किसान आन्दोलन : इतिहास और वर्तमान – मलय नीरव, पूजा कुमारी (Malay Nirav, Pooja Kumari)

Malay Nirav, Pooja Kumari:  ‘आन्दोलन’ एक सुनहरा शब्द। इस एक शब्द को सुनते ही आज़ादी से जुड़ी सुखद यादें, गाँधी-नेहरु से लेकर भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस सहित अनगिनत देशद्रोही (तात्कालिक ब्रिटिश सरकार की नज़र में) योद्धाओं के चेहरे आंखों के सामने तैरने लगते हैं। हालांकि आजकल इस सुनहरे शब्द की महिमा को खंडित करने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है।

साल 2020 कोरोना महामारी के साथ-साथ “किसान आंदोलन” के लिए भी याद किया जाएगा। किसान, भारत सरकार द्वारा लाए गए तीन तथाकथित विवादित-सह-ऐतिहासिक कृषि कानून के विरोध में आंदोलनरत हैं। ये तीन कृषि कानून हैं :

     1)  किसान उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्द्धन और सुविधा) कानून, 2020।

     2)  मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता कानून, 2020।

     3) आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून, 2020

शेक्सपीयर कहा करते थे कि नाम में क्या रखा है, लेकिन यहाँ आप इन तीन कानूनों के आकर्षक नाम से ही बहुत कुछ या सब कुछ समझ सकते हैं जो भारत सरकार समझाना चाह रही है। इन कानूनों के नाम से ऐसा महसूस होता है कि यह कानून सिर्फ़ किसानों के उद्धार के लिए लाया गया है,  उनके इनकम को दोगुना होने से अब कोई नहीं रोक सकता है। फ़िर ये किसान (सरकार की नज़र में भ्रमित किसान) आन्दोलनरत क्यों हैं ? मुझे लगता है कि शायद ये किसान शेक्सपियर से अत्यंत प्रेरित हैं। उन्हें समझ आ गया है कि इन कानूनों के नाम में कुछ नहीं रखा है और खासकर वह तो एकदम नहीं रखा है जो सरकार बता रही है। उनका मानना है कि यह कानून किसानों के फायदे के लिए नहीं बल्कि पूँजीपतियों के हित में लाया गया है। इस सोच के पीछे उनका यह तर्क है कि सरकार एमएसपी ( न्यूनतम समर्थन मूल्य ) की बात तो करती है पर जब यह कहा जाता है कि एमएसपी से कम कीमत पर कृषि उपज की खरीद को क़ानूनन दंडनीय अपराध बना दिया जाय तो, सरकार एक खामोशी ओढ़ लेती है। यही खामोशी सरकार को पूंजीपति का पक्षधर घोषित कर रही है।

भारत की भूमि किसान आंदोलन के लिए उर्वर भूमि रही है। देश के इतिहास में किसान आंदोलनों का एक लंबा और समृद्ध इतिहास रहा है। आज़ादी से पहले एवं आज़ादी के बाद भी अनेक प्रमुख किसान आन्दोलन हुए हैं। किसानों के लिए आन्दोलन एक पावन पर्व की तरह होता है। वर्तमान समय में चल रहे किसान आन्दोलन को देखकर आप भी इसे महसूस कर सकते हैं। ये आन्दोलन वे खुद की उन्नति और अधिकारों की माँग की पृष्ठभूमि में कर रहे हैं। हालाँकि ठंड एवं अन्य वजहों से 40 से अधिक किसानों की मृत्यु भी हो चुकी है जिन्हें किसान शहीद मान रहे हैं। प्रायः यह समझा जाता है कि भारतीय समाज और इतिहास में समय-समय पर होने वाली उथल-पुथल में किसानों की कोई सार्थक भूमिका नहीं रही है और किसान इन बदलाव की आंधी से अलग रहे हैं लेकिन यह धारणा, किसान आन्दोलनों के इतिहास को देखते हुए सही नहीं है। भारत के स्वाधीनता संग्राम में आदिवासियों, जनजातियों और किसानों के आंदोलनों का अहम योगदान रहा है और व्यापक जन जागरण में उनकी भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है।

प्रमुख किसान आंदोलन एवं किसान संगठन

भारत की आज़ादी के पूर्व के कुछ प्रमुख किसान आन्दोलन हैं; नील आन्दोलन (1859-60 ई., बंगाल), पाबना आन्दोलन (1873-76 ई., बंगाल), दक्कन आन्दोलन (1875 ई., महाराष्ट्र), चम्पारण आन्दोलन (1917 ई., बिहार), खेड़ा आन्दोलन (1918 ई., गुजरात), मोपला आन्दोलन (1921 ई., केरल), एका आन्दोलन (1921-22 ई., उत्तर प्रदेश), बारदोली आन्दोलन (1928 ई., गुजरात), वर्ली आन्दोलन (1945 ई., महाराष्ट्र), तेभागा आन्दोलन (1946 ई., बंगाल), तेलंगाना आन्दोलन (1946-51 ई., तेलंगाना)इत्यादि। इन सब किसान आन्दोलनों का मुख्य कारण था औपनिवेशिक आर्थिक नीतियाँ, भू-राजस्व की नई प्रणाली और उपनिवेशवादी प्रशासन तथा न्यायिक व्यवस्था जिसने किसानों की कमर तोड़ दी थी। उपरोक्त सभी आंदोलनों का तात्कालिक प्रभाव तो क्षीण रहा किंतु आज़ादी के बाद इन्हीं कृषक आंदोलनों की मांगों को आधार बनाते हुए भूमि सुधार कार्यक्रम चलाए गए तथा गैर कानूनी या सामंती वसूलियों और बेगार की समाप्ति, ज़मींदार तथा उनके आदमियों के द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों की समाप्ति, ऋण बोझ में कमी, गैर कानूनी या अनुचित तरीकों से ली गई भूमि की वापसी, काश्तकारों की सुरक्षा इत्यादि पर कार्य किया गया।

आज़ादी-पूर्व किसान आंदोलनों के साथ-साथ अनेक किसान संगठन भी अस्तित्व में आए। सन् 1923 में किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती ने ‘बिहार किसान सभा’ का गठन किया। सन् 1928 में ‘आन्ध्र प्रांतीय रैयत सभा’ की स्थापना एनजी रंगा ने की। उड़ीसा में मालती चौधरी ने ‘उत्‍कल प्रान्तीय किसान सभा’ की स्थापना की। बंगाल में ‘टेंनेंसी एक्ट’ को लेकर सन् 1929 में ‘कृषक प्रजा पार्टी’ की स्थापना हुई। अप्रैल, 1935 में संयुक्त प्रांत में किसान संघ की स्थापना हुई। इसी वर्ष एनजी रंगा एवं अन्य किसान नेताओं ने सभी प्रान्तीय किसान सभाओं को मिलाकर एक ‘अखिल भारतीय किसान सभा’ की स्थापना लखनऊ में की थी। आज के प्रमुख किसान संगठनों की जड़ को हम इन किसान संगठनों में देख सकते हैं।

आज़ादी के बाद भी किसानों के आंदोलन चलते रहे। इसी बीच लाल बहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्री रहते हुए वर्ष 1965 में हरित क्रांति आई, जिसने उत्तर भारत, ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश और पंजाब के किसानों को आत्मनिर्भर तो बनाया ही, साथ ही भारत के कृषि उत्पादन में भी काफ़ी बढ़ोतरी हुई। इस चरण का मुख्य विरोधाभास था- ग्रामीण और शहरी सेक्टर के बीच व्यापारिक आधार पर असमानताएं। इसी भेदभाव को खत्म करने के उद्येश्य से किसानों का आंदोलन शुरू हुआ। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) इसी का परिणाम था। सन् 1967 के आस-पास शुरू हुए नक्सली आंदोलन का मुख्य मुद्दा हाशिये पर आ चुके कृषि समुदाय के अधिकारों की सुरक्षा करना था। इस आंदोलन के दौरान कई किसान समितियों की स्थापना की गई और भूमि का पुनर्वितरण किया गया। हालाँकि माओवादी क्रांति लाने के लिये यह आंदोलन जल्द ही एक हिंसक संघर्ष में बदल गया। सन् 1980 में नए किसान आंदोलन में शरद जोशी के नेतृत्व वाले शेतकरी संगठन ने नासिक में सड़क व रेल रोको अभियान द्वारा राजनीतिक मंच पर उपस्थिति दर्ज की।

महेंद्र सिंह टिकैत, चौधरी चरण सिंह और अन्य किसान नेता 

बात 1987 की है।  पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर के कर्नूखेड़ी गाँव में बिजली घर जल गया। इलाक़े के किसान पहले से ही बिजली संकट का सामना कर रहे थे और इसको लेकर बड़े परेशान थे। किसानों के बीच से ही सामने आए एक किसान महेंद्र सिंह टिकैत ने सभी किसानों से बिजली घर के घेराव का आह्वान किया। ये दिन था 1 अप्रैल, 1987 का। ख़ुद टिकैत को भी अंदाज़ा नहीं था कि बिजली घर के घेराव जैसे छोटे से मामले को लेकर लाखों किसान कर्नूखेड़ी में जमा हो जाएँगे। किसानों के प्रदर्शन को देखते हुए और उनकी संख्या देखते हुए सरकार भी घबराई और उसे किसानों के लिए बिजली की दर को कम करने पर मजबूर होना पड़ा। ये किसानों की बड़ी जीत थी और तब उन्हें लगा कि वो अपने मुद्दों को लेकर बड़ा आंदोलन भी कर सकते हैं। किसानों ने अपनी एकता को जान लिया, फिर कुछ ही महीनों के बाद, यानी 1988 के जनवरी माह में किसानों ने अपने नए संगठन, भारतीय किसान यूनियन के झंडे तले मेरठ में 25 दिनों का धरना आयोजित किया, जिसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख़ूब सुर्खियाँ बटोरीं।  इस धरने में पूरे भारत से किसान संगठन और नेता शामिल हुए। किसानों की मांग थी कि सरकार उनकी उपज का दाम वर्ष 1967 से तय करे। यह समय किसानों के लिए स्वर्णिम समय था। वे राजनीतिक रुप से खुद को सशक्त बना चुके थे। बात है वर्ष 1990 की। मुख्यमंत्री रहते हुए मुलायम सिंह यादव ने किसान नेता टिकैत को गिरफ़्तार करवाया। मुलायम सिंह को पता नहीं था कि टिकैत की गिरफ़्तारी के बाद सदन से 67 विधायक भी इस्तीफ़ा दे सकते हैं। यह था किसानों का शक्ति-प्रदर्शन!

टिकैत से पहले उत्तर भारत में सर्वमान्य किसान नेता के रूप में चौधरी चरण सिंह का नाम आता है, जो छपरौली विधानसभा सीट से 40 साल तक लगातार विधायक के रूप में चुने जाते रहे। चरण सिंह कहते थे कि देश की समृद्धि का रास्ता गांवों के खेतों और खलिहानों से होकर गुजरता है। चौधरी देवी लाल भी किसान नेता तो थे, लेकिन वो राजनीतिक दल के ज़रिए आंदोलन करते थे।

किसान आन्दोलन से अनेक किसान नेता निकले हैं। आजादी से पहले स्वामी सहजानंद सरस्वती और सर छोटूराम जैसे किसान नेता इन्हीं आंदोलनों से निकले। आजादी के बाद भी ये सिलसिला जारी रहा। हमारे देश की सियासत में ऐसे तमाम दिग्गज नेता रहे हैं जो किसानों के लिए संघर्ष करते हुए राजनीति के शिखर पर पहुंचे। उनमें से कुछ प्रमुख किसान नेता हैं; चौधरी चरण सिंह, चौधरी अजित सिंह, जयंत चौधरी, चौधरी देवीलाल, ओम प्रकाश चौटाला, बलराम जाखड़, राजेश पायलट, शरद पवार, वसंत दादा पाटिल, एचडी देवगौड़ा, मुलायम सिंह यादव, सोमपाल शास्त्री, साहब सिंह वर्मा, बंसीलाल, हरिकिशन सुरजीत, प्रकाश सिंह बादल, राज शेखर रेड्डी इत्यादि।

वर्तमान किसान आन्दोलन में हरियाणा और उत्तर प्रदेश के साथ-साथ पंजाब के 30 से अधिक किसान संगठन शामिल हैं। इस आन्दोलन के कुछ प्रमुख चेहरे हैं: जोगिंदर सिंह उगराहां ( भारतीय किसान यूनियन [उगराहां] ), बलबीर सिंह राजेवाल ( भारतीय किसान यूनियन ), जगमोहन सिंह ( भारतीय किसान यूनियन डकौंदा ), डॉक्टर दर्शनपाल ( क्रांतिकारी किसान यूनियन ), सरवन सिंह पंधेर ( किसान मज़दूर संघर्ष समिति )। 

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