यहां दहकते अंगारे मुंह में रखते हैं लोग, नाचते हैं नंगे पांव, 550 सालों से चली आ रही परंपरा


बीकानेर. बीकानेर की कला व संस्कृति पूरे विश्व में अपनी अलग पहचान रखती है. यहां का अग्नि नृत्य भी पूरे विश्व भर में प्रसिद्ध है. यहां एक समाज के लोग दहकते अंगारों पर चलते हैं और इन अंगारों को मुंह में भी लेते हैं. जी हां हम बात कर रहे हैं बीकानेर से 50 किलोमीटर दूर कतरियासर गांव में सिद्ध समाज के लोगों द्वारा किए जाने वाले अग्नि नृत्य की. यहां कतरियासर धाम में साल में चार बार मेला भरा जाता है.

यहां लोग गोरखमलिया समाधि स्थल पर सुबह धोक लगाकर शाम को अग्नि नृत्य की प्रस्तुति दी. इस दौरान दिनभर पैदल यात्रियों के जत्थे पहुंचे. मंदिर में दर्शनार्थ श्रद्धालुओं का तांता लगा रहा. जसनाथ मंदिर महंत बीरबलनाथ ज्याणी ने ज्योत प्रज्ज्वलित की. इसके बाद श्रद्धालुओं ने प्रसाद चढ़ाकर मनौतियां मांगी. वहीं नवविवाहितों ने गठजोड़े की धोक लगाई. इस दौरान हवन भी किया गया. इसमें घी खोपरों की आहुतियां दी गई. मेले में पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश सहित आस पास के जिलों से भी श्रद्धालु पहुंचे.

नृत्य को देखकर हो जाएंगे आश्चर्यचकित
महंत ने बताया कि कई श्रद्धालु डाबला तालाब जहां जसनाथ जी अवतरित हुए थे वहां भी जाते हैं. इस धाम में देश के कई हिस्सों से लोग आते हैं. सिर पर गेरुआ कलर का साफा पहने और सफेद कपड़े पहने सिद्ध समाज के लोग नगाड़ों की थाप मंगलाचरण से लोग अंगारों पर चलना शुरू करते है. देखने वाले लोग इस नृत्य को देखकर आश्चर्यचकित हो जाते है. दुलनाथ सिद्ध ने बताया कि कार्यक्रम में भामाशाहों व समाज की प्रतिभाओं को सम्मानित किया गया.

550 सालों से निभा रहे है परंपरा
ये भक्त बेधड़क ये दहकते अंगारों पर नाचते जाते हैं. वहां बज रहा संगीत का शोर इनका जोश और बढ़ा देता है. कहते हैं कि बाबा जसनाथ जी महाराज के विशेष पुजारियों को एक आर्शीवाद हासिल है जिसके चलते इनके पांव आग पर नाचने से जलते नहीं है. इसके अलावा कई लोग तो कहते है कि बाबा के साधु ना सिर्फ आग पर नाचते है. जलते अंगारों को निगल भी जाते हैं. सम्प्रदाय के लोग 550 वर्षों से अधिक समय से इस परंपरा को निभा रहे है. इसका उद्गम स्थल कतरियासर है. यह नृत्य धधकते अंगारों पर श्रद्धालुओं द्वारा प्रस्तुत किया जाता है.

धी से किया जाता है होम
आग के साथ राग और फाग खेलना जसनाथी सम्प्रदाय के अलावा कहीं भी देखने को नहीं मिलता है. एक बड़े घेरे में ढेर सारी लकड़िया जलाकर धूणा किया जाता है. इसमें घी का होम किया जाता है तथा उसके चारों ओर पानी छिड़का जाता है. नृत्य करने वाले तेजी के साथ धूणा की परिक्रमा करते हैं ओर फिर गुरु की आज्ञा लेकर अंगारों पर प्रवेश करते हैं. नृत्य के दौरान अनेक प्रकार के करतब आदि भी करते हैं. इस अवसर पर जसनाथजी द्वारा रचित सिंम्भूधड़ो कोड़ो, गोरखछन्द, स्तवन रचनाओं का गायन किया जाता है. परम्परानुसार जसनाथजी मेले में आए श्रद्धालुओं को मंदिर महंत की ओर से परम्परागत खीचड़ा, कड़ी एवं घी का भोजन दिया जाता है.

विदेशी आक्रांताओं के कारण करीब 550 वर्ष पूर्व संकटकाल के समय सिद्ध समाज ने इस नृत्य को व्यैक्तिक और नैतिक गुणों के विकास, संतुलित जीवनयापन व जीव जन्तु सहित प्राणी जगत के लिए सुरक्षा की परिकल्पना की थी, जो आज भी इस पंथ के लोगों में परिलक्षित होती है. यही नहीं जब सिद्ध समाज के लोगों को पाखंडी मानकर मुगल बादशाह औरंगजेब के दरबार में बुलावा दिया तो सिद्धों ने दिल्ली में इस नृत्य की प्रस्तुति संत रुस्तम जी की अगुवाई में की. दिल्ली फतेह करने पर इन सिद्धों को फलस्वरूप उपहार में जागीर दी.

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