प्राग डायरी: नास्तिक शहर के गिरिजाघर



Prague Church 1200 प्राग डायरी: नास्तिक शहर के गिरिजाघर
पिछले हफ़्तों में कई चेक पत्रकारों, अध्येताओं, अनुवादकों ने मुझे बताया है कि प्राग में भले ही यूरोप की बेहतरीन चर्च हैं, चेक गणराज्य उत्तर कोरिया के बाद दूसरे नंबर का नास्तिक देश है. प्राग को (चर्च की) एक सौ बुर्जियों और मीनारों का शहर कहा जाता है. फिर यह नास्तिक कैसे होता गया? इसकी एक वजह है यहाँ फैला प्रोटेस्टेंट आन्दोलन जिसने कैथोलिक चर्च की नींव कमजोर कर दी. दूसरी, लम्बे साम्यवादी शासन का प्रभाव. लोगों ने साम्यवाद के सोवियत मॉडल को तो ठुकरा दिया, मार्क्सवादी विचार ने उन्हें संस्थागत चर्च की निस्सारता को समझा दिया.

चेक गणराज्य के धार्मिक स्वभाव की एक व्याख्या ब्रातिस्लावा की एक छात्रा ने दी जो इन दिनों प्राग में पढ़ाई कर रही हैं. ब्रातिस्लावा स्लोवाक गणराज्य की राजधानी है, प्राग से करीब सवा तीन सौ किलोमीटर दक्षिण में स्थित है. नब्बे के दशक में हुए बंटवारे से पहले चेक और स्लोवाक एक ही गणराज्य हुआ करते थे. वे छह महीने पहले उच्च अध्ययन के लिये ब्रातिस्लावा से प्राग आयी हैं. धर्म और धर्मशास्त्र पढ़ना चाहती थीं, लेकिन किसी अन्य विषय में दाखिला ले लिया.

हम दोनों प्राग कासल में घूम रहे हैं. मैं आकाश को थाम लेने की आकांक्षा से उठती जाती सेंट विट्स कथीड्रल की मीनारों को देख कहता हूँ, “कमाल का आर्किटेक्चर है. गोथिक शैली की ऐसी भव्य चर्च कहाँ मिलेगी.” मुझे मालूम है कि यह अतिरेक है, टॉप गियर डाल देना मुझे कभी सुहाता है. लेकिन बीसेक साल की ये लड़की मुझे कोई रियायत देने नहीं वाली. “अरे कहाँ! गोथिक देखना है तो इंग्लैंड जाइये. छोटे कस्बों में आपको महाकाय गोथिक गिरिजाघर मिलेंगे. सेंट विट्स सिर्फ़ प्राग के लिये है,” वे बोलीं, और जैसे कुछ याद आया, “लेकिन हाँ, आपको प्राग में बेहतरीन आर्ट नूवो के नमूने मिलेंगे.”

मुझे याद आया कि मेरे घर के पास कई हसीन इमारतें उन्नीसवीं सदी के अंत में जन्मे आर्ट नूवो या नयी कला के आंदोलन की गवाह हैं, जिनकी दीवारों को आप ठिठक कर देखे बगैर आगे नहीं बढ़ सकते.

इस कथीड्रल के ठीक पीछे एक सादादिल चर्च है. उसे अगर आप सूनी नहीं कहेंगे, तो बेनूर अवश्य करार देंगे. इस बार मेरे विशेषण से वे सहमत हैं. “हाँ, यह इटली के किसी गाँव की चर्च लगती है,” वे कहती हैं. कासल के भव्य शिल्प के बीच इस उदास चर्च को देखते हुए मैं सिसिली के किसी गाँव की कल्पना करने लगता हूँ.

कुछ देर बाद हम कासल के बाहर निकल आते हैं, और सहसा उनके लम्बे वाक्य शुरू हो जाते हैं, जिन्हें मैं एक भीगा हुआ मोनोलोग कहना चाहता हूँ. “ये देख रहे हैं आप? प्लेग कॉलम…,” वे एक ऊँचे स्तम्भ की ओर इशारा करती हैं जिस पर पीड़ित मनुष्यों को भोजन देते ईसाई संतों की मूर्तियाँ बनी हुई हैं, और सबसे ऊपर वर्जिन मेरी स्थित हैं. “जब प्लेग तबाही मचाकर थमता था, ईश्वर के प्रति आस्था व्यक्त करने के लिये ये कॉलम बनवाये जाते थे. आपको कई जगह दिख जायेंगे.”

वे चेक और स्लोवाक के फ़र्क को बतलाती हैं. “चेक आधुनिक था. यहाँ बौद्धिक गतिविधियाँ थीं. चर्च का महत्त्व नहीं था. स्लोवाक गरीब प्रदेश था, मुख्यतः कृषि पर आधारित. हम स्लोवाक लोगों के लिये आस्था बड़ा सहारा थी. मेरी दीक्षा कैथोलिक स्कूल में हुई थी. हमें कैथोलिक धर्म घोट कर पिलाया जाता था. आज सोचती हूँ कि कितनी बेसिरपैर की चीज़ें हमें पढ़ाई जाती थीं. एक तरफ़ चर्च में कहते थे, सबसे प्रेम करो. लेकिन उनका हल्का-सा भी विरोध आपने किया, वे आपको शैतान घोषित कर देते थे.”

उससे कुछ देर पहले मैं बता रहा था कि कुछ दिनों में बुदापेस्त जाने का सोच रहा हूँ. “आप हंगरी का कह रहे थे न? हंगरी ने करीब सौ साल पहले स्लोवाक पर आक्रमण किया था. हमारी धार्मिकता का आलम यह है कि आज भी अगर कोई स्लोवाक हंगरी से लौटकर आता है, सबसे पहले होली वाटर से अपने को पवित्र करता है,” वे बोलीं, लेकिन हँसते हुए तुरंत जोड़ा, “वैसे इतना भी नहीं है. हंगरी के खिलाफ़ होली वाटर के प्रयोग में नौटंकी अधिक है.”

फिर वे धीमे से बोलीं, “जब एक गणराज्य के दो इलाकों, चेक और स्लोवाक, में इतना गहरा अंतर होगा, बंटवारा होना ही था.”

मैंने अपने से कुछ नहीं जोड़ा. उन्हें बोलने दिया. कासल से परे ओल्ड टाउन पर नीली शाम आ गयी थी. मैं बुर्जियों के बीच अपने घर को टटोलने लगा. सेंट निकोलस चर्च की हरी मीनार से सटा हुआ मेरा घर. हम धीरे-धीरे नीचे उतरने लगे. नीचे उतरने के लिये कई सड़कें थीं. “नेरुदोवा से उतरते हैं…यह सड़क माला स्त्राना में मिल जायेगी,” मैंने कहा.

“नेरुदोवा?”

“हाँ, लेखक थे न, यान नेरुदा, उनके नाम पर है. उनका घर इसी सड़क पर है,” मैंने कहा.

“आपको प्राग के बारे में कितना कुछ पता है जो मैं नहीं जानती.”

हम नीचे उतरने लगे. उन्होंने एडिडास के भक सफ़ेद स्नीकर्स पहने हुए थे, चलते समय जरा भी आवाज नहीं.

सड़क पर बीयर के होर्डिंग लगे थे. मैं प्राग के निवासियों का अपनी बीयर के प्रति जुनून का ज़िक्र करने लगा. “आप तमाम ब्रांड उनके सामने रख दीजिये. उन्हें पिल्सनर के सिवाय और कुछ नहीं सूझता. बीयर के लिये ऐसी देश-भक्ति मैंने कहीं नहीं देखी,” मैंने कहा, यह उम्मीद करते हुए कि इस बार अतिरेक नहीं है.

लड़की को फिर एक सिरा मिल गया. वे अत्यंत चित्रात्मक भाषा में बताने लगीं कि कौन-सी बीयर गिलास में डालने पर किस तरह से फिसलती है. बीयर की कई ब्रांड के शब्द-चित्र बना दिए. “मेरी प्रिय है गिनीज़—बरसात की बूंदों की तरह कांच पर उतरती है,” उन्होंने उँगलियों से हवा में आकृति उकेर दी.

मैं हतप्रभ. स्थापत्य की शैलियाँ, कैथोलिक चर्च का इतिहास, यूरोपीय राष्ट्रों के आतंरिक संकट इत्यादि तक तो ठीक था. मैंने मान लिया था कि या तो ये विषय पाठ्यक्रम में रहे होंगे, या इन्हें जानने की उत्कंठा रही होगी. ज्ञान के विविध स्वरूपों के लिये अद्भुत उत्कंठा जिसे तमाम यूरोपीय युवा साझा करते हैं, जो यूरोप के विशिष्ट स्वभाव का अकाट्य प्रमाण है, जिसने यूरोप को रचा है, जो अमरीका में बहुत कम मात्रा में दिखाई देती है – और जिस पर एक पूरा निबंध लिखा जा सकता है.

इसलिए तमाम किस्म की बीयर के स्वाद की व्याख्या भी समझी जा सकती थी – लेकिन गिलास में बीयर फिसलने का बिम्ब? इस कदर बारीकी?

वे शायद मेरे कौतूहल को समझ गयीं.

“मैं ब्रातिस्लावा के एक बार में काम करती थी.”

(गद्य की विभिन्न विधाओं में लिख रहे लेखक-पत्रकार आशुतोष भारद्वाज इन दिनों प्राग के काफ़्का हाउस में राइटर-इन-रेजिडेंस हैं.)



Source link

x