कॉम्पिटीशन के दौर में काम के घंटे को लेकर सार्थक बहस होनी ही चाहिए
कॉरपोरेट सेक्टर में एक बार फिर से कामकाज के घंटों को लेकर बहस छिड़ी है. किसी का मानना है कि कर्मचारियों को ज्यादा से ज्यादा घंटे काम करने के लिए तैयार रहना चाहिए. कोई कहता है कि काम के घंटे नहीं, बल्कि प्रोडक्टिविटी मायने रखती है. वैसे देखा जाए, तो तेजी से बदलते दौर में इस मसले पर सार्थक बहस होनी ही चाहिए, जिससे सारे पहलू सामने आ सकें.
बहस का प्लॉट
पहले इन्फोसिस के को-फाउंडर एनआर नारायणमूर्ति ने हफ्ते में 70 घंटे काम करने की सलाह दी थी. तब उनके बयान पर तरह-तरह की प्रतिक्रिया सामने आई थी. हाल में L&T के चेयरमैन एसएन सुब्रह्मण्यम ने कर्मचारियों को 90 घंटे काम करने की सलाह दी. सुब्रह्मण्यम की दो टिप्पणियां सोशल मीडिया पर खूब तैर रही हैं. एक तो ये कि घर में कितनी देर जीवनसाथी को निहारोगे? दूसरा ये कि अफसोस, रविवार को ऑफिस नहीं बुला पा रहे!
हालांकि, बाद में सुब्रह्मण्यम की कंपनी ने उनके कमेंट पर सफाई दी. उनकी टिप्पणी को देश की तरक्की और दुनिया में टॉप पर रहने के गुर से जोड़ दिया गया. इधर, नारायणमूर्ति ने भी अपना नजरिया साफ किया है. उन्होंने कहा कि किसी को जबरदस्ती लंबे समय तक काम करने के लिए नहीं कहा जा सकता, लेकिन हर किसी को इस बारे में खुद सोचना चाहिए और इसकी जरूरत समझनी चाहिए.
ऑफिस का ऐकिक नियम
गणित का एक सामान्य नियम है- Unitary Method. हिंदी में इसे ‘ऐकिक नियम’ कहते हैं. इसमें सबसे पहले किसी चीज की एक यूनिट की वैल्यू पता करते हैं, फिर उसे अनेक से गुणा करके, उसकी वैल्यू आसानी से निकाल लेते हैं. जैसे- 1 आम का दाम 10 रुपये, तो 10 आम का दाम 100 रुपये. यहां तक कोई कन्फ्यूजन नहीं है. ये तो सबको मालूम है.
बस, अपने कॉमन सेंस से हमें ये पता होना चाहिए कि कहां-कहां ऐकिक नियम लागू कर सकते हैं, कहां-कहां नहीं. देखना होगा कि दफ्तर में कामकाज के घंटे तय करते वक्त कहीं इसी नियम का सहारा तो नहीं लिया जा रहा? एक आदमी के एक घंटे का काम = Z, तो 10 घंटे का काम = 10Z…या यह पहले ही मान कर चला जा रहा है कि आखिर में बचे 2 आमों की कीमत अगर 10 की जगह 6-7 रुपये भी लग जाए, तो कोई हर्ज नहीं! इस नियम पर पहले ही कई लतीफे बन चुके हैं.
वर्क-लाइफ बैलेंस
दरअसल, इस पूरी चर्चा के केंद्र में ‘वर्क-लाइफ बैलेंस’ की थ्योरी है. यह ठीक है कि हर जगह काम के लिए प्रतिभाशाली लोग ही तलाशे जाते हैं. बेहतर तरीके से, पूरी निष्ठा से काम करने के ही पैसे मिलते हैं. पर यह भी देखा जाना चाहिए कि एक सीमा से ज्यादा काम का बोझ कहीं दोतरफा नुकसान तो नहीं पहुंचा रहा है? काम और निजी जीवन के बीच संतुलन न केवल कर्मचारियों के लिए, बल्कि कंपनियों या अन्य संस्थानों के लिए भी फायदेमंद है. पर कैसे?
यह मानी हुई बात है कि एम्प्लॉई के हितों का ध्यान रखे जाने से, दफ्तर में कामकाज का स्वस्थ माहौल दिए जाने से संस्थान की प्रोडक्टिविटी बढ़ती है. आपसी रिश्ते मजबूत होते हैं और संस्थान की साख भी बेहतर होती है. इसके उलट, किसी अव्यावहारिक कदम से बेहतर नतीजों की उम्मीद नहीं की जा सकती. हर एम्प्लॉई को काम करने के बेहतर माहौल की तलाश होती है. ‘ब्रेन ड्रेन’ कोई नया टर्म नहीं है!
यह भी देखना होगा कि अगर काम के घंटे एक सीमा से आगे बढ़ते चले जाएंगे, तो निजी जीवन के कई सवाल उलझे ही रह जाएंगे. इसका असर कामकाज पर भी पड़ना तय है. रही बात घर में रहकर जीवनसाथी को निहारने की, तो यह निजी जीवन का एक छोटा-सा हिस्सा हुआ करता है. सब जानते हैं, गम और भी हैं जमाने में…
सेहत का ग्राफ
साल 2021 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने कामकाज के घंटे और सेहत को लेकर एक संयुक्त रिपोर्ट छापी थी. रिपोर्ट का सार यह है कि प्रति सप्ताह 55 या इससे ज्यादा घंटे काम करने से स्ट्रोक का खतरा 35% और हृदय रोग से जान गंवाने का जोखिम 17% बढ़ जाता है. इससे पुरुष सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं.
दूसरी कई स्टडी में भी इसी तरह की बात कही गई है. इसके पीछे का विज्ञान यह है कि लगातार लंबे समय तक काम करने से, लंबे दौर का मानसिक तनाव पैदा होता है. इससे तनाव बढ़ाने वाले हार्मोन का स्राव भी बढ़ जाता है. आगे चलकर ब्लड-प्रेशर और हृदय रोग का खतरा बढ़ जाता है. रोज-रोज के थकान और तनाव से नींद की क्वालिटी पर भी बुरा असर पड़ता है, जिससे लाइफ-स्टाइल प्रभावित होता है. बात इन तथ्यों से डरने की नहीं है. बात समय रहते सही समाधान तक पहुंचने की है.
उद्यमेन हि सिध्यन्ति…
शब्दकोष में ‘उद्यम’ शब्द के कई अर्थ मिलते हैं- उठाना, तत्परता, तैयारी, अध्यवसाय आदि. इसी तरह, ‘उद्योग’ का मतलब दिया गया है- प्रयास, मेहनत, श्रम, उद्यम, काम-धंधे. आजकल उद्यम या उद्योग का अर्थ ज्यादातर इंडस्ट्री, बिजनेस या काम-धंधे के संदर्भ में ही लिया जाता है. लेकिन अगर सारे अर्थ पर गौर करें, तो साफ हो जाता है कि उद्योग और परिश्रम एक-दूसरे के पर्यायवाची ही हैं.
बात भी सही है. सारे उद्योग परिश्रम के बूते ही खड़े किए जा सके हैं. एनआर नारायणमूर्ति का ही उदाहरण ले लीजिए. वे बताते हैं कि उन्होंने इन्फोसिस में 40 साल तक, हर सप्ताह 70 घंटे से ज्यादा काम किया. इस जज्बे को सलाम! इस मेहनत के महत्त्व से हर कोई वाकिफ है. साहित्य में इस पर हजारों-लाखों पन्ने रंगे जा चुके हैं. इन बातों के बावजूद, इसकी सीमा को लेकर उठते सवाल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
महामारी के बाद का दौर
मोटे तौर पर, कोविड-19 के बाद के दौर में इस तरह के सवाल तेजी से उठ रहे हैं कि सप्ताह में कामकाज के अधिकतम घंटे कितने हों. दरअसल, महामारी के दौरान कई सेक्टरों में काम के मौकों में अचानक तात्कालिक कमी आ गई. काम छूटने का डर बढ़ गया. वर्क-प्रेशर बढ़ने से काम के घंटे भी बढ़ते चले गए. ‘वर्क फ्रॉम होम’ कल्चर ने ‘वर्क’ और ‘लाइफ’ के बीच की सीमा को धुंधला करके रख दिया. इकोनॉमी को बूस्ट मिलने पर, अब नए सिरे से इसी के ‘सीमांकन’ की कोशिश हो रही है!
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी भी संस्थान की कामयाबी में मेहनत का बड़ा रोल होता है. लेकिन मेहनत का मोल तभी है, जब उससे उत्पादकता बढ़ती हो. कई बार क्रिएटिविटी और स्मार्ट तरीके से किए गए काम ज्यादा कारगर साबित होते हैं. काम के घंटे तय करते वक्त यह भी देखना होगा कि किस सेक्टर की बात हो रही है. उस फील्ड में काम का नेचर क्या है. ऐसी नौबत न आ जाए कि काम के घंटे खत्म, इधर इंजन बंद. अब पैसेंजर समझें कि उन्हें किस खेत से होकर घर जाना है!
कुल मिलाकर, कह सकते हैं कि चाहे आदमी हो या मशीन, हर किसी की अपनी क्षमता होती है. अगर धनुष की कमान को हर वक्त कसकर ही रखा जाएगा, तो उसकी दूर तक मार करने की क्षमता निश्चित तौर पर खत्म हो जाएगी. यही बात इंसानों पर भी लागू होती है.
अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं… ‘अमर उजाला’, ‘आज तक’, ‘क्विंट हिन्दी’ और ‘द लल्लनटॉप’ में कार्यरत रहे हैं…
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