‘मुझे स्‍कूल में शर्म आती थी’, रणबीर कपूर को आज भी याद हैं पेरैंट्स के ‘वो’ झगड़े, जानें क्‍या है बच्‍चों का मनोवि‍ज्ञान


Parents Fighting Could Affect a Child Mental Health: ऋषि कपूर और नीतू ह‍िंदी स‍िनेमा की एक दमदार जोड़ी रहे हैं. लेकिन बंद कमरे के इस जोड़ी के बीच होने वाली लड़ाइयों और झगड़ों को उनके बेटे रणबीर कपूर ने देखा है. एक इंटरव्‍यू में रणबीर ने अपने मम्‍मी-पापा के बीच हुए झगड़ों पर कहा, ‘मैं अपने मम्‍मी पापा के साथ रहता था और मैंने उन्‍हें उस दौर से गुजरते हुए देखा है. मैं उस सारे महौल के बीच ही था. मैं घंटो सीढ़‍ियों पर बैठा रहता था…’ रणबीर कपूर का ये इंटरव्‍यू हमें इस बात पर सोचने पर फिर से मजबूर करता है कि क्‍या बंद कमरों में होने वाले आपके झगड़े आपके बच्‍चों को प्रभाव‍ित करते हैं? क्‍या जब भी आप अपने बच्‍चों को अपनी लड़ाई से दूर करने के लि‍ए कमरे से बाहर कर देते हैं, उतना काफी है? आज के दौर में पैरेंट‍िंग के ये बहुत जरूरी सवाल हैं.

‘मुझे उनके चीखने की, चीजें तोड़ने की आवाज आती थी’

गणित, साइंस, फ‍िज‍िक्‍स ये सब ऐसे सब्‍जेक्‍ट हैं, ज‍िन्‍हें हम समझना सीखते हैं. पर ‘पैरेंट‍िंग’ जैसा कोई व‍िषय नहीं है जो आपको सही और गलत स‍िखाए. अक्‍सर हम अपने अनुभवों से ही अपने बच्‍चों को पालना सीखते हैं और ये लाजमी है कि हम इसमें गलति‍यां करें. अक्‍सर हम अपने बच्‍चों को अपने झगड़े से दूर रखने के लि‍ए कमरा बंद कर देते हैं और फिर लड़ते हैं लेकिन क्‍या ये तरीका सही है? ‘द बिग इंड‍ियन प‍िक्‍चर’ को द‍िए एक पुराने इंटरव्‍यू में रणबीर कपूर ने कहा, ‘मुझे याद है, जब मैं रात 1 बजे से सुबह 5 बजे तक अपने घर की सीढ़‍ियों पर बैठा रहता था. मुझे उनकी (अपने माता-प‍िता की) लड़ने की आवाजें आती थीं, चीजें फेंकने की आवाजें आती थीं… सब इस तरह के फेज से गुजरते हैं, पर मेरे माता-पिता सेलीब्र‍िटी थे, इसलिए ये बातें प्रेस में आ जाती थीं.’

नेगेट‍िव इमोशन लंबे समय तक रहते हैं

माता-पिता की लड़ाई का बच्‍चों पर पड़ने वाले असर पर मुंबई के लोकमान्‍य त‍िलक अस्‍पताल के सायकायट्र‍िस्‍ट डॉ. चेतन लोखंडे ने अपनी बात रखी है. डॉ. चेतन लोखंडे ने News18 Hindi को बताया, ‘आप अगर बच्‍चों की साइकलॉजी समझने की कोशिश करेंगे तो आपको पता लगेगा कि बच्‍चे आपके स‍िखाने से या बताने से नहीं बल्‍कि कॉपी कर के सीखते हैं. नकल करना बच्‍चों का एक बेस‍िक गुण है और जो आप करते हैं, वो बच्‍चे सीखते हैं. दूसरा अहम बात ये है कि जब बच्‍चे नेगेट‍िव इमोशन देखते हैं तो उसे वो ज्‍यादा स्‍ट्रॉंगली एक्‍सेप्‍ट करते हैं. आप चाहे कमरा बंद कर के ही च‍िल्‍लाएं पर बच्‍चे आपके हर ब‍िहेव‍ियर पैटर्न को फॉलो करते हैं.’ डॉ. चेतन आगे बताते हैं, ’10 साल तक बच्‍चों में सेंटर नर्वर स‍िस्‍टम इतना व‍िस‍ित नहीं होता. ऐसे में वो खुद की समझ पर नहीं, बल्‍कि सामने हो रही चीजों को ही अपनाते चलते हैं. इसके साथ ही नेगेट‍िव इमोशन की यादें बहुत लंबे समय तक मस्‍त‍िष्‍क में रहती हैं.

बच्‍चों को लगने लगता है सब नॉर्मल

आसान भाषा में इसे ऐसे समझें कि ज‍िस घर में अगर मम्‍मी या पापा में से कोई ढोलक बजाता है तो बच्‍चे भी ढोलक सीख ही जाते हैं. ऐसा ही आप एक गायक के बच्‍चे को देखेंगे और ऐसा ही बाकी चीजों में भी. क्‍योंकि बच्‍चे आपके स‍िखाने से नहीं आपके ब‍िहेव‍ियर, आपकी आदतों को कॉपी करते हैं. मुंबई के प्रस‍िद्ध मनोरोग व‍िशेषज्ञ, डॉ. सागर मुदड़ा बताते हैं कि बचपन में बहुत ज्‍यादा अब्‍यूज‍िस महौल में रहने वाले बच्‍चे या लगातार माता-पिता की लड़ाइयां देखने वाले बच्‍चों के साथ 2 स‍िनेर‍ियो बन जाते हैं. पहला कि या तो वह र‍िश्‍तों पर धीरे-धीरे व‍िश्‍वास खो देते हैं. दूसरा कि वो इन झगड़ों को, लड़ाइयों को सामान्‍य मानने लगते हैं. वो इस पैटर्न को नॉर्मल मान लेते हैं. गुस्‍सा आने पर च‍िल्‍लाना या चीखना, जल्‍दी च‍िढ़ जाना जैसे व्‍यवहार करने लगते हैं.

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