Jammu Kashmir New Govt Less power union territory Omar Abdullah Challenges permission of LG


Jammu-Kashmir Govt: हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में चुनावी शोर के बाद अब नतीजों का शोर भी थम चुका है. हरियाणा में जहां बीजेपी ने लगातार तीसरी बार हैट्रिक बनाई है, वहीं कई सालों बाद जम्मू-कश्मीर को भी एक सरकार मिलने जा रही है. जम्मू-कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस ने जबरदस्त वापसी की और 42 सीटों पर जीत हासिल कर ली. वहीं गठबंधन में शामिल कांग्रेस को 6 सीटों पर जीत मिली है. हालांकि इस बार कश्मीर में सरकार बनने के मायने भी बदल गए हैं. करीब 10 साल पहले जो सरकार थी, उसके मुकाबले इस नई सरकार की ताकतें काफी कम होंगीं. कुल मिलाकर दिल्ली जैसी तस्वीर घाटी में भी देखने को मिल सकती है. 

सरकार ने घोषित किया केंद्र शासित प्रदेश
केंद्र सरकार ने बड़ा और ऐतिहासिक फैसला लेते हुए 5 अगस्त 2019 को कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाली धारा 370 को लगभग पूरी तरह से खत्म कर दिया या फिर कहें तो इसे निष्क्रिय कर दिया गया. ऐसा करने से पहले घाटी के तमाम बड़े और छोटे नेताओं को अरेस्ट या हाउस अरेस्ट कर लिया गया. जिनमें कई पूर्व मुख्यमंत्री भी शामिल थे. इसके बाद अक्टूबर 2019 में जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया. इसके बाद से ही घाटी के लोगों और नेताओं को विधानसभा चुनावों का इंतजार था. 

पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग
जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने के बाद अब नेताओं ने पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग तेज कर दी है, आने वाले दिनों में इसे लेकर राजनीतिक घमासान भी देखने को मिल सकता है. केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की जाएगी कि वो फिर से कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दे. ऐसी ही मांग दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल पिछले कई सालों से करते आ रहे हैं. 

बंधे रहेंगे सीएम के हाथ
अब जम्मू-कश्मीर में भले ही फारूक अब्दुल्ला की पार्टी और कांग्रेस सरकार बनाने जा रही है और उमर अब्दुल्ला को सीएम बनाने की तैयारी हो रही है, लेकिन केंद्र शासित प्रदेश में सीएम के हाथ पूरी तरह से खुले नहीं रहेंगे. दिल्ली की तरह कहीं न कहीं उमर अब्दुल्ला को भी यही महसूस होगा कि उनके हाथ बंधे हुए हैं. 

इस बात की टीस चुनाव से पहले उमर अब्दुल्ला के इंटरव्यू में भी दिखी थी, जिसमें उन्होंने खुद कहा था कि वो ऐसे राज्य का सीएम नहीं बनना चाहेंगे जिसमें एक चपरासी की भर्ती के लिए भी उन्हें उपराज्यपाल के दफ्तर के बाहर फाइल लेकर बैठना पड़े. 

ताकत में क्या होता है अंतर?
अब आपके मन में ये सवाल जरूर घूम रहा होगा कि पूर्ण राज्य और केंद्र शासित प्रदेश की सरकारों की ताकत में क्या अंतर होता है. इसका सबसे सटीक उदाहरण दिल्ली से लिया जा सकता है, जहां उपराज्यपाल और सरकार के बीच हर मुद्दे को लेकर जबरदस्त टकराव देखने को मिलता है. 

राज्य सरकार एक स्वतंत्र इकाई होती है, यानी एक बार चुनाव जीतने के बाद कानून बनाने और राज्य के नियमों में बदलाव को लेकर तमाम तरह के अधिकार कैबिनेट को होते हैं. वहीं केंद्र शासित प्रदेश में ऐसा नहीं है, यहां पर केंद्र सरकार का ही शासन होता है. केंद्र सरकार की तरफ से एक उपराज्यपाल की नियुक्ति होती है, जो केंद्र शासित प्रदेश के तमाम कामकाज में दखल दे सकता है. यहां कोई भी कानून या नियम बनाने से पहले एलजी यानी केंद्र सरकार की इजाजत लेनी होती है. कुल मिलाकर केंद्र शासित प्रदेश में पावर एलजी के हाथों में ही ज्यादा होती है. 

दिल्ली से चलेगी सरकार?
कुल मिलाकर कानून व्यवस्था से लेकर जनता के लिए योजनाएं बनाने, ट्रांसफर-पोस्टिंग और बिल पास कराने तक… हर मसले में सीधा-सीधा एलजी का दखल होगा. यानी भले ही उमर अब्दुल्ला घाटी के सीएम रहें, लेकिन पूरे सरकारी तंत्र का धागा दिल्ली के हाथों में ही होगा, जिसे जब चाहे खींचा जा सकता है. कुल मिलाकर कश्मीर की सियासी पिच पर भले ही नेशनल कॉन्फ्रेंस की टीम उतर गई हो, लेकिन इस टीम के लिए खुलकर खेलना मुमकिन नहीं होगा. 

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