साहित्य संस्कृति फाउंडेशन, केंद्रीय हिंदी संस्थान एवं ए. एन. कॉलेज, पटना के संयुक्त तत्वावधान में ‘स्वाधीन भारत में सांस्कृतिक पुनरुत्थान के आयाम’ विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का हुआ आयोजन।
साहित्य संस्कृति फाउंडेशन, केंद्रीय हिंदी संस्थान (शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार) एवं हिंदी विभाग ए. एन. कॉलेज पटना के संयुक्त तत्वावधान में ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ के उपलक्ष्य में ‘स्वाधीन भारत में सांस्कृतिक पुनरुत्थान के आयाम’ विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का शनिवार 14 मई 2022 को ए. एन. कॉलेज, पटना के पुस्तकालय सभागार में शुभारंभ हुआ। उक्त संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए पूर्व केंद्रीय मंत्री (भारत सरकार) एवं सदस्य, बिहार विधान परिषद डॉ. संजय पासवान ने कहा कि हम एक दूसरे से किस प्रकार जुड़ते हैं यही सांस्कृतिक चेतना है। उन्होंने कहा कि शांति, सौहार्द और जनहित की भावना सर्वोपरि है। आज देश में नए सिरे से ‘कार्य संस्कृति’ को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। उन्होंने देशज खूबियों की चर्चा करते हुए कहा कि हमें अपने अध्यात्म, आयुर्वेद, काल गणना, चिति और दर्शन पर गर्व करने की जरूरत है। उन्होंने जोर देकर कहा कि आज अपनी जड़ों को मजबूत करने की बेहद जरूरत है।
इस अवसर पर मुख्य अतिथि श्री अनिल जोशी, उपाध्यक्ष केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार ने पश्चिम में सांस्कृतिक पुनरुत्थान के उद्भव पर विस्तार से चर्चा की और कहा कि राष्ट्रीयता और अपनी भाषा को लेकर गहन संवेदना और गर्व की भावना इसके उद्भव के प्रमुख कारण रहे। अपनी भाषाओं के माध्यम से उन्होंने तर्क और बौद्धिकता के नए प्रतिमान गढ़े। उन्होंने भारतीय भाषाओं को सांस्कृतिक पुनर्जागरण की संवाहक शक्ति माना और साथ ही लोगों को पारस्परिक भाषा प्रतिस्पर्धा से बचने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि भाषाओं में आपसी समन्वय और सद्भाव लाने की आवश्यकता है। विश्व बंधुत्व हमारा आदर्श है। उन्होंने कहा कि भाषा, विश्व बंधुत्व, समावेशिता और जलवायु परिवर्तन आदि सभी महत्वपूर्ण प्रश्नों के जवाब हमारी सनातन संस्कृति में उपलब्ध हैं।
वहीं संगोष्ठी के मुख्य वक्ता प्रो. अरुण कुमार भगत, मानद सदस्य, बिहार लोक सेवा आयोग ने सभा को संबोधित करते हुए कहा कि संस्कृति कृ धातु से बना है। प्रकृति और विकृति भी उसी धातु से बना है। खुद कमाना खुद खाना प्रकृति है। खुद कमाना दूसरे को खिलाना संस्कृति है, और दूसरे का छीन कर खाना यह विकृति है। उन्होंने कहा कि संस्कृति जीवन जीने की कला है। सांस्कृतिक पुनरुत्थान के आयाम पर चर्चा करते हुए उन्होंने भारत, भारतीयता और भारत बोध की बात की। उन्होंने कहा कि सभी देशवासियों की मूल चेतना एक है। लोगों की सांस्कृतिक चेतना में एकात्म है। इसी भावना से सांस्कृतिक पुनरुत्थान संभव है।
उद्घाटन सत्र के प्रारम्भ में विषय प्रवर्तन करते हुए प्रो. कलानाथ मिश्र, विश्वविद्यालय आचार्य एवं संपादक साहित्य यात्रा ने कहा कि अपनी संस्कृति पर गर्व करना राष्ट्रीय सम्मान का परिचायक है। लंबे संघर्ष के बाद देश को आजादी मिली। राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में लोगों के अंदर गहरा रोष प्रकट होने लगा। साहित्य में मोहभंग की स्थिति उत्पन्न हो गई। आज आवश्यकता इस बात की है की विभिन्न पारंपरिक और डिजिटल माध्यमों से हम पुनः अपनी सांस्कृतिक चेतना को पूरे देश में प्रचारित और प्रसारित करें। इसके पूर्व महाविद्यालय के प्रधानाचार्य प्रो. एस.पी. शाही ने अपने स्वागत भाषण में आमंत्रित अतिथियों का अभिवादन करते हुए कि आज की संगोष्ठी का फलाफल नई पीढ़ी तक पहुंचेगी इससे नई पीढ़ी लाभान्वित होगी। इस संगोष्ठी का संदेश देश के कोने कोने तक पहुंचेगा।
साहित्य संस्कृति फाउंडेशन के अध्यक्ष एवं संगोष्ठी के मुख्य संयोजक डॉ. विजय कुमार मिश्र ने कार्यक्रम की शुरुआत में मंच संचालन करते हुए कहा कि संस्कृति को पुनर्जीवित करने का अर्थ है प्राचीन संस्कृति के समृद्ध ज्ञान को समझना, उस पर गर्व करना। उन्होंने कहा कि अपने प्राचीन ज्ञान कोष और ज्ञान परंपरा के कारण ही भारत विश्व गुरु बना। उन्होंने कहा कि प्रशासन व्यवस्था, अर्थनीति, ज्ञान-विज्ञान, सांस्कृतिक विरासत और अपनी समृद्ध ज्ञान संपदा एवं विकसित सभ्यता से भारत हर क्षेत्र में उत्कृष्ट था। कालांतर में उस धारा को अवरुद्ध करने की कोशिश की गई लेकिन हम अपनी संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन में सफल रहे। सत्र के अंत में साहित्य संस्कृति फाउंडेशन की ओर से सभी आगंतुक अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापन डॉ. प्रभांशु ओझा ने किया।
संगोष्ठी के दूसरे सत्र में सांस्कृतिक जागरण में भाषा की भूमिका विषयक सत्र के प्रारंभ में पंजाब नेशनल बैंक के मुख्य प्रबंधक (राजभाषा) साकेत सहाय ने कहा कि सांस्कृतिक जागरण में भाषा की भूमिका हमेशा रही है, किन्तु यह पुस्तकों और व्याख्यानों में जिस मुखरता के साथ दिखाई देती है, व्यावहारिक जीवन में वैसा नहीं दिखता है। नई पीढ़ी लगातार अपने भाषा संस्कार और उसके व्यवहार से दूर होते जा रहे हैं। उन्होंने अनेक उदाहरणों के माध्यम से यह बताया कि किस तरह से हर जगह हिंदी में अंग्रेजी का प्रयोग बढ़ता जा रहा है, उन्होंने कहा कि इस तरह का भाषिक क्षरण ठीक नहीं है। इसी सत्र में नई धारा के सम्पादक शिव नारायण ने कहा कि भाषिक क्षरण या उसमें परिवर्तन से घबराने की आवश्यकत नहीं है, अंग्रेजी से भी घबराने की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने कहा का अंग्रेजी से हम बहुत लाभान्वित भी हुए हैं। इस सत्र के मुख्य वक्ता प्रो. सत्यकेतु सांकृत ने स्वतंत्रता आन्दोलन में भाषा विशेषकर हिंदी की भूमिका पर विस्तार से अपनी बात रखते हुए स्वाधीनता आन्दोलन में हिंदी की भूमिका को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि अपनी भाषा के प्रति मनुष्य में गौरवबोध का होना जरुरी है और भाषा को लेकर हीनता बोध का कोई औचित्य नहीं है। सत्र की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार एवं भाषाकर्मी राहुल देव ने कहा कि स्वाधीनता आन्दोलन में भाषा की और हिंदी की बड़ी भूमिका रही और इस संबंध में प्रो. सत्यकेतु की स्थापनाओं से मैं सहमत हूँ, उन्होंने कहा कि हिंदी और दूसरी सभी भारतीय भाषाएँ राष्ट्रीय भाषा हैं और उनके समेकित संवर्धन के लिए कार्य करना चाहिए, उन्होंने नई शिक्षा नीति के प्रावधानों को बेहद महत्वपूर्ण और प्रभावशाली बताया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं के विकास के अनेक आयाम मौजूद हैं और इसके कार्यान्वयन से परिदृश्य में बदलाव दिखेगा।
कार्यक्रम के दूसरे दिन भारतीय संस्कृति का वैश्विक परिप्रेक्ष्य विषयक सत्र की शुरुआत करते हुए मीडिया अध्ययन विभाग, गुरुग्राम विश्वविद्यालय के प्रो. राकेश कुमार योगी ने कहा कि संस्कृति एक प्रवाह है, निरंतर प्रवाहमान विचार और जीवन पद्धति ही संस्कृति है और जब उसको हम निरंतरता में देखते हैं तो पूरे संसार में भारतीयता दिखाई देती है, उसका विस्तार दिखाई देता है। जब हम उसको खंड खंड में देखते हैं तो समस्याएँ दिखाई देती हैं। इसलिए विस्तार से देखने की जो दृष्टि है वही भारतीय संस्कृति का वैश्विक आधार या स्वरुप है। जब हम विस्तार से देखते हैं तो समस्त विश्व भारत ही नजर आता है।
वरिष्ठ पत्रकार श्री राजकिशोर भारतीय संस्कृति की व्यापकता और उसके कुछ प्रमुख संदर्भों को सामने रखते हुए कहा कि भारत अपनी संस्कृति और सांस्कृतिक वैशिष्ट्य के बल पर ही पूरी दुनिया के लिए अनुकरणीय रहा है। हमारी चिंतन परम्परा, हमारा ज्ञान, हमारी संस्कृति विश्व भर के वैचारिक एवं नैतिक पोषण की दृष्टि से बेहद खास रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि अपनी संस्कृति से जुड़े विविध पक्षों को मजबूत किया जाए और अपने सांस्कृतिक बोध को और पुष्ट किया जाए।
सुप्रसिद्ध कथाकार-कवयित्री श्रीमती अलका सिन्हा ने अपनी बात की शुरुआत एक शेर से किया – जर्रा जर्रा है मेरे कश्मीर का मेहमाननवाज, रास्ते में पत्थरों ने भी दिया पानी मुझे। उन्होंने अपनी कहानी के पात्रों के माध्यम से और अनेक दूसरे संदर्भों के माध्यम से यह बताया कि किस तरह हमारी संस्कृति दूसरों से भिन्न और विशिष्ट है। उन्होंने बताया कि प्रकृति और मनुष्य के बीच जो सहज संवाद और साहचर्य हमारी संस्कृति में है वह कहीं और नहीं है। हम नदी, वृक्ष सबको अपनी संस्कृति का अभिन्न अंग मानते हैं और हमारे सांस्कृतिक व्यवहार में उसका विशेष महत्व एवं स्थान है।
उन्होंने आगे कहा कि वर्तमान में दुनिया विवादों की दुनिया है और ऐसे विवादों की दुनिया में संस्कृति के सुगंध का प्रसार स्वाभाविक रूप से संभव नहीं है बल्कि जीवन की कटुताओं का सामना करते हुए इसके लिए मार्ग बनाने की आवश्यकता है। दुनिया के अनेक देशों में नस्ली अत्याचार हुए और इन अत्याचारों के क्रम में विभिन्न देशों की संस्कृतियों को मिटाने के लिए, वहां के पुस्तकालयों तक को जलाने का प्रयास किया गया। ऐसे अनेक कुत्सित प्रयास भारत में भी हुए तथा भारत अपनी विशेषताओं के बल पर और ज्ञान परंपरा के बल पर अब तक टिका रहा है। भारतीय संस्कृति में सब के विकास में स्वयं का विकास निहित माना गया है। यह धारणा विकास की उस अवधारणा से भिन्न है जिसके तहत यूरोप 45 ट्रिलियन डॉलर के लूट के माल को अपनी जीडीपी बताता है।
इसके बाद राष्ट्रीय शिक्षा नीति और भारतीय भाषाएँ विषयक सत्र की शुरुआत करते हुए हिंदी भवन भोपाल के निदेशक डॉ. जवाहर कर्नावट ने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के भाषाई प्रावधानों को राज्य सरकारों को, खास कर हिंदी भाषी राज्यों की सरकारों को बहुत ही गंभीरता से लेना चाहिए। ऐसा लगता है कि ये सरकारें शिक्षा नीति के अन्य प्रावधानों को तो वे गंभीरता से ले रहे हैं किन्तु प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो, जैसे प्रावधानों को वे गंभीरता से नहीं ले रहे हैं, बल्कि कई बार तो ऐसा लगता है कि शिक्षा नीति में इस संबंध में व्यक्त संकल्पों के प्रतिकूल कार्य कर रहे हैं। उन्होंने आंकड़ों के साथ इस तथ्य को सामने रखा कि सरकारी स्कूलों में मातृभाषा में शिक्षण की स्थिति बेहद चिंताजनक है।
इसी सत्र में हिंदी सलाहकार समिति के सदस्य वीरेंद्र कुमार यादव ने आजादी से पूर्व और बाद की शिक्षा नीतियों पर प्रकाश डालते हुए राष्ट्रीय शिक्षा नीति में हिंदी संबंधी प्रावधानों को सामने रखते हुए कहा कि नीति से अधिक नीयत की आवश्यकता है और कमजोर कार्यान्वयन के कारण नीति कैसी भी हो हिंदी का विकास उस तरह से नहीं हो पाता है जिस तरह की अपेक्षा है। उन्होंने कहा कि राजभाषा संबंधी प्रावधान बड़े व्यापक हैं, लेकिन उसका सही ढंग से कार्यान्वयन हो पाना बेहद चुनौतीपूर्ण है।
इस सत्र में अपना विशिष्ट उद्बोधन देते हुए अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद् के मानद निदेशक श्री नारायण कुमार ने कहा कि देश में पहले भी भाषा संबंधी अनेक नीतियाँ आई हैं किन्तु भाषा की स्थिति में जितना सुधार दिखना चाहिए था, उतना नहीं दिखता है। असल बात नीति के कार्यान्वयन का है, राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भाषा संबंधी प्रावधानों के कार्यान्वयन पर गंभीरता से कार्य नहीं होगा तो किसी तरह के बड़े बदलाव संभव नहीं हैं, इसलिए अब सबको इसके कार्यान्वयन पर जोर देना चाहिए।
इस सत्र में वरिष्ठ पत्रकार एवं भाषाकर्मी राहुल देव ने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति भारतीय भाषाओं के संवर्धन की दृष्टि से बेहद अहम हैं। उन्होंने हिंदी सहित दूसरी भारतीय भाषाओं के विकास की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया और भारतीय भाषाओं के मध्य परस्पर संवाद और सहकार की आवश्यकत पर बल दिया। उन्होंने कहा कि जिस तरह से हम दक्षिण भारतीयों से हिंदी के समर्थन की अपेक्षा रखते हैं उसी तरह हमारा भी यह दायित्व है कि हम द्कस्हीं भारतीय भाषा सीखें। ऐसा होने से एक दूसरे के प्रति परस्पर विश्वास बढेगा और भाषा को लेकर विवाद और तनाव कम होंगे।
वहीं केन्द्रीय हिंदी शिक्षण मंडल के उपाध्यक्ष श्री अनिल जोशी ने कहा कि प्रधानमंत्री जी ने बिहार की ही एक सभा में इस बात की घोषणा की थी कि तकनीक और व्यावसायिक शिक्षा में माध्यम के रूप में भारतीय भाषाओं को शीघ्र ही लागू किया जाएग, उस दिशा में अनेक गंभीर प्रयास हो रहे हैं, अब उसका असर भी दिखने लगा है। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि नई शिक्षा नीति आ गई है, उसमें भाषा संबंधी प्रावधान भी बेहद अच्छे और ऐतिहासिक हैं, किन्तु उसके कार्यान्वयन के लिए केवल सरकार के इरादे ही काफी नहीं है, अब समाज को भी आगे आना पड़ेगा। उन्होंने जोर देकर कहा कि एक प्रमुख हिंदी भाषी क्षेत्र होने के नाते और इसके इतिहास को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि बिहार इसमें अग्रणी भूमिका निभा सकता है।
दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन सत्र को संबोधित करते हुए भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार की पत्रिका गगनांचल के संपादक डॉ. आशीष कंधवे ने कहा कि सांस्कृतिक चेतना ने भारत को भारत बनाये रखा है। उन्होंने सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि हमें निर्माण और पुनरुत्थान के अंतर को समझना चाहिए तथा उन कारणों की पहचान करनी चाहिए जिसके कारण भारतीय संस्कृति का फैलाव संकुचित हो रहा है। इसी सत्र में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के डॉ. अशोक कुमार ज्योति ने कहा कि स्वयं को पहचानने की संस्कृति हीं भारत की पहचान है। यह आवश्यक है कि आज फिर से भारत वह भूमि बने जो लोगों को बुद्धत्व का बोध कराए।
इस सत्र में सुप्रसिद्ध हनुमान कथावाचक पूज्य प्रदीप भैया ने रोचक कथाओं के माध्यम से बताया कि भारत नए युग का निर्माण कर रहा हैं जहाँ विश्व आशान्वित नज़रों से हमारी ओर देख रहा है। उन्होंने कुछ रोचक प्रसंगों एवं कथाओं के माध्यम से इस ओर ध्यान आकृष्ट किया कि जब पूरी दुनिया भारत का नक़ल कर रही है तो हम क्यों दूसरों की नकल के पीछे पड़े हैं, कहीं ऐसा न हो कि दूसरों की नक़ल के क्रम में हम अपनी मूल प्रवृत्ति को ही खो बैठें। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक उत्थान की जो नई बयार बही है और काशी कोरिडोर से लेकर श्री राम मंदिर निर्माण का जो नया परिप्रेक्ष्य सामने आया है वह उत्साहजनक है।
वहीं केन्द्रीय हिंदी संस्थान की निदेशक प्रोफेसर बीना शर्मा ने कहा कि सांस्कृतिक चेतना के मार्ग में जो अवरोध और कांटे है उसे हटाना होगा। उन्होंने कहा कि संस्कृति के संरक्षण के लिए अपनी भाषा में अध्ययन अध्यापन जरुरी है। अपनी भाषा के बल पर ही पूरे विश्व में अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाई जा सकती है और इसके लिए जरुरी है कि अपने बच्चों को आरम्भ से ही अपनी भाषा के प्रति जागरूक करें।
डॉ. विजय कुमार मिश्र, अध्यक्ष साहित्य संस्कृति फाउंडेशन एवं सहायक प्रोफेसर हंसराज कॉलेज ने दो दिवसीय संगोष्ठी का रिपोर्ट प्रस्तुत किया। समापन सत्र में मंच संचालन जहाँ डॉ. भारती कुमारी ने किया वहीं धन्यवाद ज्ञापन ए. एन. कॉलेज में हिंदी विभाग के प्राध्यापक डॉ. विद्या भूषण ने किया।
इस दो दिवसीय संगोष्ठी में देश के अलग-अलग जगहों से विद्वान शिक्षक गण और साहित्यकारों ने भाग लिया तथा अनेक शोधार्थियों ने अपने शोध पत्र प्रस्तुत किए। इस अवसर देश के सुप्रसिद्ध विद्वान, विभिन्न विभागों के शिक्षक, शिक्षकेत्तर कर्मचारी एवं विद्यार्थी उपस्थित रहे।
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