लोकसभा चुनाव 2024: दौसा में इस बार किसे मिलेगा मौका? जानें क्या कहते हैं सियासी समीकरण


जयपुर. पिछले साल नवंबर में राजस्थान के विधानसभा चुनाव के दौरान प्रचार के आखिरी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भीलवाड़ा के कोटड़ी में अपनी चिर परिचत शैली में कांग्रेस के ‘परिवारवाद’ पर जमकर हमला बोला था. उन्होंने इस बहाने राजेश पायलट को याद किया था जिनकी कभी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी से करीबी थी. पीएम मोदी ने कहा था कि कांग्रेस पार्टी ने राजेश पायलट को तो सजा दी ही, अब उनके बेटे (सचिन) को भी सजा दे रहे हैं.

दरअसल राजस्थान के पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट अशोक गहलोत की अगुवाई वाली राजस्थान की पिछली राज्य सरकार (2018-2023) में अपने पिता की विरासत को लेकर संघर्ष करते रहे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के संपन्न गुर्जर परिवार से ताल्लुक रखने वाले राजेश पायलट भारतीय वायुसेना के पायलट थे. राजीव गांधी के करीबी रहे पायलट ने 1980 में पहली बार भरतपुर और फिर 1984 से 1999 के दौरान दौसा से पांच बार लोकसभा का चुनाव जीता था. 1989 का चुनाव वह भाजपा के नाथू सिंह गुर्जर से हार गए थे. राजेश पायलट कांग्रेस ही नहीं बल्कि भारतीय राजनीति का एक चमकता सितारा थे. राजेश पायलट ने 1998-99 में शरद पवार और पी ए संगमा जैसे नेताओं के साथ सोनिया गांधी के नेतृत्व को चुनौती दी थी, जिसका परोक्ष रूप से जिक्र प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी चुनावी सभा में किया था.

हालांकि सच यह भी है कि पायलट परिवार ने कभी कांग्रेस से नाता नहीं तोड़ा. यह भी दुखद है कि 11 जून, 2000 को एक सड़क हादसे में राजेश पायलट की महज 55 बरस की उम्र में मौत हो गई. वे कितनी तेजी से आगे बढ़ रहे थे इसका अंदाजा 12 जून 2000 के अंग्रेजी अखबार द एशियन एज की सुर्खियों से लगाया जा सकता है, जिसके संपादक कभी राजेश पायलट के दोस्त रहे एम जे अकबर थे. इस अखबार की सुर्खियां थीं, Death Stops Rajesh! ( मौत ने राजेश को रोका!).

दौसा से पायलट परिवार का रिश्ता कितना गहरा रहा है यह इसी से समझा जा सकता है कि राजेश पायलट की मौत के बाद 2000 के लोकसभा उपचुनाव में उनकी पत्नी रमा पायलट ने यहां से चुनाव जीता था. उसके बाद 2004 में उनके बेटे सचिन पायलट ने यहां से चुनाव जीता. लेकिन इसके बाद दौसा सीट पर पायलट परिवार का प्रभाव कम होने लगा. इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि 2009 में सीमांकन की वजह से यह सीट अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित हो गई. इसी वजह से 2009 में सचिन को अजमेर से चुनाव लड़ना पड़ा था. 2009 में दौसा से भाजपा के दिग्गज डॉ. किरोड़ीलाल मीणा ने पार्टी से बगावत कर निर्दलीय चुनाव जीता था. किरोड़ीलाल मीणा अभी राजस्थान की भजनलाल शर्मा की अगुवाई वाली भाजपा सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं.

2014 की मोदी लहर से खासतौर से उत्तर और पश्चिम भारत का राजनीतिक परिदृश्य बदला है तो उसका असर राजस्थान और दौसा में भी देखा जा सकता है, जहां पिछले दो चुनाव से भाजपा का कब्जा है. 2014 में यहां दिलचस्प मुकाबला देखने को मिला था जब पूर्व डीजीपी हरीश मीणा भाजपा उम्मीदवार थे और उनके सामने कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में उनके बड़े भाई और पूर्व केंद्रीय मंत्री नमो नारायण मीणा थे. हरीश मीणा चुनाव जीत गए, लेकिन उन्होंने 2018 के विधानसभा चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस का हाथ थाम लिया था. अभी वे देवली उनियारा सीट से कांग्रेस के विधायक हैं.

राजस्थान की राजधानी जयपुर से महज 80 किलोमीटर दूर दौसा में पिछले लोकसभा चुनाव में दो महिलाएं आमने-सामने थीं. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री रहीं जसकौर मीणा ने यहां से कांग्रेस की सविता मीणा को पराजित किया था. कहा जाता है कि किरोड़ीलाल मीणा और पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की खींचतान के चलते जसकौर मीणा को मौका मिला था.

जैसा कि 2019 के चुनाव में देखा गया उससे साफ है कि दौसा मीणा समुदाय के प्रभाव वाला क्षेत्र है. वैसे 2011 की जनगणना के मुताबिक राजस्थान की आबादी में 13.4 फीसदी आदिवासी हैं, जिनमें मीणा सबसे बड़ा समूह है. आठ विधानसभा क्षेत्र वाले दौसा लोकसभा क्षेत्र को एसटी सीट का दर्जा मिलने के बाद जाहिर है कि यहां कि राजनीति में मीणा समुदाय का प्रभाव बढ़ा है. वैसे मीणा के अलावा दौसा क्षेत्र में गुर्जर (ओबीसी) और जाट (ओबीसी) के साथ ही बैरवा (अनुसूचित जाति) का भी खासा प्रभाव है.

जातिगत गणित के साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि ये सारे समुदाय आम तौर पर कृषि से जुड़े हुए हैं, लिहाजा दौसा किसान आंदोलन का भी एक प्रमुख गढ़ है. वास्तविकता यह भी है कि मीणा बेशक जनजाति से ताल्लुक रखते हैं, लेकिन यह समुदाय अपेक्षाकृत संपन्न माना जाता है. इसकी तस्दीक पिछले लोकसभा चुनाव की दोनों प्रमुख प्रतिद्वंद्वी रहीं जसकौर मीणा और सविता मीणा के हलफनामों से हो जाती है, जिनसे पता चलता है कि ये दोनों राजस्थान के करोड़पति उम्मीदवारों में शुमार थीं.

हालांकि चुनाव सुधार की अब भी बहुत जरूरत है, लेकिन एक काम अच्छा हुआ है कि नामजदगी के परचे भरने के साथ दिए जाने वाले हलफनामे मतदाताओं को अवसर देते हैं कि वे जान सकें कि उनके जनप्रतिनिधियों के आय का वैध जरिया क्या हैं? जसकौर मीणा के हलफनामे के मुताबिक वर्ष 2017-18 में आयकर रिटर्न के अनुसार उनकी आय 69, 34,735 रुपये और उनके पति श्रीलाल मीणा की आय 4,78,010 रुपये थी. लेकिन उनके हलफनामे से यह भी पता चलता है कि जसकौर मीणा और उनके पति के पास 10 करोड़ रुपये से अधिक की कुल चल-अचल संपत्ति थी. उनमें आवासीय परिसर, व्यावसायिक परिसर, कृषि योग्य जमीन, मवेशी, गहने और वाहन इत्यादि शामिल हैं. अलबत्ता जसकौर मीणा पर करीब 58 लाख रुपये के कर्ज का बोझ भी है. इसी तरह सविता मीणा के हलफनामे से पता चलता है कि उनके और उनके पति मुरारीलाल के पास भी 10 करोड़ रुपये से अधिक की कुल चल अचल संपत्ति थी. हलफनामा बताता है कि सविता और उनके पति के ऊपर करीब पचास लाख का कर्ज भी था.

जसकौर मीणा अब 76 बरस की हो चुकी हैं. यानी भाजपा के मार्गदर्शक मंडल के करीब हैं. लिहाजा यह कहना मुश्किल है कि उन्हें इस बार मौका मिलेगा या नहीं. उनकी दो बेटिया हैं, जिनमें से एक ने उनकी जीवनी भी लिखी है. 24 जुलाई, 2020 को उसका विमोचन लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने किया था. वहीं कांग्रेस की सविता मीणा को क्या फिर से उम्मीदवार बनाया जाएगा अभी कहा नहीं जा सकता. मगर दौसा के पिछले पांच लोकसभा चुनावों के नतीजों को देखें तो दिलचस्प तस्वीर उभरती है और पता चलता है कि यहां किस तरह से भाजपा ने तेजी से कांग्रेस को हाशिये में डाल दिया है.

दौसा में अपने दिवंगत पति राजेश पायलट की विरासत को आगे बढ़ाते हुए 2000 में हुए लोकसभा के उपचुनाव में रमा पायलट विजयी हुई थीं. उसके बाद 2004 में कांग्रेस ने उनकी जगह उनके बेटे सचिन पायलट को उतारा था, जिन्होंने भाजपा के करतार सिंह भड़ाना को पराजित किया था. 2009 का चुनाव इस मायने में अनूठा था कि यहां मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के उम्मीदवारों के बीच नहीं, बल्कि दो निर्दलीयों के बीच हुआ था. जैसा कि ऊपर जिक्र आया है कि दिग्गज भाजपा नेता किरोड़ीलाल मीणा ने निर्दलीय चुनाव लड़ा था और दूसरे नंबर पर आए उम्मीदवार कमर रब्बानी भी निर्दलीय थे. कश्मीरी गुज्जर रब्बानी जम्मू-कश्मीर से चुनाव लड़ने के लिए दौसा आए थे. फिर भी वह मुकाबले में कांग्रेस और भाजपा पर भारी पड़े. कांग्रेस और भाजपा के उम्मीदवारों को क्रमशः 4.5 फीसदी और 2.1 फीसदी ही वोट मिल सके थे. 2014 का चुनाव जैसा कि ऊपर जिक्र आया है कि दो भाइयों हरीश मीणा और नमो नारायण मीणा के आमने-सामने होने से मुकाबला रोचक हो गया था. इस चुनाव में किरोड़ीलाल नेशनल पीपुल्स पार्टी के उम्मीदवार थे और उन्हें कांग्रेस के नमोनारायण मीणा से अधिक वोट मिले थे.

देख सकते हैं कि पिछले दो दशकों में आदिवासियों के लिए आरक्षित होने के साथ ही दौसा सीट पर पायलट और कांग्रेस का प्रभाव किस तरह कम हुआ है. वैसे भी पिछले लोकसभा चुनाव (2019) में भाजपा ने राजस्थान की सभी 25 सीटों पर जीत दर्ज की थी. इनमें एक सीट नागौर एनडीए गठबंधन में शामिल आरएलपी के प्रत्याशी हनुमान बेनीवाल ने जीती थी. उसे बीजेपी ने गठबंधन के तहत आरएलपी के लिए छोड़ा था. बाद में पहले किसान आंदोलन के दौरान आरएलपी एनडीए से अलग हो गई थी. इस बार क्या सचिन पायलट अपने किसी पसंदीदा उम्मीदवार को दौसा से कांग्रेस का टिकट दिलाकर अपने पिता राजेश पायलट की विरासत पर फिर से कब्जा कर पाते हैं या नहीं. यह देखना अभी बाकी है.

(डिसक्लेमर: लेखक वरिष्ठ पत्रकार है। ये उनके अपने निजी विचार हैं)

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