लोकसभा चुनाव 2024: कांग्रेस के सीने पर अमेठी का जख्म
सोमवार 19 फरवरी को राहुल गांधी और स्मृति ईरानी दोनों अमेठी में थे. उस मौके पर स्मृति ईरानी ने कहा कि 2019 में राहुल ने अमेठी को छोड़ा था, आज अमेठी ने उन्हें छोड़ दिया है. उन्होंने यह भी कहा कि वे अपनी जीत को लेकर आश्वस्त हैं तो वायनाड जाए बिना अमेठी से (चुनाव) लड़कर दिखाएं. संभव है कि राहुल गांधी सामना करने को तैयार भी हो जाएं, पर वे वायनाड या किसी दूसरी ‘सेफ सीट’ के बगैर ऐसा नहीं करेंगे. संभव है परिवार का कोई सदस्य यहां से चुनाव लड़े.
राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा अमेठी से भी होकर गुज़री है. उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अजय राय का कहना है कि यहां के लोग रायबरेली और अमेठी से केवल परिवार के ही किसी सदस्य को देखना चाहते हैं. वे 2019 की गलती को सुधारना चाहते हैं. दूसरी ओर स्मृति ईरानी दुगने उत्साह के साथ मैदान में हैं. जिस दिन राहुल गांधी की यात्रा अमेठी पहुंची, उसी रोज उन्होंने भी अपना कार्यक्रम यहां रखा. वे चार दिन अमेठी में रहीं. यहां से चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी अपने नए संसदीय क्षेत्र वायनाड तो कई बार गए हैं, लेकिन उन्होंने अमेठी आना छोड़ दिया. दूसरी तरफ भाजपा ने तेजी से अपने संगठन का विस्तार किया है. स्मृति ईरानी अपने कार्यकर्ताओं के संपर्क में लगातार बनी रहती हैं.
मेनका की बगावत
मार्च 1982 की कोई तारीख थीं, जो मुझे याद नहीं आ रही है. लखनऊ में क़ैसरबाग स्थित सफेद बारादरी के बाहर काफी भीड़ जमा थी. खबर थी कि इंदिरा गांधी के परिवार से बगावत करके मेनका गांधी वहां आने वाली हैं. बैठक संजय गांधी के विश्वस्त मित्र अकबर अहमद ‘डंपी’ ने बुलाई थी. हालांकि, भीतर की खबरें बाहर आ रही थीं, पर परिवार में टूट पूरी तरह नहीं हुई थी. इंदिरा गांधी की हिदायत के बावजूद मेनका गांधी बैठक में शामिल हुईं. लड़ाई खुलकर बाहर आ गई. लखनऊ से वापसी के बाद मेनका गांधी को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर 1, सफदरजंग रोड को छोड़ना पड़ा. इसके बाद उन्होंने संजय विचार मंच नाम से पार्टी की स्थापना की, लेकिन वह सफल नहीं हुई. उन्होंने 1984 के लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी के खिलाफ अमेठी से निर्दलीय चुनाव लड़ा, लेकिन हार गईं.1988 में, वे जनता दल में शामिल हो गईं.
एक साल बाद 1989 में जनता दल के टिकट पर उन्होंने पीलीभीत से चुनाव लड़ा और संसद पहुंची. इसके बाद 1996, 98 और 99 में वे निर्दलीय के रूप में जीतीं. बीजेपी के साथ उनका सफ़र 2004 में शुरू हुआ. उसी साल बीजेपी की टिकट पर पीलीभीत से चुनाव जीता. बाद में 2009 में वरुण गांधी ने भी इसी सीट से बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीते.
बगावत के बीज तभी पड़ गए थे, जब संजय गांधी के निधन के कारण खाली हुई अमेठी की सीट पर इंदिरा गांधी ने बजाय मेनका के राजीव गांधी को कांग्रेस का प्रत्याशी बनाना उचित समझा. मनमुटाव पहले से भी रहा होगा. हिस्पानी लेखक जेवियर मोरो ने नाटकीय जीवनी के रूप में लिखे गए उपन्यास ‘रेड साड़ी’ में उन घटनाओं को लिखा है, जो उन दिनों भीतर से बाहर निकले किस्सों का लेखा-जोखा है. इस किताब के भारत में वितरण पर रोक लगाने की कोशिशें भी हुईं, पर अंततः 2015 में यह भारत में रिलीज़ हो गई.
मेनका गांधी ने परिवार छोड़ा और संजय विचार मंच के नाम से अलग पार्टी बनाई. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में मेनका गांधी ने राजीव गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा भी और वे परास्त हुईं. अमेठी पारंपरिक रूप से कांग्रेस की और खासतौर से नेहरू-गांधी परिवार की सीट रही है. 1977 में जब पहली बार संजय गांधी इस सीट से चुनाव लड़े, तब समझा गया था कि यह अपेक्षाकृत आसान सीट है, पर ‘जनता लहर’ में संजय हार गए.
पारिवारिक मुकाबला
जून 1980 में संजय गांधी के निधन के बाद राजीव गांधी ने 1981 में इस सीट से उप चुनाव लड़ा और जीते. फिर 1984, 89 और 91 में यहां से जीते. यह इलाका आर्थिक रूप से अविकसित और काफी पिछड़ा हुआ था. नेहरू-गांधी परिवार के आगमन के साथ इस इलाके में ट्यूबवेल, सड़कें और उद्योग भी आए. इस चुनाव क्षेत्र में अतीत में बड़े रोचक मुकाबले देखे हैं. खासतौर से 1984 और 1989 के चुनाव रोचक थे और रोमांचक भी. 1984 में राजीव का मुकाबला मेनका से हुआ.
इस पारिवारिक लड़ाई में प्रचार के दौरान बड़े रोचक क्षण देखने को मिले. संजय गांधी के निधन के बाद माना जा रहा था कि संभवतः मेनका गांधी वहां से उपचुनाव लड़ें, पर ऐसा नहीं हुआ. इंदिरा गांधी ने राजीव गांधी को उतारा. इस दौरान मेनका और इंदिरा गांधी के रिश्ते बिगड़ते गए और 1984 में वे राजीव गांधी के खिलाफ चुनाव में उतरीं. उसके बाद 1989 में राजीव का मुकाबला महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी से हुआ. गांधी और नेहरू के नाती-पोतों का वह मुकाबला भी कम रोचक नहीं था.
राजीव गांधी के निधन के बाद 1991 और 1996 में पारिवारिक मित्र सतीश शर्मा यहां से जीते. सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों को राजनीति में लाने का श्रेय इस सीट को है. 1999 में सोनिया गांधी और 2004 में राहुल गांधी यहां से जीते. इसके बाद 2009 और 2014 में भी उन्हें यहां से विजय मिली.
केवल दो बार हार
नेहरू-गांधी परिवार की इस सीट पर केवल दो बार ही हार हुई है. पहली बार 1977 में जब जनता पार्टी के रवींद्र प्रताप सिंह ने संजय गांधी को हराया और दूसरी बार 2019 में जब राहुल गांधी की हार हुई. यहां से जीतने वालों के साथ-साथ हारने वालों में भी कई प्रतिष्ठित नाम हैं. राहुल गांधी और संजय गांधी के अलावा यहां से मेनका गांधी, राजमोहन गांधी, स्मृति ईरानी और राम विलास वेदांती भी हार का सामना कर चुके हैं.
यों तो अमेठी के ज्यादातर मुकाबले रोमांचक और नाटकीय रहे हैं, 1984, 1989, 2004 और 2019 के मुकाबलों को खासतौर से याद किया जाएगा. 1984 में राजीव गांधी के मुकाबले जब मेनका गांधी ने चुनाव लड़ने की घोषणा की, तो राष्ट्रीय मीडिया की निगाहों में यह स्टार चुनाव-क्षेत्र बन गया. अमेठी से मेनका के पति संजय गांधी 1980 में सांसद चुने गए थे. संजय गांधी एक तरह से इंदिरा गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में तैयार हो रहे थे. उनके निधन के एक महीने पहले ही उन्हें पार्टी का महासचिव बनाया गया था.
1984 में मेनका को उम्मीद थी कि उन्हें अमेठी की जनता की हमदर्दी मिलेगी. उनकी सभाओं में भारी भीड़ उमड़ती थी, लेकिन उन्हें उस अनुपात में वोट नहीं मिले. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति की लहर में अमेठी की जनता ने राजीव गांधी को चुना. राजीव गांधी को 3,64,041 यानी कुल वोटों के 83.67 प्रतिशत वोट मिले और मेनका को केवल 50,163 यानी 11.50 प्रतिशत.
गांधी बनाम गांधी
1989 में अमेठी में ‘असली गांधी’ और ‘अपने गांधी’ के बीच मुकाबला था. राजीव गांधी के सामने महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी खड़े थे. बसपा की ओर से कांशीराम इस मुकाबले में उतरे थे. राजीव गांधी को कुल 2,71,407 यानी 67.43 प्रतिशत वोट मिले, जबकि राजमोहन गांधी को 69,269 यानी कि 17.21 प्रतिशत. कांशी राम को 25,400 यानी कि 6.31 प्रतिशत वोट मिले. उस चुनाव में हिंसा भी काफी हुई थी.
संजय गांधी के निधन के समय, राजीव गांधी लंदन में थे. वे फौरन वापस आए और उसके बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति में आने का फैसला किया. 4 मई, 1981 को इंदिरा गांधी ने कांग्रेस महासभा की एक बैठक में राजीव गांधी के नाम का प्रस्ताव अमेठी से प्रत्याशी के रूप में किया. उनके मुकाबले विरोधी दलों ने शरद यादव को प्रत्याशी बनाया. राजीव ने शरद यादव को दो लाख से ज्यादा वोटों से हराया. इस तरह राजीव गांधी का सांसद के रूप में जीवन शुरू हुआ. वे इस सीट से 1984, 1989 और 1991 में भी जीते.
मई 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद अमेठी की सीट फिर खाली हो गई और कांग्रेस पार्टी ने राजीव के मित्र सतीश शर्मा को उप चुनाव में प्रत्याशी बनाया. वे 1996 में भी जीते, पर दो साल बाद 1998 के चुनाव में बीजेपी के संजय सिंह ने उन्हें परास्त कर दिया. 1977 के बाद वह दूसरा मौका था, जब इस सीट से कांग्रेस प्रत्याशी की हार हुई थी.
सोनिया और राहुल
इस दौरान सोनिया गांधी ने भी राजनीति में सक्रिय होने का फैसला कर लिया और 1999 का चुनाव उन्होंने अमेठी से लड़ा. उन्होंने संजय सिंह को करीब तीन लाख वोटों से हराया. इसके बाद 2004 में सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को राजनीति में लाने के लिए खुद रायबरेली से चुनाव लड़ने का फैसला किया और अमेठी की सीट राहुल गांधी के लिए छोड़ दी.
2004 के चुनाव में राहुल गांधी के मुकाबले बीजेपी ने मंदिर आंदोलन के एक नेता राम विलास वेदांती को उतारा, जो इसके पहले मछलीशहर और प्रतापगढ़ से दो बार सांसद रह चुके थे. राहुल गांधी को भारी विजय मिली और वेदांती इस चुनाव में तीसरे स्थान पर रहे. उनसे ज्यादा वोट बसपा के चंद्र प्रकाश मिश्रा को मिले. 2009 के चुनाव में भी राहुल गांधी को आसान जीत मिली. उस चुनाव में भी बसपा के प्रत्याशी आशीष शुक्ला को बीजेपी के प्रत्याशी प्रदीप कुमार सिंह से ज्यादा वोट मिले.
स्मृति ईरानी का प्रवेश
2014 के चुनाव में इस क्षेत्र में बीजेपी की स्मृति ईरानी का प्रवेश हुआ. उस चुनाव से इस इलाके में कांग्रेस के पराभव के लक्षण नज़र आने लगे. हालांकि राहुल गांधी को वहां से विजय मिली, पर उनके वोटों में भारी गिरावट आ गई. 2009 में जहां उन्हें कुल वोटों के 71.78 फीसदी वोट मिले थे, वहीं 2014 में यह मत प्रतिशत घटकर 46.71 हो गया. स्मृति ईरानी हालांकि 1.07 लाख वोट से हारीं, पर वह अंतर 2009 के 3.70 लाख वोटों के अंतर की तुलना में काफी कम था. इतना ही नहीं 2009 में तीसरे स्थान पर रहे बीजेपी के प्रत्याशी प्रदीप कुमार सिंह को मिले 5.81 प्रतिशत की तुलना में स्मृति ईरानी को 34.38 प्रतिशत वोट मिले. अब बीजेपी वहां तीसरे स्थान से दूसरे स्थान पर आ गई थी. राहुल गांधी को जीत जरूर मिली, पर यह ज़ाहिर होने लगा कि नेहरू-गांधी परिवार का जादू इस इलाके से खत्म हो रहा है.
संभवतः 2019 में राहुल गांधी के चुनाव-संचालकों को हार का खतरा दिखाई पड़ने लगा था, इसीलिए उन्होंने वायनाड की सीट से उन्हें लड़ाने का फैसला किया. अमेठी से राहुल की हार का प्रतीकात्मक अर्थ था. वे उस सीट से हारे, जो नेहरू-गांधी परिवार की परंपरागत सीट थी. जिस चुनाव में वे हारे उस समय पार्टी के अध्यक्ष भी राहुल गांधी थे. तीसरे वे उस चुनाव में हारे, जिसमें समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का समर्थन भी उन्हें हासिल था.
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Tags: Loksabha Elections
FIRST PUBLISHED : February 28, 2024, 17:27 IST