नौकरी की तो छोड़िए यहाँ पीएचडी में एडमिशन भी मुश्किल कर दिया गया है । पढ़िए बीएचयू के स्कॉलर की व्यथा-कथा ।

मैं कभी फेलुअर इन्सान नहीं रहा। बचपन से ले कर आज तक चाहे जितनी भी परिस्थितियाँ विपरीत क्यों न हो, मेरे कदम कभी पीछे नहीं हटें। चाहता था कि मैं अपने समाज को एक सही दिशा दिखा सकूँ। जो समाज परिस्थितियों को हवाला दे कर शिक्षित होना नहीं चाहता। जहाँ जुआ शराब का अड्डा हो। जहाँ के लोग शिक्षा के नाम पर इण्टर, B.A. में नामांकन कराकर दिल्ली बम्बई कमाने चले जाते हों। वहाँ से निकल कर मैं बनारस आया। यहाँ से बी ए, एम ए और एमफिल किया। इन परीक्षाओं में कभी फेल नहीं हुआ। हमेशा प्रथम श्रेणी में पास हुआ। मेरी कभी ऐसी परिस्थिति थी ही नहीं जिसमे मैं पढ़ने के लिए सोच भी सकता। क्षमता होते हुए भी पिता का मेरे पढ़ाई में कुछ विशेष योगदान नहीं रहा। हमेशा तनाव में रहते हुए पढ़ाई किया। कई-कई दिन पैसे नहीं रहने के कारण घर चल जाना पड़ता था। इसपर मेरे घर के अगल-बगल वाले मुझपर और मेरे घर वालों पर खूब व्यंग्य कसा करते। लेकिन माँ का आशीर्वाद तथा मेरी जिद के कारण किसी तरह से पैसे को जुगाड़ कर( ज्यादातर खेती को गिरवी रख कर) फिर वापस बनारस आता। इसमें मेरे 15 से 20 दिनों के साथ-साथ कभी-कभी तो एकाध महीने पढ़ाई का नुकसान हो जाता। जिसका असर मेरे मेरिट पर पड़ा। लेकिन कभी पीछे नहीं हटा। सोचा था कि पीएचडी में एडमिशन हो जायेगा तो उसमे कुछ पैसे मिलेंगे जिससे आगे की पढ़ाई पूरी कर लूँगा। मगर यहाँ तो केवल इंट्रेस पेपर वाली बात थी नहीं, इसके साथ इंटरव्यू भी जुड़ा हुआ था। और ये सब जानते होंगे कि पीएचडी के इंटरव्यू में किस तरह की प्रक्रिया अपनायी जाती है। दिल्ली जैसे यूनिवर्सिटियों में जाओ तो वहाँ B.H.U के विद्यार्थी होने के नाम पर दूर से ही भगा देते हैं। इधर अपने B.H.U में पिछले तीन वर्षों से इंटरव्यू में पहुँच रहा हूँ। लेकिन यहाँ के हिन्दी विभाग वाले किस विद्यार्थी को लेना है वह लगभग पहले से ही तय कर लेते हैं। फिर उस हिसाब से इंटरव्यू कमिटी वाले उन विद्यार्थियों को नम्बर देते हैं। विद्यार्थियों का चयन का पैमाना यह रहता है कि कौन विद्यार्थी किसी गुरूजी के कितने करीबी है। या आप कितने बड़े दबंग हैं। आपकी नेताओं तक कितनी पहुँच है। लिंग भी मायने रखता है। उसमें भी सौंदर्य और स्टाइलिश होने का अपना एक अलग महत्त्व है। आप अगर उच्च कोटि के क्रिकेटर हों तो फिर तो क्या कहने। एडमिशन लगभग पक्का है। क्रिकेटर तो मैं भी हूँ। एकदम राहुल द्रविड़ के स्टाइल का। चाह दिया कि आउट नहीं होना है तो आउट ही नहीं होता। प्रमाण ये है कि पिछले तीन वर्षों से लगातार इंटरव्यू में छटने के बावजूद भी अभी तक डटा हुआ हूँ। लेकिन चयनकर्ताओं का मेरे ऊपर कोई ध्यान ही नहीं गया। अब तो ऐसा लग रहा है कि जैसे कैरियर ढलान पर आ गया हो। इतना कुछ हो जाने के बाद भी मैं पीछे नहीं हटूँगा। क्योंकि मैं जानता हूँ आज मैं संघर्ष करूँगा तो मेरे आने वाली पीढ़ी मुझे गाली नहीं देगी मुझपर थूकेगी नहीं। जिस प्रकार से मैं अपने पूर्वजों को कोसता हूँ। अपने पिछड़े समाज को कोसता हूँ। इतने बड़े विभाग में एक भी सही से दलित पिछड़े समाज का प्रोफेसर नहीं है। एक हैं भी तो तो उनपर शक होता है। वे बस सप्ताह में चार कविताओं के द्वारा फेसबुक पर रो कर अपने समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। इतना बड़ा विभाग इतने दिनों से पिछड़ाविहीन कैसे रहा। कहाँ मर गयें पिछड़ों के मसीहा। अगर एक भी मेरा अपना होता तो आज ये दिन मुझे नहीं देखना पड़ता। बनारस में मुझे कुछ मित्रों और बड़े भाइयों का सहयोग मिलता रहा है। कुछ मित्र तो दिल्ली में रहते हुए लगातार सहयोग करते रहे हैं। इस बार तो लगा कि पीएचडी फॉर्म को भर ही नहीं पाऊँगा लेकिन कुछ बड़े भाइयों ने मुझे आशीर्वाद दिया और मैंने फॉर्म को कंप्लीट किया। इन लोगों का एहसान मैं कितना भी कर लूँ इस जनम में चूका नहीं पाऊँगा। इतने विकट दौर में जीने के बाद भी मैं हार नहीं मानूँगा। क्योंकि मैं वही गया-औरंगाबाद क्षेत्र का रहने वाला हूँ जहाँ का एक डायलॉग्स बहुत फेमस है- जब तक तोडूँगा नहीं, तब तक छोड़ूँगा नहीं।।
– रवि कुमार की फ़ेसबुक वॉल से
#B.H.U_P.hd

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