पूर्वोत्तर भारत का चरित्र सामासिक है, सर्वग्राही है और बहुलवादी है। – आदरणीय प्रोफेसर चन्दन कुमार सर
महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ (वाराणसी) एवं इंदिरागांधी मुक्त विश्वविद्यालय द्वारा ‘भारतीयता की अवधारणा और भारतीय साहित्य’ विषय पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी के पांचवे सत्र ‘पूर्वोत्तर का वैभव’ में आदरणीय प्रोफेसर चन्दन कुमार सर ने अपने वक्तव्य द्वारा सारगर्भित और ज्ञानवर्धक विचार प्रस्तुत किये। भारतीयता और भारतबोध के चिन्हों को,जिनका उल्लेख सत्र के दूसरे वक्ता सर दिनेश कुमार चौबे ने अपने वक्तव्य में किया, उन्हें न दोहराते हुए इतर सन्दर्भों में सर ने अपने वक्तव्य को व्याख्यायित किया है।
सर से कहा प्राग्ज्योतिषपुर पूर्वोत्तर का सांस्कृतिक नाम है। अपने कला बोध, साहित्य बोध, संस्कृतिबोध, जीवनबोध में आसेतु हिमालय सातत्यता का बोध कराता है। सर ने बताया कि प्राग्ज्योतिषपुर संस्कृति का कला केंद्र रहा है। वे हमेशा कहते हैं कि ज्ञान की सरणि का ब्रह्मपुत्र पार करना ऐतिहासिक है, ब्रह्मपुत्र महाबाहु है। ब्रह्मपुत्र की महानता और विशेषता को सर ने भूपेन हजारिका जी के गीत के माध्यम से बताया।
सर ने अपने वक्तव्य में कहा कि पूर्वोत्तर हमारे विवेचन में एक तिलिस्म की तरह उभरता है। सात बहनों और एक भाई यानी आठ राज्य – असम,अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड, मिजोरम, त्रिपुरा, मणिपुर और सिक्किम का भारतीय क्षेत्र यहां के सांस्कृतिक प्रतीक और यहां की साहित्यिक दुनिया विश्वविद्यालयों के ज्ञान की परिधि से बाहर रही है। लेकिन विश्वविद्यालय विश्व नहीं है, जो विश्वविद्यालय में नहीं है उसे यह मान लेना कि वह विश्व में ही नही है, यह एक किस्म की मूर्खता है। इन आठ राज्यों से भारत के सांस्कृतिक राग के अविच्छिन्न सूत्र जुड़ते हैं। साधू संतो की परंपरा, भक्तों की परंपरा, मंदिर मठों की परंपरा, परिव्राजकों और सन्यासियों की परंपरा, सत्र सत्राधिकारों की परंपरा इस देश को भारत बनाती है। आसेतु हिमालय और महाबाहु ब्रह्मपुत्र ऐसे दो तत्व हैं जो भारतीय जीवन की सातत्यता को अभिव्यक्त करते हैं। अरुणाचल से हिमाचल तक का हिमालय और उनका सांस्कृतिक जीवन भारतीय राष्ट्र के बोध को परिभाषित करता है। यही स्थिति मैदानी क्षेत्र में ब्रह्मपुत्र की है।
सर ने आगे कहा कि वर्तमान में जिसे असम कहा जाता है वह पूर्वोत्तर का द्वार है। पूर्वोत्तर के सांस्कृतिक राग को समझने के लिए असम और असम के सांस्कृतिक जीवन और धार्मिक मूल्यबोध को समझना होगा। सर ने बताया कि सातत्यता एक सभ्यता बोध है, इस सभ्यता बोध को कवियों ने, मठों ने, सन्तों, सत्रों ने सम्भव किया। सत्र और नामघर असमिया संस्कृति के केंद्र बिंदु हैं।
सर ने कहा भारतीय जीवन बोध में जीवन यात्रा है। इस यात्रा बोध को समझना होगा। पूर्वोत्तर के संस्कार बोध और सांस्कृतिकबोध से परिचित कराते हुए सर ने बताया कि सिद्धों के बारे में आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने लिखा है “ये बिहार से लेकर आसाम तक फैले हुए थे और सिद्ध कहलाते थे।” राहुल सांकृत्यायन ने भी लुइपा और कण्हपा को असम का बताया है। सर ने कहा कि पूर्वोत्तर भारत का चरित्र सामासिक है, सर्वग्राही है और बहुलवादी है। इसी अर्थ में यह भारतीय धार्मिक बोध का प्रतिनिधित्व करती है और यह प्रतिनिधित्व इसे हिन्दू दाय में मिला है। हिंदी का आरम्भिक साहित्य इसी धर्मबोध का साहित्य है। इसी संदर्भ में सर ने बताया कि हिंदी साहित्य की एक मुख्यधारा नाथपन्थ के बाबा मछन्दरनाथ और गोरखनाथ ने कामाख्या पीठ पर शाबर मंत्र की दीक्षा ली।
सर ने आगे कहा कि इन तीन सौ वर्षों के कालखंड को प्राग्ज्योतिषपुर अर्थात पूर्वोत्तर भारत के संदर्भ में कैसे पढ़ा जाए।श्रीमंत शंकर देव, माधवदेव, रामसरस्वती, अनन्त कंदली, सार्वभौम भट्टाचार्य, कंसारी कायस्थ, श्रीधर कंदली, रत्नाकर मिश्र, बदला पद्माता, नारायण दासाता, रामचरण ठाकुर, भूषण द्विज, दैत्यारी ठाकुर, श्रामता, रामानन्द द्विज, मणिपुर में कृष्णाचार्य और शान्तिदास गोसाईं जैसे अनेक भक्त कवि हुए हैं। हिंदी क्षेत्र की आलोचना दृष्टि से इन भक्त कवियों को नहीं समझ सकते। ये अकर्मक बुद्धिजीविता के कवि नहीं है। इसलिये इन कवियों का मूल्यांकन किसी सिद्धांत की श्रेणी के अनुसार नहीं किया जा सकता, जिन्होंने सत्र, नामघर, भावना, अंकीया नहीं देखा ,वह इन भक्त कवियों का मूल्यांकन नहीं कर सकता।
श्रीमंत शंकरदेव का भारतबोध उनके यात्रा बोध की निष्पत्ति है। 1481 ई. में श्रीमंत शंकरदेव अपने 17 शिष्यों के साथ प्रथम तीर्थाटन के लिए निकलते हैं इस यात्रा में वाराणसी, प्रयाग, अयोध्या, कुरुक्षेत्र, द्वारका, बद्रिकाश्रम, जगन्नाथपुरी लगभग पूरा देश आ जाता है। उन्होंने 1550 ई. में दूसरी बार यात्रा की, यह यात्रा दक्षिण भारत केंद्रित थी।
ब्रजाबली भाषा संस्कार के संदर्भ में भी सर ने बात की। उन्होंने बताया कि ब्रजावली की शब्दावली पांच भाषाओं से बनी है -संस्कृत, ब्रजभाषा, मैथिली, बांग्ला और असमिया अर्थात ब्रजावली में सामूहिक शब्दावली निहित है। भागवत पुराण ब्रजावली में लिखा गया है जिसका पूर्वोत्तर के सत्रों और हर घरों में वाचन होता है
सर ने बताया कि प्राग्ज्योतिषपुर धर्म का वाहक बना।
इसके साथ ही सर ‘आईडिया ऑफ इंडिया’ की बात करते हैं यह ‘फीलिंग एट होम’ वाली भावना है। आगे सर ने कहा कि
1350 से 1650 ई. के बीच भारत के किसी भी भक्त कवि की हार्दिक इच्छा कृष्ण स्थान आने की दिखाई पड़ती है और यही कारण है इस कालखंड में ब्रजभाषा की शब्दावली, राधाकृष्ण की भक्ति, वृंदावन और मथुरा को एक राष्ट्रीय स्वीकृति मिलती है।
पूर्वोत्तर की जनजातियों के मूल्यबोध भारतीयता को जोड़ने वाला मूल्यबोध है। सर ने पूर्वोत्तर के विभिन्न समुदायों, जनजातियों के लोकजीवन, संस्कृति और धार्मिक मान्यताओं का विवरण देते हुए उनके पर्व, त्यौहार, उत्सवधर्मिता इत्यादी का विवेचन किया और कहा कि यह जनजातियाँ ‘एको अहम बहुस्याम’ की मान्यताओं से प्रेरित हैं। पूर्वोत्तर के वनवासी समुदाय पंथिक नहीं है ये किसी एक ग्रन्थ को नहीं मानता। यहां के लोकदर्शन, लोकजीवन वाचिक परम्परा में हैं। पूर्वोत्तर की पूरी परंपरा वाचिक है और इसी वाचिक परम्परा में हम पूर्वोत्तर से संवाद कर सकते हैं।