दिल्ली के ट्रैफिक जाम में ‘कानखजूरे’ का जन्म, पढ़ें डॉ. जीतराम भट्ट की मजेदार कहानी


हिंदी, संस्कृत और गढ़वाली भाषाओं के विद्वान डॉ. जीतराम भट्ट भाषाविद् तो हैं ही साथ में एक अच्छे कहानीकार, नाटककार और गीतकार भी हैं. आपने साहित्य की तामाम विधाओं में रचनाकर्म किया है. बाल कहानी, बाल कविता और बाल गीत में आप सिद्धहस्त हैं. दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी, संस्कृत अकादमी और गढ़वाली, कुमाऊंनी एवं जौनसारी अकादमी के सचिव पद पर लंबे समय सेवाएं देने के उपरांत वर्तमान में आप दिल्ली स्थित प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान के निदेशक के पद पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं.

डॉ. भट्ट के साथ लंबे समय से साहित्यसृजन को लेकर चर्चाएं होती रही हैं. पिछले दिनों टेलीफोन पर हुई बातचीत में उन्होंने बताया कि दिल्ली में किसी कार्य से उन्हें एक कार्यक्रम में जाना था, लेकिन ट्रैफिक जाम में ही लगभग दो घंटे फँसे रहे. इन दो घंटों का सदउपयोग करते हुए उन्होंने एक बाल कहानी की रचना है, नाम है- कानखजूरे.

डॉ. जीतराम भट्ट ने कानखजूरे के माध्यम से समाज में मौकापरस्त, लालची लोगों से दूर रहने के साथ-साथ सतर्क रहने का भी संदेश दिया है. कहानी बहुत ही रोचक ढंग से लिखी गई है. दादी और पोते के बीच हुए संवाद के माध्यम से कानखजूरे कहानी युवाओं के लिए एक बड़ा संदेश हैं. आप भी इसका आनंद लें-

आज मैंने जमीन के कोने से झांकते हुए कई कानखजूरे देखे तो मुझे बचपन में अपनी दादी के सान्निध्य की कुछ बातें याद आ गईं. दादी बोलती थी कि ‘लापरवाह मत रहो, वरना कानखजूरा कान में घुस जाएगा.’ एक बार मैंने दादी से पूछा था कि ‘दादी! कान में कानखजूरा घुसने से क्या होता है?’ दादी बोली थी कि ‘बड़ा भारी अनर्थ. कानखजूरा दिमाग में घुस जाता है तो वहां वह हजारों अण्डे देता है. अण्डे से कानखजूरे के बच्चे निकलते हैं. फिर आदमी के दिमाग में कानखजूरे ही कानखजूरे. तब आदमी का दिमाग खराब हो जाता है. जो नहीं करना चाहिए, वह करने लगता है. दूसरों को मारने लगता है. यहां तक कि आत्महत्या भी कर लेता है.’

‘ओहो!’ लम्बी सांस लेकर डरते हुए मैंने पूछा था कि ‘दादी! कानखजूरा कहां रहता है?’

दादी बोली थी ‘जहां हम रहते हैं. वह हमारे उठने-बैठने वाले स्थान के आसपास ही रहता है.’
मेरा भय बढ़ता जा रहा था, तब मैंने पूछा कि ‘कानखजूरा कैसे होता है?’
तब दादी ने बताया था कि ‘वह छोटा-बड़ा, भूरा, सांवला आदि कई तरह का होता है. उसके सौ पैर होते हैं. किसी-किसी के डेढ़ सौ पैर भी होते हैं.’
मैंने आश्चर्य से पूछा था कि ‘इतने पैर? दादी इतने पैर से वह क्या करता है? चलने के लिए तो दो ही काफी हैं.’
दादी ने कहा कि ‘वह हमारी तरह नहीं चलता है, वह तो सरपट रेंगता रहता है, कभी यहां, कभी वहां. घुसने के लिए जगह ढूंढता रहता है.’
बालमन की उत्सुकतावश मैंने पूछा था ‘दादी! वह कान भी ढूंढता है?’
दादी बोली, ‘हां, जो लापरवाह रहते हैं, झट से उनके कान में घुस जाता है.’
पर मेरे मन की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी, मैंने दादी से फिर पूछा था ‘पर दादी! मैं तो लापरवाह नहीं रहूंगा. मगर मेरा भाई या दोस्त लापरवाह हो गया और उसके कान में कानखजूरा घुस गया और उसका दिमाग खराब हो गया तो वह मुझे भी मार देगा.’
दादी बोली थी कि ‘हां ऐसा तो है. पर तुम्हें पहचानना होगा कि किस-किस के कान में कानखजूरा घुस गया. उन लोगों से भी तुम्हें बचना होगा.’
मेरी जिज्ञासा शान्त नहीं हुई तो मैंने पूछा ‘पर दादी! कैसे पता चलेगा कि किस-किस के कान में कानखजूरा घुस गया है?’
दादी बोली थी कि ‘जिसके कान में घुसता है, उसकी आंखों और हाव-भाव से पता चल जाता है.’

दादी की बातें सुनकर मेरी जिज्ञासाएं और अधिक बढ़ गई थीं. फिर एक दिन मेरी जिद पर दादी ने ढूंढ-ढांढ कर मुझे कानखजूरा भी दिखाया. सचमुच, कई-कई पैरों वाला, सरपट रेंगने वाला. देखने में छोटा, किन्तु अन्वेषी प्रवृत्ति का. वह खोज में था कि कहां घुसे!

एक दिन मैंने दादी से कानखजूरे से प्रभावित व्यक्तियों को भी दिखाने के लिए कहा तो दादी ने कुछ नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति दिखा दिए थे और चुपके से कान में कहा था कि ‘इनसे बच कर रहना.’ उनको देख कर मैंने मान लिया था कि ये कानखजूरे से ही प्रभावित हैं.

जब मैं मात्र सात साल का था तो दादी दिवंगत हो गई थीं. दादी के जाने के बाद कानखजूरों से बचने के अभियान में मैं अकेला रह गया था. उस समय मैंने मन में ठान लिया था कि मैं कभी लापरवाह नहीं रहूंगा और अपने लोगों को भी लापरवाह होने से बचाऊंगा. तब से कहीं भी जब कभी कानखजूरा दिखाई देता था तो मुझे अपनी दादी की बातें याद आ जातीं और मैं अपने मन में ठान लेता था कि लापरवाह नहीं रहना है.

जीवन में कई मौकों पर भिन्न-भिन्न किस्म के कानखजूरे मिलते रहे, पर मैंने उन्हें अपने कान में घुसने नहीं दिया. कानखजूरों से प्रभावित लोग भी मिले. उन्होंने मुझे मारने की कोशिशें भी की, किन्तु दादी की सीख ने मुझे लापरवाह होने से बचा लिया. आज मैं दादी के प्रति कृतज्ञ हूं कि उन्होंने समय पर मुझे खानखजूरों की पहचान करवा दी थी.

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