जिद के आगे अंग्रेजी भाषा ने भी तोड़ा दम, हिंदी माध्यम की लड़की ऐसे बनी न्यूरो सर्जन; गरीबों की करती हैं मदद


गाजियाबाद /विशाल झा: गाज़ियाबाद के वरिष्ठ न्यूरो सर्जन रति अग्रवाल की काबिलियत ही उनकी पहचान है. मुरादाबाद के ग्रामीण क्षेत्र ठाकुरद्वारा से निकल देश के सबसे बड़े अस्पताल में से एक एम्स दिल्ली में न्यूरो सर्जन के तौर पर चयन होने का सफर कई उतार -चढ़ाव से भरा रहा. लेकिन, अपने चिकित्सा पेशे के प्रति जुनून ही डॉक्टर रति की हिम्मत बना. आज वो गाजियाबाद के संतोष अस्पताल में असिस्टेंट प्रोफेसर और कंसलटेंट न्यूरो सर्जन के पद पर काम कर रही हैं.

डॉक्टर रति बताती हैं कि जब वह वर्ष 1996 में वह 12वीं कक्षा में थी. तब उनके क्षेत्र में कोई भी इंग्लिश मीडियम स्कूल नहीं था. लेकिन, उन्हें परीक्षा अंग्रेजी में ही देनी थी. इसलिए जब परीक्षा का फॉर्म भरा तो हिंदी मीडियम की किताबें और सिलेबस होने के बावजूद अंग्रेजी भाषा का चयन किया. फिर परीक्षा से पहले दिन और रात बैठकर हिंदी किताबों से अंग्रेजी में नोट्स बनाए और उन्हें पढ़ा. उस वक्त दिन और रात कब होती है ये भी पता नहीं लग पाता. बिना किसी ट्यूशन और सपोर्ट के काफी अच्छे नंबरों से परीक्षा पास की. इसके बाद सीपीएमटी का एग्जाम देकर एमबीबीएस के लिए एक अच्छा गवर्नमेंट कॉलेज मिल गया.

ऐसी लगी थी न्यूरो सर्जन बनने की ललक
रति बताती हैं कि एमबीबीएस के फर्स्ट ईयर में जब एनाटॉमी पढ़ते थे. उस वक़्त से ही ब्रेन, नेक और स्पाइन एरिया में काफी ज्यादा रुचि महसूस होती थी. जब मेरे सीनियर्स ने मुझसे पूछा कि तुम किस फील्ड़ को चुनोगी. तब मैंने न्यूरो सर्जरी बोला. सभी ने मुझे काफी समझाया, क्योंकि बतौर महिला न्यूरो सर्जन बनने के बाद आप अपने परिवार को बिल्कुल समय नहीं दे सकते हैं. लेकिन, उन्हें इसी फील्ड में जाना था. इसलिए उन्होंने न्यूरो डिपार्टमेंट चुना.

न्यूरो के लिए अच्छा एक्स्पोज़र मिला. सबसे पहली ही प्रैक्टिस बतौर जूनियर रेजिडेंट के तौर पर एम्स दिल्ली (Aiims Delhi ) के न्यूरो सर्जरी डिपार्टमेंट में मिली. वहां पर काम का इतना दबाव था कि मेरे नौकरी करने से 20 दिन पहले ही लगभग तीन न्यूरो रेजिडेंट्स ने वहां से नौकरी छोड़ी थी. लेकिन, वहां पर काफी कुछ सीखने को मिला. जूनियर रेजिडेंट की फेलोशिप मेरी मेहनत और परिश्रम के बदौलत बढ़कर 2 साल तक चली. इसके बाद 5 महीने हेड इंजरी डिपार्टमेंट और 5 महीने इमरजेंसी मेडिसिन में भी काम करने का मौका मिला.

जब डॉक्टर के फर्ज के पीछे रह गया मां का फर्ज
रति भावुक होते हुए बताती हैं कि जब सफदरजंग में बतौर सीनियर रेजिडेंट वो काम कर रही थी. तब उनका एक बेटा सिर्फ चार से पांच साल का था. उस वक़्त ही वह अपनी सेकंड प्रेगनेंसी के दौर से गुजर रही थी. जीवन के इस पड़ाव में मेरे पति ने बहुत ज्यादा सहयोग किया. एक न्यूरो सर्जन के रूप में दिनभर अस्पताल की इमरजेंसी के कारण मैं बच्चों को समय नहीं दे पाई. वो भी तब जब उन्हें सबसे ज्यादा मेरी जरूरत थी.

गरीब मरीजों के लिए हमेशा रहता है एक सॉफ्ट कार्नर
डॉक्टर रति बताती हैं कि न्यूरो का इलाज काफी महंगा होता है. इस बीमारी में कई सारी जांच की प्रक्रिया होती है और सभी जांच काफी ज्यादा महंगी होती है. ऐसे में जब भी मेरी ओपीडी में कोई गरीब मरीज आता है, तो उसके कागज देखने के बाद पूरी मदद करने की कोशिश की जाती है. अस्पताल प्रशासन के द्वारा भी मरीज की सर्जरी कम से कम दामों में करने की कोशिश रहती है. इसके अलावा स्पाइन और न्यूरो इंजरी को रोकने के लिए डॉक्टर रति कई सारी अवेयरनेस ड्राइव को भी चलाती है. आज डॉक्टर रति अग्रवाल न्यूरो सर्जन के रूप में न केवल अपने तजुर्बे के अनुसार मरीजों को अच्छा उपचार दे रही हैं. बल्कि, एक परिवार की तरह उनके साथ हमेशा खड़ी भी रहती हैं.

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