कन्याओं के लिए बेहद खास है संजा पर्व, मां पार्वती से मांगती हैं मनचाहे वर का वरदानOn the occasion of Sanja festival, unmarried girls worship Goddess Parvati to get the desired groom


इंदौर. जिस गोबर को आजकल के बच्चे नाक-भौं सिकोड़कर देखते हैं, वही गोबर संजा पर्व की मूल आत्मा हुआ करता था. संजा, जो मालवा और राजस्थान की मिली-जुली संस्कृति का प्रतीक है, श्राद्ध पक्ष के सोलह दिनों तक मनाया जाता है. माना जाता है कि इसकी शुरुआत राजस्थान से हुई थी. आइए, लोकल 18 के माध्यम से जानते हैं इस पारंपरिक पर्व के बारे में.

संस्कृति और पर्यावरण का संगम
पर्यावरणविद् और ‘मालमंथन’ संस्था के संयोजक स्वप्निल व्यास बताते हैं कि मालवा-निमाड़ की यह लोक-परंपरा कुंआरी कन्याओं द्वारा मनाई जाती है. मां पार्वती से मनचाहा वर पाने की प्रार्थना करते हुए, लड़कियां इस अनुष्ठान को निभाती हैं. यह पर्व न सिर्फ प्रेम, एकता और सामंजस्य का सृजन करता है, बल्कि पर्यावरण और परिवेश से भी जोड़ता है. तीज-त्योहारों में परंपराओं को सहेजने की जिम्मेदारी अक्सर महिलाएं निभाती हैं, और संजा भी इस कड़ी का हिस्सा है. मालवा की हर बेटी ने इसे बचपन में मनाया और जीया है. यह पर्व मालवी लोकगीतों और पर्यावरण संरक्षण के मूलभूत भावनाओं को आज भी जीवित रखता है. संजा पर्व के माध्यम से मालवा की लोकसंस्कृति को आधुनिक समाज में संजोए रखने की कोशिश की जा रही है.

त्रिशताब्दी वर्ष का विशेष महत्व
वर्ष 2024 मालवा वासियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पुण्यश्लोक लोकमाता अहिल्याबाई होल्कर की त्रिशताब्दी जयंती का वर्ष है. संजा पर्व लड़कियों को भावी जीवन के लिए तैयार करता है, जबकि मां अहिल्या का जीवन उन्हें नारी से देवी बनने की प्रेरणा देता है. आधुनिकता के चलते संजा जैसे त्योहार विलुप्त होने की कगार पर हैं, लेकिन प्रयास जारी हैं कि इसे पुनर्जीवित किया जाए.

संजा पर्व की परंपरा
बीना राजवंशी बताती हैं कि मालवा क्षेत्र में संजा पर्व लड़कियों के जीवन का अभिन्न हिस्सा होता है. मुख्य द्वार के पास की दीवार पर पीली मिट्टी और गोबर मिलाकर चौकोर आकृति बनाई जाती है, जिसे संजा की पृष्ठभूमि कहा जाता है. संजा पर्व के दौरान पारंपरिक मालवी गीत गाए जाते हैं, जैसे “संजा तू थारा घर जा, थारी माय मारेगी कि कुटेगी” और “संजा माता जीम ले”.

सोलह दिनों तक विभिन्न रूप बनाए जाते हैं, जैसे पहले दिन पाटला, दूसरे दिन पंखा, तीसरे दिन बिजोरा, और अमावस्या को किला. आखिरी दिन, संजा की आकृति को दीवार से निकालकर नदी में प्रवाहित किया जाता है. यह प्रक्रिया गांव की सभी लड़कियों द्वारा एक साथ की जाती है, जो संजा पर्व का समापन होता है.

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