हिंदी के पाठ्यक्रमों में कबीर – प्रो. चन्दन कुमार
किसी भी विद्वान की व्याख्या को अंतिम मान लेना कि यही कबीर है, भारतीय बुद्धि की अनेकांतता को प्रश्नचिन्हित करना है – प्रो. चन्दन कुमार
हिंदी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित ऑनलाइन व्याख्यानमाला में अतिथि वक्ता के रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के आचार्य एवं भारतीय संस्कृति मंत्रालय के सलाहकार समिति के सदस्य आदरणीय प्रो. चन्दन कुमार सर का “हिंदी के पाठ्यक्रमों में कबीर” विषय पर व्याख्यान हुआ।
अपने वक्तव्य का प्रारंभ करते हुए उन्होंने कहा कि ‘हिंदी के पाठ्यक्रमों के कबीर’ और ‘हिंदी के पाठ्यक्रमों में कबीर’ को जानना अपनी ज्ञान परंपरा से संवाद करना भी है। हिंदी विभागों के कुछ सनातन प्रश्न (जो पीढ़ी दर पीढ़ी पाठ्यक्रमों में चलते रहते हैं।) होते हैं जिसमें एक प्रश्न यह है कि कबीर कवि है या समाज सुधारक? दूसरा प्रश्न यह है कि कबीर भक्त है या समाज के लोक गायक है? किसी कवि को किसी सांचे में बांधने से बेहतर है कि वह किन अनुभवों को संप्रेषित करता है और उसे कैसे समझना चाहिए? उन्होंने कहा कि यह प्रश्न वामपंथ या दक्षिण पंथ का नहीं है। यह विश्व दृष्टि का प्रश्न है।
आगे उन्होंने प्रश्न किया कि कबीर को कैसे समझा जाए? स्वयं जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि कबीर को समझना ‘एंटी वेस्ट’ समझना भी नहीं है। यह पश्चिम की बौद्धिकता के खिलाफ कोई प्राच्य बौद्धिकता खड़ा करने का प्रश्न भी नहीं है। स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि जिन महानुभव ने कबीर पर काम किया उन्हें गलत या सही ठहराना उद्देश्य नहीं है। क्योंकि जिन्होंने जैसा समझा वह उनकी विश्व दृष्टि रही होगी और उनका उसके प्रति सम्मान का भाव है। उनके अनुसार “विभिन्न विश्वदृष्टिओं को स्वीकार करना ही हिंदू होना है।” आगे वे राजेश जी द्वारा प्रस्तावित भूमिका का (जिसमें विश्व के सभी भागों के उदार विचार हमें प्राप्त हो।) का जिक्र करते है-
“एकम सत विप्रा बहुधा वदंति।”
आगे उन्होंने कबीर की विश्वविद्यालयी स्थापना के परिप्रेक्ष्य में कुछ विचारणीय बिंदु प्रस्तावित करते हुए कहा कि हिंदी साहित्य के मध्यकाल के प्रमाणिक पाठों पर ध्यान दें तो सभी भक्त कवियों (सूर, मीरा, तुलसी या कबीर) के यहाँ राग का उल्लेख हुआ है। आज हमें मध्यकाल की जो रचनाएँ कंठाग्रह है उसका कारण सांगतिक संबंध प्रस्तावना है। मध्यकाल में गेय छंदों की रचनाएँ मिलती है। यह गेयता ही उन्हें प्रोक्त, संवादनीय, वाचिक ज्ञान परंपरा का अंग एवं टिकाऊ बनाती है। गायन की विविध शैलियों में कबीर की एक सर्वमान्य उपस्थिति रही है इसका कारण यह है कि पूर्वांचल के गांव में आज भी कबीर वाणी लोगों के जबान पर है। ‘श्यामसुंदर दास’ द्वारा संपादित ‘कबीर ग्रंथावली’ का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि उसमें राग-ललित, राग-बसंत, राग-आसावरी, राग-सोरठा, राग-केदार जैसे रागों का उल्लेख मिलता है। अर्थात कबीर रागसिद्ध थे। रागसिद्ध अर्थात् संगीत की परंपरा सिद्ध थी। कबीर के नाम पर हिंदी समाज में जो पाठ प्रस्तावित हुए वे उन लोगों द्वारा प्रस्तावित किए गए जो संगीत की साधना में लीन थे।
भारतीय संगीत के इतिहास पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय संगीत परंपरा का एक बड़ा हिस्सा मठ और मंदिरों की देन है। यहाँ यह अवधारणा खंडित होती दिखाई देती है कि जब आप कबीर के माध्यम से मंदिर और मठों के विरोध में तर्क प्रस्तावित करते हैं-
“बोली हमरी पूरब की, हमे लखे नहीं कोय।
हमके तो सोई लखे, धुर पूरब का होय।”
कबीर के विभिन्न विश्वविद्यालयी पाठों में ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी’ के पाठ का उल्लेख करते हुए प्रो. चंदन कुमार ने कहा कि द्विवेदी जी के अनुसार ‘कबीर’ के पाठ में पूरब के शब्दों का प्रयोग उनकी संगीतात्मकता में वृद्धि करता है। यह संगीतात्मकता ही उनके लोकप्रिय होने का कारण है। कबीर के रचना संसार में एक बड़ा हिस्सा भक्ति और योग संबंधी रचनाओं का है। हिंदी साहित्य और हिंदी के पाठ्यक्रमों में जिस कबीर को प्रस्तावित किया गया इसमें भक्ति और योग को न्यून बनाता हुआ पाठ्यक्रम है। हजारी प्रसाद द्विवेदी कृत ‘कबीर’ को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि उसके पृ. 171 पर बहुत सारी ऐसी बातें कहीं जो समाज के सुधार में मददगार साबित हो सकती है। किंतु इससे उन्हें समाज सुधारक कहना उचित नहीं है। वह इला, पिंगला, अनहद, योग और अध्यात्म की अवधारणा है। कबीर का समय एक बहुत बड़े भक्ति भाव का है और यह भक्ति भाव जो कालांतर में भक्ति आंदोलन में स्थापित हुआ उसकी केंद्रीयता में बनता है। कबीर की संपूर्ण रचनाओं में अनहद नाद की एक बात उठती है साहित्य में कबीर का जो मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन हुआ वह मूलतः उनके कुछ पदों व एवं दोहों के आधार पर हुआ। जो रचनाएँ अध्यात्म एवं भक्ति केंद्रित है उन पर बातचीत कम हुई है ईश्वर के स्वरूप पर विवाद हो सकता है किंतु आस्था पर विवाद नहीं हो सकता। ईश्वर है। परम तत्व है। ईश्वर की एक अवधारणा और नियता की अवधारणा बार-बार कबीर के यहाँ मिलती है। भक्ति आंदोलन की शुरुआत संवेदना से हुई और आचार्यों ने उन्हें सिद्धांत बनाया बाद में कबीर ने उसे संवेदना में बदला।
आगे ‘मैनेजर पांडे’ का उल्लेख करते हुए प्रो. चंदन कुमार ने कहा कि मैनेजर पांडेय के अनुसार ‘कबीर का पूरा टेक्स्ट पढ़े तो उसमें जीवन और समाज के बारे में एक खास किस्म की अवधारणा है, अनुरोध है, जो वैष्णवता की अवधारणा को पुष्ट करता है। वैष्णवता में अहिंसा की अवधारणा है।’ आगे माता प्रसाद गुप्त कृत कबीर ग्रंथावली का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि उसमें वाक्य है-
“बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल
जो बकरी को खात है, तिनका कौन हवाल”
यह वैष्णव होना है। हिंदू होना है। पाप और पुण्य, सत्य और असत्य, हिंसा और अहिंसा, सात्विकता और सदाचरण और सहजता और असहजता की अवधारणापरक तत्व की नजर में अपने कार्यों के मूल्यांकन होते रहने का भाव या अनुशासन की एक वैष्णव व्यवस्था है।
आगे प्रो. चंदन कुमार ने भक्तिकाल के शुभचिंतक और विद्वान आदरणीय ‘कृष्णगोपाल जी’ की पुस्तक ‘भारत की संत परंपरा और सामाजिक समरसता’ का उल्लेख करते हुए कहा कि इसके आत्मतत्व में जो तथ्य उद्धृत है वह है- हमारा धर्म हमें नियंत्रित करता है। सुबह उठना, प्रातः कालीन जीवन का पालन करना, ब्रह्म मुहूर्त में प्रार्थना करना यह आचार हमारे जीवन में अनुशासन की व्यवस्था है। प्रो. चंदन कुमार के अनुसार भारतीय जनमानस अध्यात्मिकता से सराबोर है और यह परंपरा बहुत प्राचीन और विलक्षण है। इसकी व्याप्ति महासागर की तरह है। हिंदू समाज में आत्मपरिष्कार की विलक्षण क्षमता है। यह आत्मपरिष्कार कबीर के नाम पर मिलने वाले पाठ में मिलता है। उसे विश्वविद्यालयों में न्यून बनाकर प्रस्तुत किया जाता है।
आगे प्रो. चंदन कुमार प्रश्न करते है कि कबीर को कैसे समझा जाए। स्वयं उत्तर देते हुए उन्होंने ‘आचार्य परशुराम चतुर्वेदी’ की पुस्तक ‘उत्तर भारत की संत परंपरा’ की पंक्तियाँ उद्धृत की और कहा कि कबीर कदाचित प्रत्येक संकीर्ण सांप्रदायिक भावना से मुक्त थे। उनका मुख्य अभिप्राय किसी ऐसी विचारधारा को जन्म देना था जो स्वभावतः सर्वमान्य बन सके। विश्वविद्यालयों में जिस कबीर की प्रस्तुति की गयी वह एक ‘पॉलिटिकली कंस्ट्रक्ट’ (राजनीतिक निर्मिती) है। अर्थात किसी खास उद्देश्य से बनाई गई अवधारणाएँ। यह राजनीतिक निर्मिती ‘नेहरूइयन कंस्ट्रक्ट’ है अर्थात स्वातंत्र्योत्तर भारत के कला, मानविकी और समाज विज्ञान के कला संकाय में ज्ञान की जो एक सेकुलर डेमोक्रेटिक निर्मिती हुई यह सत्ता द्वारा पॉलिटिकली करेक्ट शब्द है। हमें जो साहित्य इतिहास पढ़ाया गया और कला की अन्य विधाओं में निर्मित हुई वह इस निर्मिती के इर्द-गिर्द ही बनी। मनोरंजन, शिक्षा और इतिहास में यह निर्मिती प्राथमिक रूप से बनी। कुल मिलाकर इस निर्मिती से विश्वविद्यालयों में एक ऐसा मन तैयार हुआ जो अपनी परंपरा की स्मृति से पूर्णतः मुक्त था।
‘विद्याधर सूरजप्रसाद नायपॉल’ के शब्दों को उधार लेते हुए प्रो. चंदन कुमार ने कहा कि “यह स्मृति भ्रंश का मन था। विश्वविद्यालयों के कबीर इस स्मृति भ्रंश की निर्मिति है। तुलसी, सूर को कवि विश्वविद्यालयों ने नहीं बनाया।” आगे ‘शिवपुत्र सिद्धराम कोमकाली’ (कुमार गंधर्व) का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि वे कबीर के पाठ के गायक हैं। एक पुस्तक यतींद्र मिश्र द्वारा संपादित ‘कुंवर नारायण संसार’ वाणी प्रकाशन का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि उसके प्रश्न 421 पर कुमार गंधर्व के बारे में एक वाक्य है कि कुमार गंधर्व के गायन में एक ओर शास्त्रीय गायन की परंपराओं का गहरा संस्कार है तो दूसरी ओर लोकगीतों की अनगढ़ समवेत शक्ति और भावनात्मक उर्जा है। आगे उन्होंने प्रश्न किया कि जिस कबीर को कुमार गंधर्व गाते हैं क्या विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में वही कबीर है? आप विचार कीजिएगा। मालवा के क्षेत्र में कबीर खूब गाए जाते हैं। कुमार गंधर्व ने मालवांचल की बोली में मालवी और उसके लोकगीतों को बंदिश का स्वरूप दिया। उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र में कबीर गाए जाते हैं। कबीर गायन भारतीय जीवन में जीने का एक तर्क बनाता है। इसमें अध्यात्म और जिजीविषा की एक अद्भुत मिलावट है। एक हारे हुए मन का रास्ता कबीर की रचनाओं से निकलता है। किंतु हिंदी का पाठ्यक्रम इस हारे हुए भारतीय मन वल्लभाचार्य के अनुसार ‘मलेच्छक्रांत देशेषु’ खिन्न मन को कबीर के संदर्भ में व्याख्यायित करता है। कबीर उस हारे हुए मन के ‘डिफेंस मेकैनिज्म’ है। इसलिए पूरी भक्तिकालीन कविता में जो एक आत्मलोचन का भाव है-
“एक लाख पूत, सवा लाख नाती, ता रावण घर, दीया ना बाती”
ताकत के परिपेक्ष में एक आस्थावान भारतीय मन का खड़ा होना कबीर में ज्ञानमार्गीय जितनी बातें हैं यदि उसका मूल्यांकन करें तो यह हिंदू शास्त्रों की बात है। ज्ञान की ज्ञानमार्गी बातें हिंदू शास्त्र की बातें हैं इसलिए जब कबीर की व्याख्याएँ हुई तो कहा गया कि कबीर साहब हिंदुओं के उच्चतम आध्यात्मिक विचारों के प्रबल समर्थक थे। वे अपने बारे में सोचता हुआ मन है। कबीर के सामाजिक संदर्भ लिए दोहों को जब हम देखते हैं तो उसे ‘हबीबी शब्दावली’ में लेने के बजाय एक हिंदू आत्मवलोकन शब्दावली में देखने की कोशिश की जानी चाहिए। कबीर हुए हैं या नहीं, यह अभी विवादास्पद है। क्योंकि उनके होने में जिस किस्म की कथा प्रथाएं हैं, वे वैज्ञानिक नहीं लगती। कबीर के नाम से प्रसिद्ध रचनाओं में कवि की वास्तविक रचना को पाना कठिन काम है। क्योंकि कबीर के कई पाठ संग्रह हैं और उनमें पाठभेद है।
एक और तथ्य प्रस्तावित करते हुए उन्होंने कहा कि मैकाले की शिक्षा पद्धति में गुरु, वेद और पुरोहित को प्रश्न चिन्हित करने और विश्वासहीन बनाने की पूरी की पूरी सुनियोजित बौद्धिकता चली। कहीं कबीर उसका माध्यम तो नहीं बन गए? हिंदी की आलोचना वर्चस्ववादी बुद्धि और गुरु, वैद और पुरोहित की सामाजिक सत्ता को प्रश्न चिन्हित करने वाली बुद्धि है। क्योंकि भारतीय समाज में इनकी सत्ता को प्रश्नचिन्हित किए बिना आप अपने औपनिवेशिक और भारत को कमजोर करने वाली बुद्धि को स्थापित नहीं कर सकते। आप विचार कीजिए कि कबीर की माता को ब्राह्मणी बताना और उनके अनचाहे गर्भ से कबीर का पैदा होना जिस तरह का तर्क प्रचारित करता है वह कहीं एक खास घृणा का तत्व नहीं है। स्वयं कबीर पर काम करने वाले लोगों ने माना कि इनकी उत्पत्ति के संबंध में अनेक प्रकार के प्रवास चलते हैं। यह इसलिए भी संभव हुआ कि निर्गुणवादी कवियों के कोई जागतिक और ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। जिस समय लोग अपने जीवन की रक्षा के लिए संघर्षरत हो, एक पंथिक सर्वग्राही सत्ता जब केंद्र में हो तो ‘जिनकी बिटिया सुंदर देखी तिन पर धरी तलवार’ का भाव चल रहा हो तो उस समय लोग अपने लिए प्रमाणिक ग्रंथ और लेख छोड़कर जाएँ ऐसी आशा करना बौद्धिक रूप से अन्याय करना है। कबीर के बारे में जितने तथ्य है या हो सकते हैं उससे ज्यादा उनकी व्याख्याएँ हैं। इसलिए तमाम विद्वानों द्वारा उनके प्रति पूरा सम्मान रखते हुए यह कहना कि किसी भी विद्वान की व्याख्या को अंतिम मान लेना और यह मान लेना कि यही कबीर है भारतीय बुद्धि की अनेकंत्ता को प्रश्नचिन्हित करना है।
आगे प्रो. चंदन कुमार उन लोगों के नाम लेते हैं जो कबीर की लोकतांत्रिक पंथनिरपेक्ष व्याख्यान व्याख्यान में बैठते हैं। उन्होंने कहा कि कबीर के सर्वाधिक लोकप्रिय वे पद है जो लोक गायक गाते हैं जैसे ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’, जगजीत सिंह और प्रहलाद सिंह टिपानिया। कबीर के प्रसिद्ध लोकगायक प्रहलाद सिंह (जिसने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव भी लड़ा।) ने कबीर को लोकप्रिय बनाया। उसे उस लोकप्रियता का कारण क्या है? कहीं कबीर भारतीय समाज की जनकेंद्रित दार्शनिकता के प्रतिनिधि बोध है। शब्द बदल सकते हैं, संदर्भ भी। किंतु भारतीय दर्शन की जन केंद्रीयता नहीं बदल सकती। शायद यही कारण है कि-
“यूनान मिस्र रोमा सब मिट गए जहां से
कुछ बात है के हस्ती मिटती नहीं हमारी।”
आगे प्रो. चंदन कुमार ने आबिदा परवीन का उल्लेख करते हुए प्रश्न किया और कहा कि वैचारिक रूप से आबिदा परवीन जिस कबीर को गाती है वह कौन से कबीर है? क्या वह कबीर विश्वविद्यालयों के कबीर है? पाकिस्तानी मुल्क के गायक इस्लामिक पांथिक मान्यताओं के गायक हैं। किंतु जब वे कबीर को गाते हैं तो उनके ज्ञानप्रधान साखियों को कव्वालियों के रूप में गाते हैं। और जो कबीर हमारे सामने आते हैं वे एक ज्ञानात्मक संवेदना के कवि हैं। इस अर्थ में हम विश्वविद्यालय में जिस कबीर को बिठा रहे हैं और पढ़ा रहे हैं वे वह कबीर नहीं है जो हिंदुस्तान की सांस्कृतिक परंपरा के दाय हैं। हमारी पूरी सांस्कृतिक परंपरा अर्थात छः आस्तिक दर्शन और तीन नास्तिक दर्शन असहमतिओं की भी परंपरा सांस्कृतिक परंपरा रही है। बौद्ध मत के लोकजागरण की कई व्याख्याओं में एक व्याख्या यह भी है कि बौद्ध मत वैष्णवता की रूढ़ियों के खिलाफ खड़ा होता है। बौद्ध विष्णु के अवतार माने गए हैं। कबीर असहमति की इसी परंपरा की वारिस है। किंतु अपनी असहमतियों के साथ भारतीय बौद्ध आत्मावलोकन के कबीर है। अगर कबीर ऐसे नहीं है तो कबीर वह भी नहीं है जो विश्वविद्यालयों में पढाएँ जा रहे हैं। प्रो. चंदन कुमार कबीर को अलौकिक पुरुष सिद्ध नहीं करते जबकि कबीर पंथ के कबीर उनके अनुयायियों के लिए अलौकिक हैं। और उनकी अलौकिकता उनके पंथ को मानने वालों की प्रगाढ़ श्रद्धा से पैदा हुई है।
प्रो. चंदन कुमार उस कबीर को भी पढ़ने से थोड़ा परहेज करते है जो हिंदी कविता और हिंदी पाठ्यक्रम में खास वर्ग, वर्ण और मत को गरियाते हुए कबीर है। ऐसा पढ़ना कबीर के पाठ के साथ अन्याय करना है। हिंदी में कबीर के कुपाठ खूब लोकप्रिय हुए हैं। तुलसीदास का उदाहरण देते हुए प्रो. चंदन कुमार ने कहा कि यदि मैं तुलसी को काशी के कवि के रूप में पढूँ तो यह तुलसी को ही सीमित करना है। तुलसी को ब्रजभाषा क्षेत्र के कवि के रूप में पढ़े या अवधि क्षेत्र के कवि के रूप में पढ़े, वह तुलसी के साथ अन्याय है। इस प्रकार कबीर के साथ भी कुछ लोगों ने बौद्धिक अन्याय किए हैं। दरअसल विश्वविद्यालयों की बुद्धि पहले कबीर के बारे में निर्णय लेती है। उसके बाद कबीर के पाठों को बनाती है। विश्वविद्यालय के पाठ और आलोचक पहले मूल्य निर्णय देते हैं और फिर अनुकूल दोहों का चयन करके उनका वर्णन कर देते हैं। छात्रों से जो प्रश्न पूछे जाते हैं उसमे पहले सिद्धांत प्रस्तुत करने को कहा जाता है और फिर यह सिद्ध करने को कहा जाता है। यह कबीर ही नहीं किसी भी रचनाकार को समझने का एक दुराग्रह तरीका है। इस प्रकार हम अपने दुराग्रहों को कबीर में पढ़ते रहे हैं।
कबीर को किस प्रकार पढ़ा जाए इसका उल्लेख करते हुए प्रो. चंदन कुमार ने कहा कि-
“साधो, देखो जग बौराना।
साँची कही तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।”
कबीर एक ऐसे कवि भी है-
“हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या ?”
यह भक्त कबीर है। सत्य कबीर है। कबीर को एकांतिक अर्थ में पढ़ना और कबीर को समाज सुधारक और कवि के रूप में पढ़ना एक किस्म की आत्ममुग्धता है। जब आप कबीर को कांकर पाथर आदि के रूप में पढ़ते हैं तो वह आपकी अपनी दृष्टि है। कबीर अपने समय के लोगों के लिए अपने पर भरोसा करने के भी प्रतीक है-
“जाति जुलाहा मति का धीर, सहजि सहजि गुन रमैं कबीर।”
यह वही कह सकता है जिस पर अपना आत्मबल हो। यह आत्मबल उसे भारतीय परंपरा से मिला है। जो दांडायन का आत्मबल है जो उसे विश्व विजेता सिकंदर के सामने खड़ा करता है दांडायन कहते हैं कि मेरी आवश्यकताएँ परमात्मा की विभूति प्रकृति पैदा करती है। आप किसी पंथिक आस्था में ऐसी बौद्धिक स्वतंत्रता की कल्पना नहीं कर सकते। इसका मतलब यह है कि कबीर की यह बौद्धिक स्वतंत्रता उनके हिंदू होने से मिलकर आई है। यह सोचना कि कबीर हिंदू नहीं थे आत्मवलोचना का भाव अपने आस्था के प्रश्नों को पुनः पुनः मूल्यांकित करते रहने का भाव हिंदू होने का भाव है। इसलिए कहा है-
“तू कहता कागद की लेखि, मैं कहता आखिन की देखी।”
धार्मिक सिद्धांतों को सेमेटिक ढंग से जीने वाले लोग ऐसे नहीं कह सकते। इसलिए जब वे कहते हैं-
“दुलहनी गावहु मंगलचार,
हम घरि आयो हो राजा राम भरतार।”
वे राम को भरतार (सर्वस्व स्वामी) कहते हैं। राम भारतीय सभ्यता और संस्कृति के नायकत्व प्रदान करने वाले कबीर के भरतार हैं। यह भरतार होना उनकी आस्था से निकला हुआ भाव है। कबीर को इस भरतार बोध से भी समझने की कोशिश करें। उनके अनुसार यदि आप कबीर को सिर्फ गुरु, पुरोहित और वेद की कुटाई करने वाले पदों से समझने की कोशिश करेंगे तो आप कबीर के साथ अनर्थ करेंगे।
अपने वक्तव्य का अंत प्रो. चंदन कुमार ने यह कहकर किया कि पूरे सम्मान के साथ अपनी आलोचनात्मक बुद्धि की परंपरा के प्रति सम्मान के साथ कहना चाहूंगा कि हिंदी की आलोचनात्मक बुद्धि ने खासकर विश्वविद्यालयी आलोचना बुद्धि ने कबीर को इसी एकांगिकता में समझा इसलिए कबीर उनके राजनैतिक निहिताओं के लिए उचित तो पड़े किंतु जनमानस के कबीर, विश्वविद्यालयों के कबीर नहीं है। वे निवेदन करते है कि कबीर को आप इस रूप में पढ़े कि कबीर मानुष भाव के कवि है। उनका काव्य अभिप्रेत जीवन को सुंदर बनाने का अभिप्रेत है। अपने इर्द-गिर्द को सुंदर बनाने का अभिप्रेत है। और यह अभिप्रेत उन्हें एक आलोचनात्मक प्रज्ञा से संपरक्त करता है। उनके अनुसार यह आत्ममुग्धता से उपजा हुआ भाव नहीं है। यह अपने प्रति मूल्यांकन के भाव से उपजा हुआ आलोचनात्मक विवेक है। और यही विवेक भक्तिकालीन कविता का प्राथमिक विवेक है। आप उन्हें सामंतवाद, लोकतंत्र और मानव अधिकार जैसी शब्दावली में पढ़ेंगे तो शायद उनके साथ न्याय न करें।
रिपोर्ट: मीनाक्षी