मैं तो निरा गाँधीवादी हूँ, बस थोड़ा-सा अधिक क्रांतिकारी!
- हैलो सुभाष! मैं मोहनदास के. गाँधी बोल रहा हूँ। जन्मदिन की बधाई हो।
- अरे बापू! प्रणाम। धन्यवाद।
- कितने साल के हुए?
- 123 का हो गया, बापू!
- अच्छा! और बताओ, मुल्क़ के हालात तो पता चल ही रहे होंगे?
- जी बापू, कभी-कभी लगता है कि हमने अलग होकर गलती की। आज देखिए न, हम दोनों के विषय में कितनी भ्रांतियाँ फैलाई जा रही हैं। हमलोग दुश्मन थे, वगैरह वगैरह बोला जा रहा है!
- जाने दो! क्या कर सकते हो। हमने तो अपने-अपने रास्ते से आज़ादी दिलाने का भरपूर प्रयास किया और सफल भी रहे। मतभेद थे, मनभेद कभी न रहा।
- वही तो बापू, लोग पता नहीं क्यों भूल जाते हैं कि मैंने ही सबसे पहले आपको “राष्ट्रपिता” कहा था!
- अच्छा, वो सब छोड़ो। ये बताओ कि अब हमारे हाथ में तो कुछ रह नहीं गया है। हमारे विचार ही बचे हैं, उनसे कुछ हो पायेगा?
- बापू, आपके विचारों से ही सबकुछ होगा। जब-जब मुल्क़ में कोई भी भेदभाव होगा या हिंसा व्याप्त होगी तब-तब सबसे पहले आपको ही याद किया जाएगा।
- सुभाष, तुमको लोग तरह-तरह की विचारधाराओं से जोड़कर देखते हैं! तुम वामपंथी हो, समाजवादी हो, या फ़िर दक्षिणपंथी हो जैसा कि आज के दौर में तुम्हें कहा जा रहा है?
- बापू, मैं इनमें से कुछ भी नहीं हूँ। मैं तो निरा गाँधीवादी हूँ, बस थोड़ा-सा अधिक क्रांतिकारी!
लेकिन लोग ये बात क्यों नहीं समझते बापू कि आप ही मेरे आदर्श थे। मुझे और आपको बाँटना एक बाप को बेटे से अलग करना होगा और एक बड़े भाई को अपने छोटे भाई से! - सुभाष, निराश मत हो! अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। हमारे स्वराज्य की जो परिकल्पना थी, वो हमें हासिल होकर रहेगी।
- काश! बापू, हमारा पुनर्जन्म होता तो मैं इसबार आपसे और आपके विचारों से दूर कभी-भी न जाता!
- जानते हो, सुभाष! जिस तरह तुमने अपनी आईसीएस की नौकरी छोड़ी थी न आज़ादी की लड़ाई में कूदने के लिए। ठीक उसी प्रकार आज भी कई आईएएस और नौकरशाह अपनी नौकरियाँ छोड़कर देश बचाने को निकल पड़े हैं।
- सच में बापू?
- हाँ सुभाष। बच्चे, बूढ़े, महिलाएँ सभी सड़कों पर उतर रहे हैं अपने देश को बचाने के लिए। और तुम्हारा दिया हुआ “जय हिंद” का नारा ज़ोरों-शोरों से गूँज रहा है।
- बापू, यही तो आप स्वतंत्रता दिलाने हेतु भी चाहते थे कि सभी सरकारी कर्मचारी, स्कूली छात्र, किसान, महिलाएँ, शोषित, और वंचित लोग अपने हक़-हुक़ूक़ की लड़ाई के लिए सड़कों पर उतरें।
- हाँ सुभाष। आज भी ऐसा होता देखकर कुछ उम्मीद तो बंधी है लेकिन अभी बहुत-कुछ हासिल करना बाकी है।
- हाँ बापू। आपको तो याद ही होगा आपसे प्रभावित होकर अकबर इलाहाबादी ने कहा था~
“मदखुयले गवर्नमेंट अक़बर अगर न होता,
उसको भी आप पाते गाँधी की गोपियों में!” - लेकिन हसरत मोहानी ने तो यह तक कह दिया था कि~
“गाँधी की तरह बैठ के कातेंगे क्यों चरखा?
लेनिन की तरह देंगे न दुनिया को हिला हम!” - बापू, वही तो मैं कह रहा हूँ कि आज जितनी भी साम्प्रदायिक और अराजकतावादी शक्तियाँ मुल्क़ में फैल गयी हैं, उनसे लड़ने के लिए कई प्रगतिशील विचारधाराओं के एक ‘कॉकटेल’ की ज़रूरत है। लेकिन सभी से ऊपर आपकी अहिंसा और सत्याग्रह की विचारधारा ही रहेगी!
- ऐसा सचमुच होगा न सुभाष? लोग हमारे दिखाए हुए पथ से भटकेंगे तो नहीं?
- नहीं बापू, बस लोग ज़ालिम का कहा मानना छोड़ दें और ज़ुल्म की मुख़ालिफ़त में उठ खड़े हों तो इस मुल्क़ को कुछ नहीं होने वाला।
- ईश्वर करें ऐसा ही हो! चलो सुभाष, अब प्रार्थना का समय हो गया। फ़ोन रखता हूँ।
- ठीक है, बापू! मैं भी सिगरेट की एक कश ले लेता हूँ।
- सिगरेट नहीं छोड़ी न तुमने?
- नहीं बापू, यही तो हमारे छोटे-मोटे मतभेद हैं!
प्रणाम।😊 - खुश रहो, जय हिन्द!
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