Rani Laxmibai Death Anniversary how was the last day of Rani of Jhansi


हाइलाइट्स

1857 की आजादी की लड़ाई में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से लोहा लिया था.
सीमित साधनों में उन्होंने अंग्रेजों का बहुत ही बहादुरी से मुकाबला किया था.
बुरी तरह से घायल होने के बाद भी उन्होंने खुद को अंग्रेजों के हाथ लगने नहीं दिया था

भारतीय स्वतंत्रता अंदोलन की पहली लड़ाई जिसे अंग्रेज सिपाहियों का विद्रोह भर कहते हैं, आजादी की लड़ाई में देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण पड़ाव माना जाता है. इसमें रानी लक्ष्मी बाई की वीरता का गुणगान आज भी किया जाता है  जिन्होंने 16 साल की उम्र में ही अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था. 18 जून को रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि को देश बलिदान दिवस के रूप में उन्हें याद करता है. उनके जीवन का आखिरी दिन वीरता की एक अनोखी कहानी है जिन्होंने अपने राज्य और हक के लिए लड़ते लड़ते अपना बलिदान दे दिया था. जो एक अनूठी मिसाल है.

पहले झांसी पर अंग्रेजों का हमला
23 मार्च 1858 को अंग्रजों ने सर ह्यूरोज के नेतृत्व में झांसी को घेर लिया था. 24 मार्च पर हमला शुरू हुआ जिसका रानी और उनकी सेना जबर्दस्त प्रतिकार किया. तभी तात्यां टोपे को मदद की गुहार लगाई गई. तात्यां टोपे 20 हजार सौनिकों की सेना मदद के लिए आ भी रहे थे, लेकिन तात्यां को खुद अंग्रेजों से लोहा लेना पड़ा था और वे मदद के साथ नहीं पहुंच सके.

झांसी छोड़ने का फैसला
2 अप्रैल को अंग्रेजों ने किले पर हमला करने की योजना बनाई गई किले पर भारी गोलाबारी की गई.  अंग्रेज सेना घुसपैठ में सफल रही और रानी महल छोड़ कर किले में पहुंच गई. जल्दी ही फैसला ले लिया गया कि रानी को किला छोड़ या तो तात्यां टोपे से मिल जाना चाहिए या फिर नाना साहेब के भतीजे राव साहेब से. अंततः रानी  दामोदर राव को पीठ पर बांधा और अपने घोड़े के साथ किले से कूद गईं. लेकिन घोड़ा मर गया.

कालपी की जंग
रानी रात को दामोदर राव और कुछ साथियों के साथ निकलने में सफल रहीं. यहां से वे कालपी पहुंचीं जहां उन्हें तात्या टोपे सहित अन्य विद्रोही सैनिक मिले. उन्होंने कालपी को ही अपनी छावनी बनाया और वहीं अपनी रक्षा की तैयारी की. 22 मई को अंग्रेजों ने कालपी पर हमला कर दिया. जहां रानी को अपने साथियों को एक बार भागना पड़ा.

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रानी लक्ष्मीबाई की सैन्य, युद्ध और नेतृत्व कौशल ने सभी को हैरान कर दिया था. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Wikimedia Commons)

ग्वालियर की ओर
इसके बाद रानी, तात्यां टोपे और राव साहेब ग्वालियर पहुंचे जिसके महाराजा सिंधिया मोरार का मैदान छोड़ आगरा भाग गए थे. बागी सैनिकों ने और रानी ने अपने साथियों के साथ आसानी से ग्वालियर शहर पर कब्जा कर लिया. रानी ने सभी से कहा कि उन्हें ग्वालियर के किले की रक्षा की तैयारी करनी चाहिए लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी.

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अंग्रेजों का ग्वालियर पर हमला
रानी का अंदाजा बिलकुल सही था. जनरल  ह्यूरोज ने 16 जून को मोरार पर कब्जा किया और वह ग्वालियर की ओर बढ़ा. 17 जून को ग्वालियर में अंग्रेजों ने हमला कर दिया. रानी ने किले में रक्षा करने के बजाय अंग्रेजों पर हमला कर उन्हें चौंकाने की योजना बनाई, जिसमें एक तरफ से रानी तो दूसरी तरफ से तात्यां टोपे को हमला करना था. लेकिन सब कुछ योजनानूकूल ना हो सका तात्यां समय पर नहीं पहुंच सके. ग्वालियर के फूलबाग के पास कोठा की सराय में रानी और उनके साथियों की कैप्टन हीनेज की अगुआई वाली किंग्स रायल आरिश से भीषण युद्ध हुआ.

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अपने अंतिम समय में रानी कई सैनिकों से लड़ती रहीं लेकिन उन्होंने खुद को अंग्रेजों के हाथ लगने नहीं दिया. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Wikimedia Commons)

अंतिम और निर्णायक लड़ाई
.इसमें भारी संख्या में रानी के सैनिक मारे गए. यहां रानी एक सैनिक की वेशभूषा में थीं. बताया जाता है कि रानी को लड़ते हुए गोली लगी थी जिसके बाद वे विश्वस्त महिला साथी सिपाहियों के साथ ग्वालियर शहर के मौजूदा रामबाग तिराहे से नौगजा रोड़ पर आगे बढ़ते हुए स्वर्ण रेखा नदी की ओर बढ़ीं. नदी के किनारे रानी का नया घोड़ा अड़ गया. गोली लगने से खून पहले ही बह रहा था और वे मूर्छित-सी होने लगीं. इसी बीच एक तलवार ने उसके सिर को एक आंख समेत अलग कर दिया और रानी शहीद हो गईं

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रानी का अंतिम आदेश.
शरीर छोड़ने से पहले उन्होंने अपने साथियों से कहा था कि उनका शरीर अंग्रेजों के हाथ नहीं लगना चाहिए. उनके शरीर को बाबा गंगादास की शाला में ले जाकर फौरन उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया. ह्यूरोज ने अपने उल्लेखों में रानी की वीरता की तारीफ करते हुए उन्हें भारतीय विद्रोहियों में सबसे खतरनाक कहा था. रानी के शरीर छोड़ने की तारीख कहीं 17 जून बताई जाती है तो कहीं 18 जून. लेकिन रानी लक्ष्मीबाई बलिदान दिवस मनाने की उल्लेख 18 जून को ज्यादा मिलता है.

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