पर बाध्य कर दे. मुहावरे या प्रतीकों की किताब नहीं, दैनिक जीवन की वस्तुओं और परछाईयों से रची हुई किताब.

वह नीला मुझे प्राग आकर मिल गया—चमकीला, निरभ्र, पारदर्शी नीला. यहाँ आने के बाद कई दिनों तक मेरी आँखें उस प्यास में डूबी रहीं, उस सपने को भरमाती रहीं जो तमाम किताबों ने जगाया था. प्राग की सुबहें और रातें इस कदर मचलती थीं कि आप इसे नीला शहर कह सकते थे. सुबह सवा चार की मेरी डेस्क का नीला, प्राग के किले के ऊपर रात ग्यारह बजे सम्मोहिनी नायिका का नीला. व्लतावा के पानी पर किसी महाकवि के साये की तरह गिरता शाम का नीला. ओल्ड टाउन स्क्वायर की चर्च के ऊपर आधी रात का नीला. शहर से थोड़ा दूर किसी गाँव में पूरे चाँद की रात का नीला. किले के सामने गैस के स्ट्रीट लैंप लगे थे. पिछले दशकों में बिजली के लैंप आ गये थे, सिर्फ़ एकाध जगह गैस के लैंप बचे थे. देर रात हरे रंग के इस लैंप से नीली रौशनी थिरकने लगती थी.

ये सभी नीले एकदूसरे से भिन्न थे, शायद इनकी अपनी संज्ञायें थीं, लेकिन मैं इन्हें सिर्फ़ एक नाम से पुकारना चाहता था. मैंने एक दिन शुभांगी मिश्र से इस रहस्यमयी नीले का ज़िक्र किया जो किले से चलकर नदी को समेट लेता है. शुभांगी प्राग के फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ़ द अकादमी ऑफ़ परफोर्मिंग आर्ट से निर्देशन की पढ़ाई कर रही हैं. वे पिछले बरस भारत से यहाँ आयी थीं. उन्होंने हाल ही अपने पाठ्यक्रम के तहत एक लघु फ़िल्म बनायी है. वे बोलीं, “जब मैं भारत में थी, मुझे लगता था कि यहाँ के फ़िल्मकार ब्लू फ़िल्टर का अधिक प्रयोग करते हैं. उनकी फ़िल्मों में हर चीज़ इतनी चमकीली नीली क्यों दिखाई देती है. प्राग आकर महसूस हुआ कि यहाँ नीला है ही ऐसा.”

प्राग का फ़िल्म संस्थान विश्व के सबसे पुराने फ़िल्म स्कूल में से है. साठ-सत्तर के दशक में चेक न्यू वेव सिनेमा के जनक इसी स्कूल से निकले थे. मिलान कुंदेरा, मिलोश फोरमेन, एमिर कुस्तुरिचा से लेकर कई दिग्गजों ने यहाँ से डिग्री ली है. कुंदेरा की मृत्यु के बाद संस्थान की वेबसाइट ने उन पर श्रृद्धांजलि लेख प्रकाशित किया था.

जब मैं प्राग से लौट आया, अगस्त के किसी दिन शुभांगी ने एक तस्वीर भेजी. मैं चौंक गया. यह व्लतावा थी और उसके पीछे पेत्रिन की पहाड़ी. वही सड़क जिस पर न जाने कितनी बार ठहरा और ठिठका था, लेकिन इस तस्वीर में प्राग कहाँ था? स्लेटी, मुरझाया आकाश, सूनी-सी नदी. यह कौन-सा शहर था? अपना नीला कहाँ झरा आया था? किसने इसका नीला चुरा लिया? शुभांगी ने लिखा कि मौसम बदल गया है. इन दिनों शहर उदास दिखाई देता है.

मैं मानना चाहता था कि मेरे जाते ही सृष्टि ने नीले को प्राग के आकाश से तोड़ कर, उसकी सभी रंगंतों और कतरों को समेट कर मेरी स्मृति को दे दिया ताकि वह मेरी कामना का स्थायी निवासी बन जाये. लेकिन मैंने उस तस्वीर को फिर से देखा और लगा कि यह शहर अपने प्रत्येक मौसम में एक नयी तड़प को जन्म देता रहेगा. कुछ उदास महीने भी तो हों, नीले का इंतज़ार करते हुए.



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