Birsa Munda Jayanti How did Birsa Munda become known as the God of Jharkhand Read his full story


 Birsa Munda Jayanti: बिरसा मुंडा ने काफी कम उम्र में ही दुनिया को अलविदा कह दिया था. लेकिन इतने कम उम्र में ही उनके शौर्य और पराक्रम की बदौलत उनको झारखंड समेत पूरे देश में भगवान का दर्जा दिया जाता है. उन्होंने काफी छोटी उम्र में ही जनजातियों के अधिकारों और देश की आजादी में अतुलनीय भूमिका निभाई थी. चलिए आज हम आपको बताते हैं कि छोटे-से गांव में भेड़ चराने वाले बिरसा मुंडा कैसे कहलाए झारखंड के भगवान…

भेड़ चराने से लेकर क्रांति तक का सफर 
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के छोटे से गांव उलिहातू में एक सामान्य परिवार में हुआ था. बिरसा मुंडा के माता-पिता नागपुर पठार क्षेत्र की मुंडा जनजाति से आते थे और परिवार की स्थिति काफी खराब थी. इनके माता-पिता दोनों दूसरे गांव में मजदूरी का काम करते थे और इनके देखभाल के लिए इनको मामा के पास भेज दिया था. वहां इन्होंने भेड़ चराने के साथ गणित और अक्षर ज्ञान की शिक्षा प्राप्त की.

कुछ समय के बाद इनका दाखिला एक मिशनरी स्कूल में हुआ. बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार इनका परिवार ईसाई धर्म स्वीकार कर चुका था और इनके पिता एक धर्म प्रचारक भी बन गए थे. बिरसा मुंडा को भी ईसाई धर्म में शामिल कर लिया गया और इनका नाम रखा गया दाऊद मुंडा. कुछ समय बाद इनका संपर्क एक ईसाई धर्म प्रचारक से हुई और बात-बात में उन्होंने बिरसा से कुछ ऐसा कहा जो इनको बुरा लगा. इसके बाद बिरसा ने वापस आदिवासी तौर तरीकों में लौटने का मन बनाया और उन्होंने मुंडा समुदाय के लोगों को संगठित करके जनजाति समाज में सुधारों का काम किया.

रिपोर्ट के अनुसार इन्होंने राजनीतिक शोषण के विरुद्ध लोगों को जागरूक किया. इस तरह साल 1894 में उन्होंने पहली बार आंदोलन में कदम रखा

आदिवासी अधिकारों के लिए शुरू किया आंदोलन
साल 1894 में बिरसा मुंडा सरदार आंदोलन में शामिल हुए जिसका उद्देश्य आदिवासियों की ज़मीन और वन संबंधी अधिकारों की मांग करना था. आंदोलन के दौरान उनको लगा कि इस आंदोलन को न तो ईसाईयों की तरफ से समर्थन किया जा रहा है और न ही जनजातियों की तरफ से. इससे उन्होंने एक नए आध्यात्मिक संगठन ‘बिरसाइत’ को शुरू किया. इसका मुख्य काम जनजातियों को जागरूक करना था.

अबुआ दिशोम अबुआ राज का
‘अबुआ दिशोम’ यानी हमारा देश और ‘अबुआ राज’ यानी हमारा राज नारे का बिरसा मुंडा ने आजादी के शंखनाद की तरह इस्तेमाल किया. यह नारा एक तरह से आदिवासियों की मांग का नारा बन गया था. बिरसा मुंडा का संदेश था कि आदिवासियों को बाहरी शासन या किसी भी प्रकार के शोषण को स्वीकार नहीं करना चाहिए, बल्कि अपने ही शासन के तहत स्वतंत्र और स्वाभिमानी जीवन जीना चाहिए.

कैसे बने भगवान
आज बिरसा मुंडा को न सिर्फ झारखंड बल्कि देश के कई हिस्सों में भगवान का दर्जा दिया जाता है. बीबीसी के एक रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने बिरसाइत धर्म की स्थापना की. इसमें पहली बार उनके द्वारा 12 शिष्यों को इस धर्म के प्रचार की जिम्मेदारी दी गई. इस दौरान उन्होंने अपने प्रमुख शिष्य सोमा मुंडा को धर्म-पुस्तक सौंपी. इस तरह मीडिया रिपोर्ट में बताया जाता है कि उन्होंने साल 1894-95 के बीच अपने बिरसाइत धर्म की स्थापना की थी. आज बिरसा को लाखों लोग भगवान की तरह मानते हैं और उनके इस धर्म को मानने वालों की संख्या हजारों में होगी. यह धर्म खूंटी, सिमडेगा और चाईबासा ज़िले में विशेष रूप से देखने को मिलता है.

जनजातियों के महानायक 
आज बिरसा मुंडा को आदिवासियों के महानायक के रूप में याद किया जाता है, एक ऐसा महानायक जिसने अपने क्रांति से आदिवासियों को उनके अधिकार और उनमें सुधार लाने लिए संघर्ष किया. जब पूरा आदिवासी समाज ब्रिटिश शासकों ,जमींदारों, और जागीरदारों  शोषण के तले दबा हुआ था, उस समय उन्होंने इस पूरे समाज को उठाने और एक नई जिंदगी देने का काम किया था.

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