झारखंड का स्थानीय कौन? सोरेन 1932 पर अड़े, बाबूलाल कहे- हम निकालेंगे रास्ता, लोग बोले- यही करते 24 साल बीते


रांची. विधानसभा चुनाव 2024 का बिगुल बजने के साथ झारखंड में बाहरी बनाम भीतरी का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है. नवंबर 2000 में झारखंड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद से ही प्रदेश में स्थानीयता का मुद्दा गरम है. 2002 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने 1932 खतियान को आधार मानकर इस मुद्दे को सुलझाने का प्रयास किया था. इस स्थानीयता नीति के आने के बाद प्रदेश में हिंसक आंदोलन शुरू हो गया. इस नीति के पक्ष और विपक्ष में लोग सड़कों पर उतर आए थे.

रांची में नीति के समर्थन व विरोध में प्रदर्शन के दौरान दोनों गुट आपस में भिड़ गए और 6 लोगों की जान चली गई थी. मामला झारखंड हाईकोर्ट गया और इसे अमान्य घोषित कर दिया गया. उस समय ऐसा माहौल बना कि बाबूलाल मरांडी को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा तक देना पड़ा था. उसके बाद अर्जुन मुंडा ने सीएम बनने के बाद सुदेश महतो की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय कमेटी बनाई थी. इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट भी पेश की, लेकिन उस पर कोई पहल नहीं की गई.

सोरेन सरकार लाई थी विधेयक
फिर 2014 में बीजेपी के तत्कालीन सीएम रघुवर दास ने स्थानीयता नीति पर ठोस कदम उठाया. उन्होंने स्थानीय नीति को परिभाषित करते हुए 1985 से झारखंड में रहने वालों को यहां का मूल अथवा स्थानीय निवासी माना. लेकिन, 2019 में जेएमएम की अगुवाई में बनी हेमंत सोरेन सरकार ने 1932 खतियान को स्थानीयता का आधार बनाने के लिए नवंबर 2022 विधेयक लेकर आई. लेकिन, केंद्र ने उसे लौटा दिया. इसके बाद हेमंत सरकार ने उसमें संशोधन किए बिना ही दिसंबर 2022 में एक बार फिर विधानसभा से पारित कराकर केंद्र सरकार को भेजा. इसके बाद केंद्र सरकार द्वारा इस पर कोई पहल नहीं की गई.

हम निकालेंगे रास्ता- बाबूलाल
पिछले दिनों एक निजी न्यूज पोर्टल के कार्यक्रम में स्थानीय नीति पर पूछे गए सवाल का जवाब देते हुए बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने कहा, ”किसी भी प्रदेश का व्यक्ति चाहता है कि राज्य में वहां के बच्चों को अवसर मिले. मेरा विचार भी उनसे अलग नहीं है. पिछली बार जब मैं मुख्यमंत्री था, तब भी स्थानीयता का सवाल उठा था. तब मैं एक प्रस्ताव लाया था. हालांकि, उसमें कहीं भी 1932 खतियान का जिक्र नहीं था, पिछले सर्वे यानी रिकॉर्ड ऑफ राइट्स में जिनके पूर्वज का नाम दर्ज है, उन्हें स्थानीयता का हक देने की बात कही गई थी. उसके बाद कई घटना हुई. मामला कोर्ट गया और वहां से निरस्त कर दिया गया”.

सबको पता है… यहां का बच्चा कौन है
मरांडी ने आगे कहा, मैं आज भी चाहता हूं कि झारखंड के बच्चों को यहां रोजगार एवं अन्य क्षेत्र में शत-प्रतिशत अवसर मिले. इसके लिए आगे भी प्रयास करूंगा. मुझे पूरा विश्वास है कि हम लोग कोई न कोई रास्ता जरूर निकालेंगे. यहां के थर्ड और फोर्थ ग्रेड की नौकरी में स्थानीय बच्चों का शत-प्रतिशत हक बनता है. हम उन्हें उनका हक दिलाएंगे. लेकिन, झारखंड के बच्चे हैं कौन? इस सवाल पर मरांडी ने कहा, ‘ये बात सभी को पता है कि यहां के बच्चे कौन हैं. टेक्नोलॉजी के इस युग में यह पता लगाना बेहद आसान है”.

जेएमएम 1932 खतियान पर अड़ी
वहीं, जेएमएम प्रवक्ता मनोज पांडे ने लोकल 18 से बातचीत में कहा, ”स्थानीयता नीति पर हमारी सरकार का रुख पूरी तरह स्पष्ट है. हम 1932 खतियान आधारित नीति चाहते हैं. हम लोगों ने दो-दो बार सदन से विधेयक पास करके केंद्र सरकार को भेजा. पहली बार केंद्र सरकार द्वारा इसे लौटा देने के बाद हमने दोबारा भेजा. लेकिन, केंद्र की बीजेपी सरकार इसे दबाकर बैठ गई है. जनता सब समझ रही है. चुनाव के बाद इसपर जोरदार आंदोलन किया जाएगा. जरूरत पड़ने पर दिल्ली जाकर प्रदर्शन करेंगे. हमें राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से इस विषय पर विशेष उम्मीद है. केंद्र सरकार हमारी बात नहीं मानी तो हम आर्थिक नाकेबंदी भी करेंगे. सरकार को हमारी मांग के सामने झुकना पड़ेगा”. उन्होंने आगे कहा, यदि किसी का पूर्वज भूमिहीन था या खतियान में नाम नहीं है, लेकिन वह 1932 से झारखंड में रह रहा है तो ग्राम सभा के द्वारा उसे स्थानीयता का हक दिया जाएगा.

1932 खतियान पर विवाद क्यों?
झारखंड के संथाल परगना इलाके के लिए वर्ष 1872 में पहली बार खतियान सर्वे हुआ था. इसके बाद 1922 में जीएफ गंटजर के जरिए संताल परगना का पहली बार संपूर्ण सर्वे कराया गया. इसी का संशोधन 1932 में किया गया. बाद में इसका संशोधन 1934 और उसके बाद अंतिम बार 1936 में किया गया था. जानकारी के अनुसार, झारखंड के कुछ जिलों में 1933 में अंतिम बार सर्वे सेटलमेंट शुरू हुआ था, जो 1935 में पूरा हुआ. कुछ जिलों में 1938 में सर्वे सेटलमेंट पूरा किया गया तो कुछ जिलों में 1955 में पूरा हुआ. रांची, खूंटी, सिमडेगा और गुमला में 1975 में सर्वे सेटलमेंट की प्रक्रिया शुरू हुई, लेकिन अभी तक काम अधूरा है. वहीं, धनबाद और बोकारो में 1981 में सर्वे शुरू हुआ, लेकिन आज तक पूरा नहीं हो पाया. पलामू, गढ़वा, साहिबगंज, दुमका, पाकुड़, गोड्डा, देवघर और जामताड़ा में 1976-1977 में सर्वे शुरू हुआ और अभी तक पूरा नहीं हो सका. ऐसे में लोगों के मन में सवाल है कि जहां सर्वे का काम पूरा नहीं हुआ है, वहां के लोगों को स्थानीयता का दर्जा कैसे मिलेगा? हालांकि, ऐसे लोगों के लिए ग्राम सभा से अनुमति का विकल्प रखा गया है.

अंधेरे में मूल निवासियों का भविष्य
संगीत नाट्य अकादमी के जनरल काउंसिल मेंबर और झारखंड निवासी नंद लाल नायक ने कहा, ”झारखंड प्रदेश अलग हुए 24 साल हो गए. पहली प्राथमिकता मानकर इस मुद्दे का हल निकालना था. लेकिन, आज तक इस पर बहस ही हो रही है. यहां के स्थानीय लोगों को यहां की मूलभूत चीजों का अधिकार मिलना ही चाहिए. एक मजबूत बिल के साथ स्थानीयता का पैमाना तय होना चाहिए, वो पैमाना क्या हो, इसे जिम्मेदार लोगों को तय करना है. 24 साल से इस विषय पर बात ही हो रही है. इससे झारखंड के मूल निवासियों का भविष्य बर्बाद हुआ है.

झारखंड के साथ अलग हुए राज्यों की स्थानीयता नीति
साल 2000 में झारखंड के साथ छत्तीसगढ़ व उत्तराखंड राज्य भी अस्तित्व में आया था. विभाजन से पहले झारखंड बिहार का हिस्सा था. छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश का और उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा हुआ करता था. अगल राज्य की मांग को लेकर तीनों ही प्रदेशों के नेताओं ने लंबी लड़ाई लड़ी थी. इसके बाद केंद्र की तत्कालीन अटल बिहारी सरकार ने झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड को अलग राज्य की मंजूरी दी थी. बता दें कि छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड में भी स्थानीयता नीति लागू है. उत्तराखंड ने तय किया है कि राज्य में 15 वर्षों से निवास करने वालों को प्रदेश का मूल निवासी माना जाएगा. वहीं, छत्तीसगढ़ ने तय किया है कि राज्य में जन्म लेने वाले, 15 साल से यहां रहने वाले और 3 वर्ष तक लगातार शिक्षा ग्रहण करने वाले को स्थानीयता के दायरे में माना जाएगा.

Tags: Hemant soren government, Jharkhand election 2024, Jharkhand Politics, Local18



Source link

x