उद्धव ना इधर के ना उधर के, बाला साहेब की विरासत को ले उड़े शिंदे, ‘ठाकरे युग’ का हो गया अवसान? – maharashtra chunav result uddhav thackeray lost father bal thackeray legacy eknath shinde king
नई दिल्ली. 288 सीट वाले महाराष्ट्र विधानसभा में उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना को सिर्फ 20 सीट मिली. महाराष्ट्र के इतिहास में ये शिवसेना का अब तक सबसे खराब प्रदर्शन तो हैं ही साथ ही अब इस बात पर भी मुहर लग गई कि एकनाथ शिंदे वाली शिवसेना ही असली शिवसेना है. यानी बाला साहेब ठाकरे की विरासत अब शिंदे ही संभालेंगे. क्या इस सच्चाई को उद्धव ठाकरे स्वीकार कर पाएंगे?
अब वो इसे चाहें या ना चाहें लेकिन उद्धव ठाकरे के हाथ आखिरी मौका भी जाता रहा. इस बात के संकेत तो पहले से ही मिलते रहे मगर उन संकेतों को उद्धव या तो पढ़ नहीं पाए या फिर अपनी झूठी ताकत की हनक में उसे नजरअंदाज कर दिया. नतीजा अब उद्धव के पास ना तो पार्टी है, ना पार्टी का सिंबल है और अब तो शिवसैनिकों ने भी नकार दिया. उद्धव ना तो इधर के रहे और ना ही उधर के.
2019 में उद्धव की ‘राजनीतिक आत्महत्या’
साल 2014 से 2019 के बीच देवेंद्र फडणवीस की अगुवाई वाली बीजेपी-शिवसेना गठबंधन सरकार ने 5 साल का कार्यकाल पूरा किया और 2019 में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को विधानसभा बहुमत मिला. यहीं से उद्धव ठाकरे ने पार्टी के विनाश का रास्ता अख्तियार किया. उन्होंने चुनावी नतीजे आने के बाद बीजेपी से सीएम की कुर्सी मांगी लेकिन मना करने उद्धव कांग्रेस और एनसीपी की गोद में चले गए और महाविकास आघाड़ी की सरकार में मुख्यमंत्री बन गए. उद्धव मुख्यमंत्री तो बन गए लेकिन पार्टी और विचारधारा की कीमत पर. शिवसैनिकों को उनका पाला बदलना पसंद नहीं आया और पार्टी के अंदर धीरे धीरे असंतोष बढ़ना शुरू हुआ. इसका फायदा उठाकर उनकी पार्टी के नेता और मंत्री एकनाथ शिंदे ने उद्धव से बगावत करके 56 में से 41 विधायकों के साथ बीजेपी के पाले में चले गए. इसके बाद उद्धव की सीएम की कुर्सी तो गई ही साथ ही पार्टी भी हाथ से निकल गया. शिंदे ने चुनाव आयोग के पास दावा किया कि असली शिवसेना उनके पास है. बाद में चुनाव आयोग ने भी शिंदे की शिवसेना को असली शिवसेना घोषित कर दिया. इसके विरोध में उद्धव कोर्ट में गए लेकिन वहां भी उन्हें कोई राहत नहीं मिली. हालांकि सुप्रीम कोर्ट में मामला अब भी लंबित है मगर विधानसभा चुनाव के ताजा नतीजे आने के बाद अब उद्धव को कोई फायदा मिलेगा इसकी संभावना ना के बराबर है.
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राजनीति में ऐसे फेल हुए उद्धव
साल 2012 में बाला साहेब ठाकरे के निधन के बाद उद्धव ने पूरी तरह शिवसेना को अपमे हाथों में लिया. हालांकि बाला साहेब ने उद्धव को 2004 में अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था. बालासाहेब के इस फैसले के खिलाफ शिवसेना के अंदर विरोध के स्वर भी सुनाई दिए. बाला साहेब के भतीजे राज ठाकरे ने तो शिवसेना छोड़कर महाराष्ट्र नवनिर्माण पार्टी बना ली. जब तक बाला साहेब जीवित रहे उद्धव के लीडरशिप का टेस्ट नहीं हो पाया. लेकिन 2012 के बाद जब उद्धव ने पार्टी संभाली तो सबसे पहली गलती 2014 विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़कर की. 25 साल पहले बाला साहेब ठाकरे ने जो गठबंधन बनाया उसे उद्धव ने बिना सोचे समझे ही तोड़ दिया. 2014 विधानसभा चुनाव बीजेपी पहली बार अकेली लड़ी और 122 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी. उद्धव को ना चाहते हुए भी बीजेपी के साथ गठबंधन करना पड़ा और सरकार में बतौर जूनियर पार्टनर शामिल हुए. सरकार तो पूरे 5 साल चली लेकिन इस दौरान बीजेपी पर शिवसेना हमेशा पलटवार करती रही. लोकसभा चुनाव 2019 में बीजेपी-शिवसेना को भारी सफलता मिली. इन दोनों ने मिलकर 48 में से 42 सीट जीत लिए. विधानसभा चुनाव 2019 में भी बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को बहुमत मिला, लेकिन चुनावी नतीजे आने के बाद उद्धव पैंतरेबाजी करने लगे और आखिरकार गठबंधन और जनादेश को अंगूठा दिखाकर कांग्रेस-एनसीपी से जा मिले.
बाला साहेब की रौबदार राजनीतिक सफर
साल 1960 में कार्टूनिस्ट के तौर पर अपना करियर शुरू करने वाले बाला साहेब मराठी अस्मिता को लेकर मुंबई में आंदोलन शुरू किया. साल 1966 में उन्होंने शिवसेना को राजनीतिक दल के तौर पर स्थापित किया. 1977 में उन्होंने इंदिरा गांधी के इमरजेंसी के फैसले का समर्थन किया. उन्होंने 1977 और 1980 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को समर्थन किया, लेकिन उन्होंने अपनी राजनीति को अब हिन्दुत्व विचारधारा से जोड़ दिया. 1984 के आमचुनाव में शिवसेना ने बीजेपी के साथ गठबंधन किया और उसके उम्मीदवार बीजेपी के सिंबल पर चुनाव लड़े. विधानसभा चुनाव 1995 में शिवसेना-बीजेपी के गठबंधन को बहुमत मिला और पहली बार महाराष्ट्र में हिन्दुत्ववादी सरकार बनी. बाला साहेब चाहते तो सीएम वही बनते, लेकिन उन्होंने किसी पद से खुद को बांधने से बेहतर अपनी साख को दमदार बनाए रखने को अहमियत दी. 5 साल बाद ये सरकार चुनाव हार गई लेकिन बाला साहेब के रसूख पर कोई फर्क नहीं पड़ा. 1992 में बाबरी ढांचे गिराने की जिम्मेदारी भी उन्होंने खुलेआम ली. बाला साहेब का आवास मातोश्री महाराष्ट्र की राजनीति का सबसे बड़ा सेंटर बन गया था. सरकार किसी की बनी लेकिन बाला साहेब की ताकत में कभी कोई कमी नहीं आई. उद्धव को यही विरासत अपने पिता से मिला लेकिन 12 साल के अंदर ही उनके हाथ से ये विरासत निकल गई.
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FIRST PUBLISHED : November 23, 2024, 22:22 IST