BHU पीएचडी परिणाम आने के बाद प्रवेश प्रक्रिया पर प्रश्न उठे,

विगत दिन बीएचयू के हिंदी विभाग के पीएचडी प्रवेश प्रक्रिया का परिणाम कई दुश्वारियों के बाद अंततः जारी हुआ। परिणाम आने के बाद प्रवेश प्रक्रिया पर कोई प्रश्न न उठे,अधिकतर हिंदी विभाग इसके कायल नहीं होते हैं। परिणाम आता है, विरोध शुरू हो जाता है। बहुत बार विरोध को “अगली बार जरूर हो जायेगा” का प्रलोभन देकर पब्लिक डोमेन में आने से पहले ही दबा दिया जाता है। कुछ का विरोध मुँह से निकलता ही नहीं है।
कल से बीएचयू के कई साथियों का पोस्ट देख रहा हूँ। लगभग हर वर्ष देखता हूँ। इन साथियों ने पीएचडी की चयन प्रक्रिया में धांधली का आरोप लगाया है। इनका कहना है कि उनसे कम मेरिट रखने वाले विद्यार्थियों को साक्षात्कार में अधिक अंक देकर उनका चयन किया गया है।
मैं पहले भी कहता रहा हूँ कि मेरिट और साक्षात्कार उच्च शिक्षा में प्रवेश के मानक नहीं होने चाहिए। देश भर के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में समान अंक देने की व्यवस्था नहीं हैं। किसी जगह औसत छात्रों को 65-70℅ अंक दिए जाते हैं,वहीं किसी जगह उस विषय का सर्वश्रेष्ठ छात्र 60-65% अंको तक पहुँचता है।दूसरी तरफ 10वीं और 10+2 में देश के विभिन्न भागों में अंको का किस तरह असमान वितरण पाया जाता है, कहने की जरूरत नहीं जान पड़ती। कई जगहों पर धड़ल्ले से नकल मारकर तो कहीं पावर-पोजीशन का इस्तेमाल करके अंक प्राप्त किये जाते हैं। अतः एकेडमिक मेरिट के आधार पर चयन मुझे बहुत अन्यायपूर्ण व्यवस्था लगती है।
प्रवेश प्रक्रिया का दूसरा आधार साक्षात्कार है जिसमें बेइंतहा मनमानी और भेदभाव होता है। इंटरव्यू एक बंद कमरे में होता हैं, अभ्यर्थी ने क्या बताया, नहीं बताया, यह केवल वह और पैनल में बैठे 4-5 लोग ही जानते हैं। इसकी वीडियो रिकॉर्डिंग नहीं होती है, कहीं होती भी होगी तो वह कभी सार्वजनिक नहीं होती है। परीक्षकों की आपसी सहमति रहती है तो आपको चयन होने लायक अंक देते हैं वरना कम अंक देते हैं। कुछ नाम पहले से विभिन्न कारणों की वजह से तय हो जाते हैं, उसके बाद साक्षात्कार में उनको इतना अंक दे दिया जाता है कि दोनों अंकों की मेरिट मिलाकर वे चयन सूची में शामिल हो जाएं।
अतः सवाल उठता है कि कैसी प्रक्रिया अपनायी जाए ताकि कोई छात्र भेदभाव का आरोप न लगा सके। इसका सीधा जवाब है कि प्रवेश प्रक्रिया को पारदर्शी बनाइए। यूजीसी नेट आपके सामने मॉडल है। वस्तुनिष्ठ पारदर्शी प्रवेश परीक्षा लीजिए। उसके मेरिट के आधार पर छात्रों का चयन कर लीजिए।
अब सवाल उठता है कि बिल्ली के गले में घंटी बाँधे कौन ? नैतिकता तो कहती है कि विश्वविद्यालय के शिक्षकों को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए। लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता है, कारण यह उनके पास एक तरह मौका होता है, कल्याणकारी होने का, भाग्य-विधाता बनने का, इसलिए वे ऐसी शक्ति को हाथ से भला क्यों जाने दें? न्यायप्रिय बातें करना और न्यायप्रिय होना दोनों अलग चीजें हैं।
इस सूरत-ए-हाल में विद्यार्थियों को परिवर्तनगामी बिगूल फूंकना होगा और लड़कर पारदर्शी प्रक्रिया बहाल करानी होगी। उसके बिना हमेशा किसी न किसी के साथ अन्याय होता रहेगा। कल आपका हो जाएगा, दूसरे का नहीं होगा। व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि अगर आपका चयन नहीं हो तो आपको लगे कि अपनी कमी की वजह से नहीं हुआ है। हमारे साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं हुआ है।

रिजल्ट आने के बाद दुखी होने से बेहतर है कि भेदभावरहित पारदर्शी प्रवेश प्रक्रिया बहाल करने के लिए लड़िए। आने वाली पीढ़ियों के लिए लड़िए। आपको बहुत कुछ बिना श्रम और प्रयास के मिला है, वह हमारी पहले की पीढ़ी के संघर्ष के कारण संभव हो पाया है।

दिनेश कबीर की वॉल से

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