सबका पति एक रूपचंद – sabaka pati ek roopachand
छांदोग्य उपनिषद् में एक ज्ञानातुर बालक सत्यकाम की कथा मिलती है. ऊंची पढ़ाई करने के मकसद से वह अपने जमाने के विद्वान शिक्षक गौतम ऋषि से मिला और उनका शिष्य बनने की इच्छा जाहिर की. ऋषि ने उससे पिता का नाम, कुल और गोत्र पूछा. इस पर सत्यकाम ने कहा कि मेरी मां एक दासी रही हैं, जिन्होंने जीवन में कई लोगों की सेवा की. ऐसे में मेरे लिए पिता का नाम और कुल-गोत्र बता पाना मुश्किल है. मेरी मां जाबाला ही मेरा परिचय है. इसलिए मेरा नाम सत्यकाम जाबाल है. कथा के मुताबिक गौतम ऋषि को सत्यकाम की स्पष्टवादिता भा गई और उन्होंने उन्हें अपना शिष्य बना लिया.
जाबाल की यह कथा कब रची गई और कितनी सच्ची है, यह तो पता नहीं, मगर इसी साल अप्रैल महीने के आखिरी हफ्ते में बिहार में चल रही जाति आधारित गणना के लिए सर्वेक्षण करने एक शिक्षक राजीव रंजन राकेश जब अरवल शहर में नर्तकियों के एक मोहल्ले में गए तो वहां कई महिलाओं ने पति का नाम रूपचंद बताया. कई बच्चों ने भी कहा कि उनके पिता का नाम रूपचंद है. देखते-देखते मीडिया में यह खबर वायरल हो गई कि अरवल के इस मोहल्ले में 40 औरतों के एक ही पति हैं रूपचंद. पर ये रूपचंद महाशय हैं कौन, किसी को पता न था.
रूपचंद की तलाश में इंडिया टुडे की टीम के अरवल शहर के मोहल्ला जनकपुर धाम पहुंचने पर उसकी मुलाकात 23 साल के युवक टिंकू कुमार से हुई जिसने बताया, ”हां, मेरे पिता का नाम रूपचंद है.’’ उसने आधार कार्ड भी दिखाया, जिसमें पिता का नाम रूपचंद राम लिखा था. जब पूछा गया कि आपके पिता कहां रहते हैं? तो उसने साफ कहा, ”रूपचंद कोई इंसान थोड़े ही है. रूपचंद का मतलब है रुपया. मेरी मां नर्तकी थी, जो उसको रुपया देता था, उसी से वह प्रेम करती थी. प्रेम करने वाला चला जाता था. रुपया रह जाता था. तो उसका पति रुपया ही हुआ न! मेरा बाप रुपया ही हुआ न! उसी को हम रूपचंद कहते हैं.’’
टिंकू बोलते गए: ”नर्तकियों के बच्चों का कोई बाप नहीं होता. होता भी है तो अपना नाम नहीं देना चाहता. ऐसे में यहां की नर्तकियों ने रुपए को ही रूपचंद नाम दे दिया. आप किसी भी रेड लाइट एरिया में चले जाइए, रूपचंद को पति बताने वाली 8-10 महिलाएं मिल ही जाएंगी. हम पांच भाई, दो बहनें हैं. सबके बाप अलग-अलग. मेरी मां क्या करे? कितने पतियों का नाम बताए? इसलिए उसने पति का नाम रूपचंद रख लिया. उनके जैसी दूसरी औरतों ने भी यही किया. इतनी-सी बात है.’’
पर कहानी इतनी-सी नहीं जितना टिंकू बताते हैं. मोहल्ले में नर्तकियों के 70-80 घरों में से इकलौते टिंकू ही मिले, जिन्होंने इतनी साफगोई से सब कुछ बताया. पर मोहल्ले की ज्यादातर महिलाओं ने पति का नाम कुछ और बताया. मगर अब जरा इस मोहल्ले की खबर ले लें.
बिहार की राजधानी पटना से यही कोई 65 किमी उत्तर पश्चिम में पड़ने वाले अरवल शहर के बस स्टैंड को पार करते ही आता है सिपाह पुल. सोन नहर पर बने इस पुल को पार करने पर पहले कसाइयों की बस्ती है और उसके बाद अचानक एक मोहल्ला दिखने लगता है, जहां बड़ी-बड़ी कोठियां बनी हैं.
इनमें से ज्यादतर पर महिलाओं के नाम लिखे हैं. प्रिया कुमारी, रिंकू देवी, उमा भवन, मीना आवास… वगैरह. कइयों के बाहर नेम प्लेट पर मां और बेटियों के नाम दर्ज हैं. इन घरों के सामने दरवाजे, देहरी और बरामदे पर औरतें, लड़कियां सज-धजकर बैठी मिलती हैं. यही वह मोहल्ला है, जहां की औरतों ने पति का नाम रूपचंद लिखवाया है. वायरल खबर में जिन औरतों का जिक्र है, उनकी तलाश में हम एक गली में घुसते हैं. वहां कुछ औरतें मिलती हैं. कुछ बच्चे खेलते हुए नजर आते हैं.
सबसे पहले बिंदू देवी (बदला नाम) से भेंट होती है. वे हमें देखते ही बिफर पड़ती हैं, ”सर्वे करने वालों ने अपने मन से रूपचंद लिख लिया, मेरे पति का नाम तो अभय प्रसाद है. मेरे आधार में भी लिखा है.’’ वे झट से कमरे में जाकर अपना आधार कार्ड लेकर आती हैं, जिसमें सचमुच उनके पति का नाम अभय प्रसाद लिखा है. इसी तरह से सुरेखा देवी (बदला नाम) आधार और दूसरे कागजात दिखाती हैं, जिनमें उनके पति का नाम संजय नट लिखा है.
वीणा देवी (बदला नाम) के आधार कार्ड पर उनके पति का नाम दिनेश प्रसाद है और उनकी मां के आधार पर स्व. भजन प्रसाद. ये सभी औरतें कहती हैं कि उन्होंने अपने-अपने पतियों का नाम बताया भी था मगर सर्वे करने वालों ने अपने मन से रूपचंद लिख लिया. एक औरत कहती है, ”मैंने आधार भी दिखाया तो उन लोगों ने कहा, कहां हैं आपके पति? फिर उन्होंने क्या लिखा, मालूम नहीं. जब वीडियो वायरल हुआ, टीवी पर खबर आई तब हमें पता चला कि हमारे पतियों का नाम रूपचंद लिख लिया गया है.’’
आपके पति कहां रहते हैं? क्या करते हैं? यह सवाल सुनते ही तेज आवाज में विरोध दर्ज करा रही ये औरतें धीरे-धीरे चुप होने लगीं और अटपटे-अविश्वसनीय जवाब देने लगीं. किसी ने कहा उनके पति गाड़ी चलाते हैं और हमेशा बाहर ही रहते हैं, अलग-अलग शहरों में. किसी ने कहा रोजी-रोजगार के चक्कर में परदेस में रहते हैं. किसी स्त्री ने यह नहीं कहा कि उनके पति साथ रहते हैं. समझ आ रहा था कि ये नाम भी काल्पनिक हैं. यानी काल्पनिक ही सही उनके पति का नाम रूपचंद नहीं, कुछ और था. पर सर्वेक्षणकर्ताओं ने ऐसा क्यों किया?
इस मोहल्ले में जातीय गणना करने वाले सर्वेयर राजीव रंजन राकेश अरवल शहर के एक उच्च विद्यालय में शिक्षक हैं. वे वहीं मिले. मगर हमें देखते ही भड़क उठे. कहने लगे, ”मैं किसी सवाल का जवाब नहीं दूंगा. मैं बहुत परेशान हूं. मुझे अकेला छोड़ दीजिए.’’ रूपचंद वाकए के बाद देश-प्रदेश के तमाम पत्रकारों ने उनसे लगातार सवाल किए थे, सो वे काफी तनाव में थे. उनके सामने लोकलाज का सवाल भी पैदा हो गया था कि उन्हें सर्वे करने वेश्याओं के मोहल्ले में जाना पड़ा था. ऐसे में रिश्तेदार भी उनसे सवाल कर रहे थे. थोड़ी देर बाद सहज होने पर उन्होंने बताया, ”40 तो नहीं मगर 8-9 परिवार ऐसे जरूर थे, जिन्होंने अपने घर के मुखिया का नाम रूपचंद बताया था. मीडिया ने बढ़ा-चढ़ा कर लिख दिया है.’’
इस खबर के तेजी से वायरल होने के बाद अरवल नगर परिषद के कार्यपालक अधिकारी दिनेश पुरी भी जांच करने उस मोहल्ले में गए और तस्दीक की कि बात सही है. इनके पतियों का नाम जरूर रूपचंद दर्ज है मगर उन्हें परिवार के सदस्यों के तौर पर गिना नहीं गया है. नगर परिषद के टैक्स दारोगा राजेश कुमार ने एक नई सूचना दी: ”उस इलाके की होल्डिंग टैक्स रसीद में भी लोग पति का नाम रूपचंद ही लिखवाते हैं. यह लंबे अरसे से हो रहा है. यहीं क्यों, सासाराम के इलाकों में भी ऐसा ही होता है, वहां के हमारे साथियों ने बताया है. उस इलाके से 20-25 घरों का करीब चार लाख रु. सालाना होल्डिंग टैक्स आता है.’’
राजीव रंजन राजेश के स्कूल की एक शिक्षिका नाम जाहिर न करने की शर्त पर एक और पहलू खोलती हैं, ”यह कोई नई बात थोड़े ही है. हम लोग तो बहुत पहले से जानते हैं. 1998 के आसपास एक फार्म भरवाने हम उस मोहल्ले में गए थे, तब भी औरतों ने पति का नाम रूपचंद ही बताया था. उसके बाद दो बार की जनगणना में भी उन्होंने यही बताया.’’ एक स्थानीय अखबार में छपी खबर के मुताबिक 2014 में जब अरवल के एसपी ने उस मोहल्ले में छापेमारी की तो उस वक्त भी पकड़ी गई औरतों ने पति का नाम रूपचंद ही बताया था.
मगर जनकपुर धाम प्राथमिक विद्यालय पहुंचने पर वहां एडमिशन रजिस्टर में उस मोहल्ले के किसी बच्चे के पिता का नाम रूपचंद नहीं मिला, सबके नाम अलग-अलग थे. हां, रजिस्टर में एक नुक्ता जरूर मिला: एक अलग पन्ने में इस इलाके के दस बच्चों के नाम दर्ज थे. ऊपर लिखा था, रेडलाइट एरिया के बच्चे. प्रभारी प्राचार्य इस्लाम अहमद सवाल भांप जाते हैं, ”मैंने अपने मन से नहीं, शिक्षा विभाग के अधिकारियों के कहने पर ऐसा किया है.’’
रूपचंद की कहानी अभी भी नहीं सुलझी थी.
जनकपुर धाम मोहल्ले की औरतों से बात करते हुए लग रहा था कि कुछ बात है जो वे बता नहीं रहीं. आधे घंटे तक हाल-चाल और सुख-दुख की बातें करने के बाद धीरे-धीरे वे खुलने लगीं. वीणा देवी का दर्द था, ”पहले के जमाने में लोग पति का नाम रूपचंद लिखवाते थे. पर अब रूपचंद का भैलू (वैल्यू) नहीं रहा, अब सब लोग आधार कार्ड पर अपने पति का नाम लिखा रहा है. जैसे हम ही सादी किए, हमको सही आदमी मिल गया तो अपना नाम दिया. किसी को आदमी सही नहीं मिला, काम साधा चल दिया. तो वह औरत किसका नाम देगी?’’
सुनीता कुमारी बताती हैं, ”स्कूल-कॉलेज में दिक्कत होता है बच्चा लोग को. इसलिए अब कोई पति का नाम या बाप का नाम रूपचंद नहीं लिखाता. अब हमलोगों के बच्चे भी पढ़ने बाहर जाने लगे हैं न!’’ सुनीता की अलग ही कहानी है. सासाराम के एक लड़के से उनका प्रेम विवाह हुआ. पति ने घर-परिवार से लड़कर उससे शादी की. सुनीता ने भी नाच-गाने का पेशा छोड़ दिया और दोनों सासाराम में अलग रहने लगे.
बच्चे भी हुए. मगर तीन महीने पहले अचानक पति की मौत हो गई. इसके बाद वे मायके आकर रहने लगीं. मगर रूपचंद प्रकरण की खबर आने पर उनके दोनों बच्चे डर गए. बच्चों ने अपना और मां का आधार कार्ड खोजा, पिता का डेथ सर्टिफिकेट निकाला. शहर के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ रहे बच्चों ने इस घटना के बाद पढ़ने जाना बंद कर दिया है. वैसे भी इस मोहल्ले के बच्चों के साथ स्कूल में अच्छा व्यवहार नहीं होता.
आसान नहीं है यहां के लोगों के लिए अपने बच्चों को किसी अच्छे स्कूल में पढ़ा पाना. स्कूल वाले मां-बाप दोनों का इंटरव्यू लेते हैं. अब यहां किस बच्चे के पिता इंटरव्यू देने स्कूल जाएंगे?
बच्चों का बाप अपना नाम क्यों नहीं देना चाहता?
वीणा देवी इस मसले के असल द्वंद्व को, इसके कॉन्फिलक्ट को बड़ी ही सहजता से बयां कर देती हैं, ”सबका अपना-अपना परिवार है, पत्नी है, बच्चा है. फिर भी वे लोग यहां आते हैं, प्यार-मोहब्बत करते हैं, रिश्ता आगे बढ़ाते हैं और फिर जब बात आगे बढ़ती है तो परिवार की दुहाई देने लगते हैं. कहते हैं, हम तुमको नहीं रख सकते. हमलोग भी छोड़ देते हैं कि जाओ, परिवार के साथ खुश रहो. क्या करेंगे! ऐसी ही जिंदगी है.’’
यह बस्ती नट जाति की है. बिहार में नटों की एक उपजाति है, जिसके सदस्य अपनी बेटियों से पारंपरिक तौर पर नाच गाने का पेशा कराते हैं. सुनीता स्पष्ट कहती हैं, ”हमलोग बेटियों से पेशा कराते हैं पर बहुओं से नहीं. गरीब परिवार की बच्ची को बहू बनाकर लाते हैं. शादी का खर्चा देते हैं. उन्हें पूरे सम्मान से रखते हैं. अब हमलोग भी बदलना चाहते हैं. बच्चों को पढ़ा लिखाकर इस दुनिया से बाहर निकालना चाहते हैं. पर यह आसान नहीं. बस्ती के हर बच्चे के नाम पर उसकी पहचान चस्पां है. मेरे भाई ने इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया है. मगर उसको नौकरी नहीं मिल रही.’’
इस बीच एक औरत अपना राशन कार्ड दिखाती हैं. इसमें पति का नाम तो है, मगर परिवार के सदस्यों की सूची से वह गायब है. और यह देखिए: कार्ड के पीछे पेंसिल से लिखा है, सेक्स वर्कर-19. सरकारी महकमों ने इन परिवारों को किस तरह चिन्हित कर रखा है. समाज की बेड़ियां, सरकारी हथकड़ियां. निकलकर दिखाएं तो!
खैर, सुनीता बताती हैं, ”यह बात सही है कि इस मोहल्ले की औरतें पहले पति का नाम रूपचंद लिखवाती थीं. क्या करतीं? कोई पति का नाम पूछेगा तो कुछ बताएंगी न. लेकिन रूपचंद का मतलब रुपया नहीं है. हमलोग रूप दिखाकर स्टेज पर नाचते हैं, हमारा रूप देखकर ही कोई हमसे प्यार करता है. इसलिए हम अपने प्रेमी या पति को रूपचंद कहते हैं.’’
सासाराम और बांका के इलाकों से भी रेड लाइट एरिया की महिलाओं के पति का नाम रूपचंद रखने की खबरें आती रही हैं. सासाराम में 17-18 साल पहले एक पुलिस अधिकारी ने वहां के बच्चों का एडमीशन एक स्कूल में कराया था, जहां सभी बच्चों ने पिता का नाम रूपचंद या रूपकुमार बताया. हालांकि इस जातीय गणना में वहां से ऐसी खबरें नहीं आई हैं. इसी तरह बांका में भी स्कूलों में रेड लाइट एरिया के बच्चे पिता का नाम रूपचंद बताते रहे हैं. मगर हाल के वर्षों में वहां का माहौल बदला है और लोग रूपचंद के बदले कोई और नाम बताने लगे हैं.
इस बातचीत के बाद रूपचंद की कहानी थोड़ी खुलती दिखी. रूपचंद रूप है, रूपचंद रुपया भी है. रूपचंद का चलन अब खत्म हो रहा है. अब दूसरे काल्पनिक नाम चलन में हैं. हर औरत अपने लिए एक काल्पनिक नाम चुन रही हैं, ताकि उनको और उनके बच्चों को आगे दिक्कत न हो. और इस बस्ती में यह झूठ लगातार चल रहा है. हर सरकारी सवाल पर पति/पिता का काल्पनिक नाम बताया जा रहा है. क्या यह जरूरी है?
ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के बीच काम कर रहीं, हंगर प्रोजेक्ट संस्था की बिहार प्रतिनिधि शाहीना परवीन इसका जवाब देती हैं: ”बिल्कुल नहीं. स्कूलों में एडमिशन मां के नाम से भी हो सकता है, यही कानून है. किसी भी सरकारी दस्तावेज में पिता या पति का नाम देना जरूरी नहीं. मगर हमारा समाज किसी सिंगल वूमन के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता.
मैं खुद अविवाहित और सिंगल हूं. पिछले दिनों बैंक में लोन लेने गई तो बैंककर्मी ने धड़ाक से पति का नाम पूछा. यह भी न जाना कि विवाहित हूं या अविवाहित. इसी तरह से गांव की विधवा औरतों की पेंशन का फार्म भरते वक्त सरकारी कर्मी उनके नाम में मोसोमात या कुंवर लगा देते हैं, जिससे समझ आए कि वे विधवा हैं.’’ परवीन इसके खिलाफ लड़ाई लड़ रही हैं.
ऐसी स्त्रियों के बच्चों को रेडलाइट के बच्चे कहना भी बाल अधिकारों का उल्लंघन है क्योंकि संतान कभी गैरकानूनी नहीं होती और कोई औरत कानूनन यह बताने को बाध्य नहीं कि उसके बच्चों का पिता कौन है. पर जाति आधारित गणना के फार्म में दूसरे कॉलम में पिता या पति का नाम पूछा गया है. सर्वेक्षणकर्ता को इसमें कुछ न कुछ भरना ही है. रूपचंद ही सही.
इस पूरे मसले को विस्तार से समझने के लिए नसीमा खातून से बात करना मौजूं होगा. वे खुद मुजफ्फरपुर की एक सेक्सवर्कर की बेटी हैं, पर उस परिवेश से बाहर निकलीं, देश के कई राज्यों में उन्होंने रेड लाइट एरिया की औरतों और उनके परिवारों के बीच काम किया और फिलहाल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सलाहकार हैं. नसीमा के शब्दों में, ”दरअसल ये औरतें सिंगल वूमन हैं. ये एक पेशा करती हैं, जो गैरकानूनी नहीं है.
अनैतिक देह व्यापार (निवारण) कानून कहता है कि 18 साल से अधिक उम्र की कोई भी औरत अपनी मर्जी से देह व्यापार करती है तो वह गैरकानूनी नहीं है. इनका कोई पति नहीं होता. बार-बार पूछे जाने पर ये कुछ बता देती हैं.’’ 2004 में महिला और बाल कल्याण विभाग के एक सर्वे के मुताबिक बिहार में 1,61,321 सेक्स वर्कर थे. अब यह संख्या कम से कम तीन लाख के आसपास होगी और इनके परिजनों को जोड़ लें तो यह तादाद 10-12 लाख के करीब हो सकती है. जाहिर है, इन लोगों को झूठी पहचान के साथ जीना पड़ रहा होगा.
ऐसी औरतों के मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने मई 2022 में एक अहम फैसला दिया है. जस्टिस एल. नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली खंडपीठ का फैसला इन औरतों की गरिमा को सुरक्षा प्रदान करता है. नसीमा भी उसका जिक्र करती हैं, ”दस प्वाइंट के उस जजमेंट में इस बात का जिक्र है कि उनकी मर्जी के बगैर कोई उनकी पहचान उजागर नहीं कर सकता, उनका चेहरा नहीं दिखा सकता. उनके कल्याण के लिए भी इसमें कई निर्देश दिए गए हैं. अगर उन सबका ठीक से पालन हो तो इस मोहल्लों के बच्चों की जिंदगी संवर जाए.’’
सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को लागू करने का जिम्मा राज्य और जिलास्तरीय विधिक प्राधिकारों को दी है. लेकिन बिहार राज्य विधिक प्राधिकार के सदस्य सचिव राकेश नारायण सेवक पांडेय ने तो अरवल के मामले में कोई आधिकारिक टिप्पणी करने से ही मना कर दिया. जाति आधारित गणना पर पटना हाइ कोर्ट के स्टे के बाद इस पर भी सरकार की स्थिति का पता नहीं चल पा रहा. सामान्य प्रशासन विभाग की विशेष सचिव रचना पाटील ने इस संबंध में मिलने और बात करने से इनकार कर दिया.
अटक गई जाति आधारित गणना
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षी परियोजना जाति आधारित गणना पटना हाइ कोर्ट के एक फैसले की वजह से अटक गई है. कोर्ट ने कुछ याचिकाकर्ताओं की आपत्ति को देखते हुए बिहार सरकार से इसे लेकर सवाल पूछे थे. मसलन यही कि क्या यह जनगणना जैसी प्रक्रिया है, क्या राज्य सरकार को ऐसी प्रक्रिया आयोजित करने का अधिकार है? क्या यह नागरिकों की निजता का हनन नहीं? इसके लिए आकस्मिक फंड के 500 करोड़ क्यों खर्च हो रहे?
अदालत इन सवालों पर बिहार सरकार के जवाब से संतुष्ट नहीं हुई और इस पर रोक लगा दी, साथ ही इसके जरिए जुटाए गए आंकड़ों को सार्वजनिक करने से भी मना किया. हाइ कोर्ट के सुनवाई की अगली तारीख 3 जुलाई तय की थी. बिहार सरकार ने हाइ कोर्ट में याचिका डाली कि सुनवाई जल्द से जल्द हो. नौ मई को हाइ कोर्ट ने यह याचिका भी खारिज कर दी. अब 3 जुलाई तक जाति गणना नहीं की जा सकती. हालांकि इसका पहला चरण और दूसरे चरण का काफी हिस्सा पूरा हो चुका है.
मुगल: किताबों से बाहर, जातियों की सूची से भी गायब
बिहार की जाति गणना में कई विवाद उठे. उनमें एक महत्वपूर्ण विवाद राज्य की मुगल या मोगल जाति का राज्य सरकार की ओर से जारी जातियों की सूची से गायब होने का भी था. दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी, किशनगंज, समस्तीपुर आदि जिलों में यह मुगल जाति रहती है, जो अपना नाता मुगल शासकों से जोड़कर बताती है. दरभंगा के जाले प्रखंड में इस जाति के काफी लोग रहते हैं.
प्रखंड के जद (यू) अध्यक्ष अतहर इमाम बेग के मुताबिक यह आबादी 10,000 के करीब है. बेनीपुर विधानसभा के विधायक विजय कुमार चौधरी ने इस संबंध में बिहार विधानसभा के सचिव को एक पत्र भी लिखा था. इसके बाद राज्य सरकार ने मुगल जाति को अन्य जातियों के लिए निर्धारित कोड 215 में शामिल करने का पत्र जारी किया. इसमें सिख और जाट जातियां भी शामिल हैं. इसके बाद यह विवाद थोड़ा शांत हुआ.
किन्नरों की बना दी अलग जाति
जाति आधारित गणना में एक विवाद किन्नरों को लेकर हुआ. इस गणना के लिए जारी सूची में किन्नरों को अलग जाति बता दिया गया है. जबकि किन्नरों का समूह मानता है कि वे लैंगिक तौर पर अलग समूह जरूर हैं, मगर वे भी दूसरे लोगों की तरह अलग-अलग जातियां से संबंधित हैं. उन्हें एक जाति बताने से उनके समूह के दलित और पिछड़ी जाति के लोग सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित हो जाएंगे. किन्नरों ने इसे लेकर पटना हाइ कोर्ट में याचिका डाली थी जिसे अन्य याचिकाओं के साथ नत्थी कर दिया गया.
—पुष्यमित्र