Succession Strategy For NCP Of Sharad Pawar Is Not Just Thoughtful Transition, But His Game Plan For Future Also – NCP की विरासत का बंटवारा शरद पवार का सोचा-समझा बदलाव ही नहीं, भविष्य की योजना भी है…
यह घोषणा शरद पवार के भतीजे और महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष के नेता अजीत पवार की उपस्थिति में की गई. कुछ लोगों की सोच से उलट, इस कदम से अजीत पवार के हाशिये पर चले जाने की संभावना नहीं है, क्योंकि ज़मीन से जुड़े, स्थानीय प्रशासनिक मामलों पर पकड़ रखने वाले, और पश्चिमी महाराष्ट्र की गन्ना बेल्ट में पार्टी की रग-रग से वाकिफ़ अजीत के पास महाराष्ट्र में पार्टी के कामकाज पर पूरी स्वायत्तता रहने की संभावना है.
कुछ ही हफ़्ते पहले शरद पवार ने पार्टी प्रमुख पद से इस्तीफा दिया था, और समर्थकों के दुःखी हो जाने पर सिर्फ़ तीन दिन में उसे वापस ले लिया था. इस कदम से साफ़ है कि दिग्गज राजनेता को आगामी चुनाव में अपनी पार्टी के अवसर बढ़ने के आसार नज़र आ रहे हैं, और आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र वह खुद को बिखरे विपक्ष की धुरी के तौर पर बड़ी भूमिका के लिए भी तैयार कर रहे हैं.
हालांकि राज्य में अब भी शरद पवार के बाद अजीत पवार ही निर्विवाद रूप से पार्टी के नेता हैं, लेकिन यह भी साफ़ है कि शरद पवार के इस्तीफे और उसके बाद पार्टी द्वारा दिए गए समर्थन की बदौलत उन्हें अपने दो विश्वस्तों – सुप्रिया सुले और प्रफुल्ल पटेल – को पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए नियुक्त करने का भावनात्मक जोश हासिल हुआ.
केंद्र में महाराष्ट्र, और हर किसी के लिए कोई न कोई भूमिका…
शरद पवार के फैसले के पीछे महाराष्ट्र के राजनैतिक हालात और महाविकास अघाड़ी (MVA) में NCP की भूमिका का अहम रोल है. एक ओर जहां महाराष्ट्र में सत्ता के शीर्ष पर विराजे देवेंद्र फडणवीस-एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले BJP-शिवसेना गठबंधन को उद्धव ठाकरे-अजीत पवार के गठजोड़ द्वारा कड़ी टक्कर दिए जाने की संभावना है, वहीं यह भी साफ़ है कि एकनाथ शिंदे द्वारा मराठा वोटों को चैनलाइज़ करने, शिवसैनिकों का समर्थन हासिल करने और ‘मराठी मानुस’ के गौरव के मुद्दे को अपने पक्ष में करने में कामयाब होने को लेकर BJP नेतृत्व की बेचैनी को शरद पवार पहचानते हैं.
शरद पवार को यहां न केवल एक मौका नज़र आ रहा है, बल्कि उन्हें जीत के आसार भी दिखाई दे रहे हैं. इसी वजह से वह हर किसी को कोई न कोई भूमिका देकर पार्टी को एकजुट रखने के मुद्दे पर बिल्कुल स्पष्ट हैं. कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में भी सुप्रिया ही ज़्यादा सही हैं, क्योंकि 2019 में BJP के साथ गठबंधन की नाकाम कोशिश करने वाले अजीत पवार से सीनियर कई नेता पार्टी में मौजूद हैं. BMC चुनावों के लगातार टलते रहने और शिवसेना समर्थकों द्वारा एकनाथ शिंदे को समर्थन दिए जाने पर बने संदेह से भी महाराष्ट्र की जंग के बेहद कड़ा मुकाबला होने की अटकलों को बल मिला है. उद्धव ठाकरे के लिए जनता के मन में सहानुभूति है या नहीं, यह दर्शाने के लिए कोई चुनाव तो नहीं हुआ है, और कुछ उपचुनावों ने भी मिश्रित नतीजे ही दिए हैं. शरद पवार की कार्यशैली की समझ रखने वाले उदाहरण देते हैं कि कैसे उन्होंने अलग-अलग वक्त पर छगन भुजबल, आर.आर. पाटिल और जयंत पाटिल जैसे नेताओं को राज्य का डिप्टी CM बनाया था और पार्टी को एकजुट रखने के लिए ज़िम्मेदारियों की भूमिका पर ज़ोर दिया था.
यह सबसे अच्छा कदम था, जो पवार उठा सकते थे, ताकि न केवल अपनी पार्टी के भविष्य के लिए गेम प्लान बना सकें, बल्कि अपने समर्थकों को 2024 से शुरू होने जा रही असली चुनावी जंगों के लिए अवसर दे सकें, जबकि वह स्वयं बिखरे विपक्ष को एकजुट करने के लिए मार्गदर्शक बन सकें. इसमें कोई शक नहीं कि शरद पवार संभवतः एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिनके सभी विपक्षी दलों के साथ ताल्लुकात हैं. खासतौर से TMC, AAP और SP जैसे दलों से भी, जो कांग्रेस को अहम भूमिका दिए जाने के पक्ष में नहीं हैं. दरअसल, एक विपक्षी नेता के मुताबिक, वह शरद पवार ही थे, जिन्होंने कई राजनीतिक दलों की बैठक में साफ़-साफ़ कह दिया था कि राहुल गांधी द्वारा वीर सावरकर का लगातार ज़िक्र करना उनकी सहयोगी शिवसेना (UBT) को अनावश्यक रूप से दिक्कत में डाल रहा है, जिससे बचा जाना चाहिए.
पवार की राजनीति को व्यापक कैनवास पर ही समझा जा सकता है…
शरद पवार द्वारा उठाए गए कदमों को समझना हमेशा मुश्किल रहा है, लेकिन उनमें से कई बहुत सोचे-समझे और राजनीतिक रूप से सही साबित हुए हैं. भले ही वह कदम 1999 में कांग्रेस छोड़कर नई पार्टी बनाने और चुनाव-बाद कांग्रेस के साथ गठबंधन करने का रहा हो, जिससे वह राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर प्रासंगिक बने रहे, और BJP के लिए कार्यकाल पूरा करना भी मुश्किल बना दिया, जबकि दूसरी ओर उनके BJP के शीर्ष नेताओं के साथ भी अच्छे समीकरण बने रहे. शरद पवार का समूचा जीवन और उनके काम बहुतों के लिए रहस्य ही बने रहे हैं.
लेकिन अब शरद पवार के नए ऐलान से सुप्रिया सुले के राजनीतिक करियर को लेकर छाई अनिश्चितता भी दूर हो गई. लगातार सक्रिय रहने वाली सांसदों में शुमार बारामती की 53-वर्षीय सांसद सुप्रिया ने स्कूलों के पाठ्यक्रम में वित्तीय साक्षरता शामिल करने, डेटा गोपनीयता से लेकर ऊर्जा तक, और जैविक कचरे से लेकर सार्वजनिक स्वास्थ्य तक जैसे बहुत-से अहम मुद्दों पर सवाल उठाए हैं, जबकि उन्होंने ही समलैंगिक विवाह को वैध बनाने के लिए संसद में बिल पेश किया, और कई विकसित स्कैन्डेनेवियाई देशों की तरह महिलाओं को दो साल का मातृत्व अवकाश दिए जाने पर ज़ोर दिया.
आमतौर पर ऐसा नहीं होता है कि राजनेता अपनी पार्टी को विरासत के तौर पर देने के लिए बेटियों को चुनें. वंशवाद विरोधी राजनीतिक माहौल में यह आसान भी नहीं होता. बहरहाल, राजनीति में विरासत को लेकर की गई लड़ाई हमेशा संतान के पक्ष में रही है, भतीजे के पक्ष में नहीं. बालासाहेब ठाकरे और मुलायम सिंह यादव के उत्तराधिकार की कहानियां भी इसके स्पष्ट उदाहरण हैं. पवार के उत्तराधिकार की घोषणा साफ़ करती है कि विरासत तो उनके लिए अहम है ही, वह भविष्य में पार्टी द्वारा लिए जाने वाले फ़ैसलों से भी अलग-थलग नज़र आएंगे. इसी वजह से उन्होंने चतुराई से एक योजना का खाका तैयार कर दिया, और संभवतः उम्मीद कर रहे हैं बाकी चुनौतियां भी उनकी राजनीतिक सूझबूझ से दूर हो ही जाएंगी.