Explainer: आधे वक्त में मंगल पहुंचाएगी नई तकनीक, 2027 तक नासा कर लेगा तैयार, जानिए कैसे काम करेगी ये


मंगल ग्रह पर जाना आसान नहीं है. यहां पर खास समय पर पृथ्वी से निकलना होगा जब वह मंगल ग्रह के पास आने वाली होगी. ऐसा समय कुछ हफ्तों के लिए दो साल में एक बार आता है. इसमें भी अगर हम आज की तकनीक का इस्तेमाल करें तो मंगल पर  पहुंचने में 7 से 8 महीनों का वक्त लगेगा. पर वैज्ञानिक इससे भी जल्दी वहां पहुंचने के उपाय तलाश रहे हैं. इसके लिए बहुत सारी ऊर्जा की जरूरत होगी और अगर ऐसा ईंधन मिल भी गया तो उसकी मात्रा वाहन का भार बढ़ा देगी, जिससे ईंधन की जरूरत और बढ़ जाएगी. इसलिए वैज्ञानिक जगत इस दिशा में बहुत ही गंभीरता से रिसर्च कर रहे हैं. अमेरिकी स्पेस एंजेस, नासा और अमेरिकी रक्षा विभाग की एजेंसी डार्पा मिल कर नई न्यूक्लियर थर्मल प्रपल्शन (एनटीपी) तकनीक पर काम कर रहे हैं जिससे मंगल पर मानव अभियान तेजी से पहुंच सकें. उम्मीद की जा रही है कि इस तकनीक से मंगल ग्रह पर जाने वाला समय आधा हो जाएगा.

कौन सी तकनीक का होगा इस्तेमाल
इस तकनीक में न्यूक्लियर फिशन या नाभकीय विखंडन का उपयोग किया जाएगा. उम्मीद की जा रही है कि साल 2027 तक इसका प्रदर्शन किया जा सकता है. फिलहाल रिसर्च में इसकी कारगरता, सुरक्षा, आदि पर ध्यान दिया जा रहा है. इस तकनीक में नाभकीय विखंडन से निकलने वाली प्रचंड ऊर्जा का इस्तेमाल किया जाएगा जिसमें एक न्यूट्रॉन किसी परमाणु को तोड़ देता है.

डिजाइन और परीक्षण की चुनौती
इस तकनीक से दुनिया मे बिजली उत्पादन के साथ कई परमाणु पनडुब्बियां भी चलाई जाती हैं. उम्मीद की जा रही है कि इससे रॉकेट ज्यादा तेज और शक्तिशाली हो जाएंगे. जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में न्यूक्लियर इंजिनियरिंग के एसोसिएट प्रोफेसर डैन  कोटल्यर ऐसे रिसर्च ग्रुप से जुड़े हैं जो एनटीपी सिस्टम्स की डिजाइन और उन्हें बेहतर बनाने के लिए मॉडल्स और सिम्यूलेशन तैयार करता है. द कन्वरसेशन्स में प्रकाशित लेख के जरिए उन्होंने इसी ग्रुप की भूमिका को बताया है.

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नासा की तकनीक साल 2027 तक रियल टाइम टेस्ट के लिए तैयार हो जाएगी. (प्रतीकात्मक तस्वीर)

परम्परागत सिस्टम से बेहतर
एनटीपी सिस्टम परम्परागत सिस्टम से काफी बेहतर उम्मीदें देता है. इसमें ईंधन की साथ अतिरिक्त ऑक्सीजन की जरूरत नहीं होती है. ना ही में इसमें किसी तरह के इग्नीशन सिस्टम की जरूरत होती है. ये नाभकीय विखंडन प्रतिक्रिया से चलते हैं जिससे प्रोपेलैंट गर्म होता है और नोजल से तेजी से निकल कर एक बल या धक्का पैदा करता है.

क्या है इसके पीछे की साइंस
जहां परमाणु ऊर्जा सयंत्र में यूरेनियम 235 एक न्यूट्रॉन से टकराता है जिससे यूरेनियम हलके नाभकीय भार वाले पदार्थों में बदलता है. साथ ही बहुत सारी ऊर्जा निकलती है और कुछ महीन कण भी पैदा होते हैं. ये सारी प्रतिक्रिया लाइट वाटर रिएक्टर में होती है. जिससे जनरेटर टर्बाइन को चलाता है और बिजली पैदा होती है. लेकिन एनटीपी में यह सब थोड़ा सा अलग होता है.

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अभी मंगल तक जाने आने में 400 से 450 दिन लगते हैं जो बहुत ही ज्यादा समय माना जा रहा है. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Wikimedia Commons)

ज्यादा शक्ति की जरूरत
एनटीपी सिस्टम्स के ईंधन में ज्यादा यूरेनियम 235 होता है. ये अधिक तापमान पर काम करते हैं. इनका शक्ति घनत्व परंपरागत परमाणु ऊर्जा संयंत्र से 10 गुना अधिक होती है. ऐसे में वे दोगुनी गति से चल सकते हैं. नासा और डार्पा डेमोन्स्ट्रेसन रॉकेट फॉर एजाइल सिस्लूनार ऑपरेशन्स (डारको)  कार्यक्रम पर काम कर रहे हैं जिसमें हाई एसे लो एनरिच्ड यूरेनियम (HALEU) ईंधन का इस्तेमाल होगा. जिसमें बहुत ही एनरिच या संवर्धित यूरेनियम को ऐसे ईंधन में बदला जाएगा. लेकिन इसमें ईंधन ज्यादा लगता है और यह इंजन को भारी कर देगा.

कई तरह की चुनौतियां
इंजन को चालू करने, उसे बंद करने आदि चीजों से निपटने लायक होना होगा. जिसके लिए तेजी से भारी तापमान और दबाव में बदलाव होंगे. इसके लिए शुरुआत मॉडल्स और सिम्यूलेशन से होगी. नए इंजन के साथ कम करने वाले सॉफ्टवेयर टूल्स भी अलग से बनाने होंगे.

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कोटल्यर का ग्रुप एनटीपी रिएक्ट्रस को मॉडल्स के जरिए डिजाइन और उनका विश्लेषण करेगा. वह इन जटिल रिएक्टर सिस्टम का मॉडल बना कर देखेगा कि तापमान आदि के बदलाव कैसे रिएक्टर सिस्टम और उसकी सुरक्षा पर असर डालेंगे. कोटल्यर को उम्मीद है कि उनकी टीम की रिसर्च जल्दी ही अच्छे नतीजे देगी.

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