चुनाव नतीजों का अनुमान लगाना मुश्किल क्यों होता है…?



2pje38j election चुनाव नतीजों का अनुमान लगाना मुश्किल क्यों होता है...?

2014 के चुनाव को छोड़ दें, तो 1998 से 2014 तक जितने भी पोल सर्वे हुए, उनमें औसत के हिसाब से करीब 75 लोकसभा सीटों का फर्क आया. यानी जब से पोल सर्वे ज़्यादा वैज्ञानिक हुए हैं, तब से लगातार गलतियां हो रहीं हैं. यह आलम तब है, जब सर्वे के ज़्यादा टूल मौजूद हैं. सर्वे वाले कितनी भी पीठ थपथपाएं, चुनाव नतीजों की भविष्यवाणी करना बेहद मुश्किल काम है. इसकी कई वजहें हैं. एक देश का आकार, ऊपर से जनसंख्या इतनी बड़ी है, और उस जनसंख्या में इतने पहचान समूह हैं कि चुनावों में कौन कहां जा रहा है, यह बताना बेहद चुनौती भरा है.

वक्त के साथ बढ़िया टेक्नोलॉजी और साधनों ने अब चुनावों की भविष्यवाणी आसान की है, लेकिन गलती का पैमाना फिर भी बहुत ज़्यादा है. तो बड़ा सवाल है कि इतने जटिल माहौल में जब अंकगणित के मास्टर चुनाव विज्ञानी पानी भरते हैं, तो पत्रकार किस आधार पर चुनावी भविष्यवाणी करते हैं? और वे चुनाव पूर्वानुमान कितने सटीक होते हैं?

2024 के चुनाव से पहले हाल ही में विधानसभा चुनाव हुए. उन्हें अगर बेंचमार्क मान लें, तो स्थानीय स्तर पर काम करने वाले पत्रकारों से क्षेत्रीय बड़े अख़बारों के अनुमान धराशायी हो गए. मध्य प्रदेश के चुनावों में एक स्थानीय मीडिया समूह ने अपने नेटवर्क के आधार पर बताया था कि कैसे BJP की सरकार नहीं आ रही है. बहुत सारी सर्वे एजेंसियां भी गलत साबित हुईं. बारीकी से देखेंगे, तो समझ आएगा कि कैसे मीडिया के ज़्यादातर साथी एक किस्म के लोगों के आधार पर ही अपना ओपिनियन बनाते हैं. दिलचस्प यह भी है कि सर्वे कंपनिया भी इसी गलती को दोहरा रही हैं.

मतदाता का मन जानने के लिए मीडिया के जो टूल हैं, बेहद पुराने हैं और उनमें विविधता की बड़ी कमी है. जो मीडियाकर्मी मतदाताओं का इंटरव्यू करते हैं, वे खास किस्म की पहचान से आते हैं. उनके अपने पूर्वाग्रह भी हैं. मतदाता के मन को जानने को लेकर मीडियाकर्मी की कोई ट्रेनिंग नहीं है. रैंडम सैम्पलिंग की कमी ही बहुत बड़ा कारण है कि मीडियाकर्मी किसी भी गलत नतीजे पर पहुंच जाते हैं.

लंबे वक्त तक चुनाव देख चुके पत्रकार और कई बार नेता भी चुनाव का पूर्वानुमान नहीं लगा पा रहे हैं. रैलियों की भीड़ और मीडिया में आ रहे vox pop कई बार ऐसा अहसास दे रहे हैं कि फलां पार्टी शानदार प्रदर्शन करने जा रही है. इस में कुछ सच्चाई हो सकती है, लेकिन इन वीडियो के आधार पर जो ओपिनियन बनाया जा रहा है, उसमें कुछ खास बातों को नजरअंदाज़ कर दिया जाता है. इस पूरी बात को हम उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की रैलियों से समझ सकते हैं. यादव समाज जोर-शोर से रैलियों में शामिल होता है. मीडिया को जो इंटरव्यू देते हैं, वे बड़े ठोस आधार पर अपनी बात रखते हैं, लेकिन इस सबमें एक बड़ा तबका ऐसा भी होता है, जो चुप रहता है. आबादी में उसकी भी आवाज़ होती है. लेकिन वह इतने बड़े प्रदर्शनों के बीच खुद को असहज पाता है, इसलिए खुलकर अपनी बात नहीं रखता. कई बार ऐसा भी होता है कि बड़ी रैली और नेता के समर्थन में बड़ी आवाज़ों के बावजूद उम्मीदवार हार जाता है. यहां पर चुनावी भविष्यवाणी उल्टी पड़ती दिखती हैं.

भारतीय राजनीति में नेता अक्सर पत्रकार से यह जानने की कोशिश करता है कि चुनाव का रुख क्या है. पत्रकार के पास जो टूल हैं, वे इतने नहीं हैं कि चुनावों के अनुमान लगा सकें. मीडियाकर्मी उन विषयों को जरूर हाईलाइट कर पाते हैं, जिनका असर हो सकता है.

चुनाव के सवालों को हाईलाइट करने में उसकी चूक तभी होती है, जब वह किसी खास वर्ग तक खुले तौर पर नहीं पहुंच पाता. उदाहरण के तौर पर महिलाओं के मुद्दों को समझने में चूक. आम महिला वोटर वैसे भी अपनी बात खुले तौर नहीं करती. पुरुष रिपोर्टर है, तो फिर यह दूरी और बढ़ जाती है. पिछले पांच चुनावों में इसे लेकर मीडिया हाउस ने कम काम किया है. मीडियाकर्मियों का झुकाव और उनकी पहले से बन चुकी इमेज भी उन्हें चुनावी पूर्वानुमान से दूर कर रही है.

अभिषेक शर्मा NDTV इंडिया के मुंबई के संपादक रहे हैं. वह आपातकाल के बाद की राजनीतिक लामबंदी पर लगातार लेखन करते रहे हैं.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.



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