स्वाधीनता आंदोलन में हिंदी ने जगाया स्वाभिमान : प्रो. चन्दन कुमार (Pro Chandan Kumar)

प्रो. चन्दन कुमार (Pro Chandan Kumar)

‘भाषाई अस्मिता न केवल संवाद, साहित्य और सृजन जैसे विषयों पर चलती है अपितु जीवन के राग-रंग को कैसे अभिव्यक्त किया जाय इस मुद्दे पर चलती है। बहुत हाल की बात है भारत का विभाजन हुआ धर्म के आधार पर और पाकिस्तान का विभाजन हुआ भाषा के आधार पर।
पूरे के पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में जिन लोगों ने हिंदी पर बातचीत की और जिन लोगों ने हिंदी की वकालत की उनमें से अधिकांश लोगों की मातृभाषा हिंदी नहीं थी। मोहनदास करमचंद गांधी काठियावाड़ी से थे और गुजराती मातृभाषा थी, सरदार वल्लभ भाई पटेल गुजराती मातृभाषी थे। यह जो पूरा का पूरा परिप्रेक्ष्य है यह उस सातत्यता में है जो सातत्यता इस देश को भाषाई सातत्यता के रूप में मिली। 1757 प्लासी का युद्ध, प्लासी के युद्ध के बाद बक्सर का युद्ध, फिर इस देश मे मुगलिया सल्तनत का पतन और पुनः अंग्रेजों का आगमन, इस पूरे के पूरे परिप्रेक्ष्य को देखेंगे तो एक ख़ास चीज दिखाई पड़ती है कि जो लोग हिंदी की वकालत कर रहे हैं, जो हिंदी की पक्षधरता कर रहे हैं उनमें से अधिकांश लोग ब्रिटिश सरकार के साथ संवाद में हैं। चाहे वो भारतेंदु मंडल के अधिकांश रचनाकार हो वे सब के सब सेठ और रजवाड़ों की दूसरी पीढ़ी थी। इसे सत्ता बनाम समाज के रूप में देखें। सत्ता की भाषा मुगलिया सल्तनत में फ़ारसी हो सकती थी, अंग्रेजी सल्तनत में अंग्रेजी हो सकती थी या उर्दू का वर्चस्व रहा, बिहार में भूमि के दस्तावेज कैथी में लिखी जाती थी, पर हिंदी भारतीय समाज का संवाद माध्यम बन कर आई थी। हिंदी भाषा की समाज केन्द्रीयता से विकसित होती है, इसलिए आप देखेंगे कि हिंदी को ले कर जितनी संस्थाएं हैं वो सब के सब समाज केंद्रीयता की संस्थाएं हैं। यह अगल बात है कि देश की आज़ादी के बाद जिन संस्थाओं को समाज की केन्द्रीयता में बनाया गया, हिंदी प्रचार के लिए, वह सब के सब सत्ता की केंद्रीयता की संस्थाएं बन गई हैं। वो अनुदान प्रेरित संस्थाऐं बन गई है। मेरा निवेदन यह है कि 1757 से ले कर 1857 तक की हिंदी को भारतीय समाज की समाज केन्द्रीयता और समाज भाषा केन्द्रीयता के रूप में देखा जाए। दूसरा, सत्ता का प्रश्न और समाज का प्रश्न। स्वाधीनता किस की ? स्वाधीनता हिंदी समाज की। और यही कारण है हिंदी समाज से इत्तर जो लोग आते हैं वो एक ऐसी भाषा की वकालत कर रहे हैं जिसमें इस देश का मानस बनता और बढ़ता है। एक उदाहरण है- आदरणीय गोलवलकर जी और सी॰एन॰ अन्नादुरै एक मंच पर थे । सी॰एन॰ अन्नादुरै ने कहा कि ‘तुम हिंदी हम पर थोपोगे हम चलने नहीं देंगे’। आदरणीय सरसंघचालक पूज्यनीय गोलवलकर जी बोलने के लिए खड़े हुए और उन्होंने कहा ‘हिंदी का प्रश्न और अन्य भारतीय भाषाओं का प्रश्न मालकिन और दासी का प्रश्न नहीं है बल्कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का प्रश्न बड़ी बहन और छोटी बहन का है’। सी॰एन॰ अन्नादुरै उठ कर खड़े हुए और उन्होंने कहा- ”that is the approach than I support it.”
जब हिंदी की वकालत और हिंदी की बातचीत करें, 100 सालों में, 1757 से 1857 के बीच, तो अन्य भारतीय भाषाओं के साथ उसको प्रतिपक्ष में खड़ा करने की कोशिश न करें। दूसरा, हिंदी के प्रश्न पर जब भी बातचीत करें तो सत्ता बनाम समाज केन्द्रीयता में बात करें। और हिंदी पर जब भी बातचीत करें तो इस रूप में बातचीत करें कि देश के राग को, देश के रंग को, देश के मन को एक ऐसी भाषा में बोलने की बात है जो कच्छ से कटक तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक का व्यक्ति समझ सके। बहुसंख्यक लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा यदि हिंदी है तो वह आपके सामने आ जाए।
हिंदी का प्रश्न और भारत की आज़ादी का प्रश्न अनिवार्यतः पर्याय नहीं है। और इस तत्व को इस रूप में रखेंगे तो यह अन्य भारतीय भाषा- भाषी लोगों को ठेस पहुँचा सकती है। इस देश मे एक सांस्कृतिक सातत्यता का भाव रहा है और वह भाव अपने ढंग से यहाँ के रचनाओं में, भक्ति आंदोलन में रहा है। और मैं तो बराबर एक बात कहता हूं कि भक्ति आंदोलन यहाँ से प्राग्ज्योतिषपुर तक यानी असम तक, अखिल भारतीय स्तर पर रहा है। असमिया कवि शंकरदेव कभी भी असम की बात नहीं करते, गुरुनानक देव जी पंजाब की बात नहीं करते, ब्रजभाषा क्षेत्र के कवि ब्रजभाषा क्षेत्र की बात नहीं करते जब भी बात करते हैं भारतवर्ष की बात करते हैं। यानि भारतवर्ष की साहित्यिक चेतना में एक अखिल भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्र की बात बराबर से रही है। शंकरदेव जी का वाक्य है ‘धन्य-धन्य भारतवर्ष, धन्य-धन्य भारतभूमि’। सुब्रमण्यम भारती तमिल कवि हैं शिवाजी(मराठी) पर कविता लिखते हैं। अगर आप माझूली जाएं और कहें कि ब्रज भूमि से आए हैं तो ऐसे आपसे व्यवहार होगा जैसे आप कृष्ण के वंशज हों। यानि कहीं न कहीं यह चेतना भारत बोध से आई है। अरुणाचल प्रदेश में एक स्थान है पार्वती थान, परशुराम कुंड ये सांस्कृतिक प्रतीक हैं जो इस देश को भारत बनाते है। हिंदी उसका एक हिस्सा है। इस देश के सांस्कृतिक और सातत्यता और राष्ट्रीय भाव को हिंदी इत्तर कवियों ने भी बनाया है। भाषा अलग हो सकती है पर भावबोध एक है। हिंदी क्षेत्र की भाषाई चेतना में एक विशिष्टता हमलोग पढ़ते हैं – हिंदी क्षेत्र की भाषाई चेतना आत्ममुग्धता की चेतना नहीं है, उस Psychosomatic mode की चेतना नहीं है। इसे समझने के लिए भारतेंदु के बलिया वाले भाषण को पढ़िए । बलिया वाला भाषण डी. टी., रॉबर्ट्स के सामने दिया हुआ भाषण है। इसकी दो पंक्तियां देखिए जिसे आप हिंदी की चेतना को समझ जाएंगे – “भाइयों, अब तो नींद से चौकों, अपने देश की सब प्रकार से उन्नति करो। जिसमें तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताब पढ़ो, वैसे ही खेल खेलो, वैसी ही बातचीत करो। परदेशी वस्तु और परदेशी भाषा का भरोसा मत रखो। अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करो।” यह चेतना आपको एक आत्मचिंतन का भाव देती है। इसीलिए आप देखेंगे कि हिंदी की पूरी परम्परा में विषमवादी स्वरों को भी उतना ही स्थान दिया गया जितनी समवादी स्वरों को दिया गया। और हो सकता है कि ऐसा चेतना इस देश ने विभिन्न भाषा- भाषी साहित्य में हुआ होगा। मेरी जानकारी में असमिया में यह चेतना है। असमिया में, आदि और निशि में इस किस्म की चेतना रही है। और वह चेतना है देश हमारा है, हमारी भाषा मे चलेगा। हिंदी में नवजागरण की शुरूआत दो वाक्यों से होती है और दोनों ही वाक्य भारतेंदु के पत्रिकाओं के ध्येय वाक्य रही है। ‘होएं मनुष्यही क्यों हुए हम गुलाम’, ‘नारी नर सम होई’ यह दो वाक्य हिंदी नवजागरण में हिंदी की स्वातंत्र्य चेतना के साथ बराबरी की यह दो बिंदु जुड़े हुए हैं। और ये बराबरी के दो बिंदु एक लोकतांत्रिक सबल राष्ट्र के निर्माण के मूल बिंदु हैं। स्वातन्त्र्योत्तर भारत मे जिस संविधान की हम कसमें खाते हैं उसके ये मूल बिंदु हैं जो हिंदी की आत्मचेतना से निकलती है। इसलिए हिंदी पर जब भी बात करें तो हिंदी आत्ममुग्धता की भाषा नहीं है, हिंदी आत्मचेतना की भी भाषा है। जिस राष्ट्र की निर्माण की बात करते हैं वह राष्ट्र का निर्माण आत्मचेतस्य व्यक्ति के साथ आत्मालोचन की प्रक्रिया से निकला हुआ है।
जब हम इतिहास की व्याख्या करते हैं तो अपने हिस्से की इतिहास चुन लेते हैं। भारत का एक लंबा अतीत रहा है और हर व्यक्ति अपने हिस्से का कुछ इतिहास चुन लेता है। लम्बा अतीत आपको इस बात की छूट भी देता है कि आप अपने हिस्से का इतिहास चुन लें और उसकी व्याख्या करें, लेकिन जब आप पढ़ने – पढ़ाने से जुड़े है तो आपसे यह अपेक्षा की जाती है कि आप इससे इत्तर जो तर्क है उसे भी देखे। किसी ख़ास व्यक्ति के लिए हिंदी का प्रश्न भावनात्मक मुद्दा हो सकता है लेकिन जब तिलक हिंदी की बात कर रहे थे तो वह भावनात्मक मुद्दा नहीं था, गाँधी जी जब हिंदी की बात कर रहे थे तो वह भावनात्मक मुद्दा नहीं था। भावुकता की उम्र बहुत कम होती है, प्रभाव ज्यादा होता है। जब राजगोपालाचारी ने अनिवार्य बना दिया जनरल एडवोकेट विद्यालयों में हिंदी पढ़ने को, इसका खामियाजा उन्हें भुगतान पड़ा। कुर्सी गई पर भाषा के प्रति जिद्द नहीं गया। आप तिलक को, महात्मा गांधी को, सरदार पटेल को, राजगोपालाचारी को, कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी को और उनके हिंदी विचारों को जब आप पढ़ें तो गलदश भावुकता के साथ न पढ़ें। ये ‘नैन नचाई, कह्यौ मुसक्याइ, लला ! फिर खेलन आइयो होरी’ वाला मामला नहीं है, यह मामला है एक सबल राष्ट्र कैसे बनेगा ? उस राष्ट्र की भाषा क्या होगी ? ….. और जब देश बनेगा तो उस देश के लोगों की भाषा क्या होगी, किस भाषा मे यहाँ के राग, दुःख देश अभिव्यक्त करेगा। दूसरा, हिंदी को कोई एकांकी पांथिक मान्यता के रूप में समझने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। हिंदी को ब्रजभाषा ने बनाया, हिंदी को अवधि में बनाया, हिंदी को भोजपुरी ने बनाया। बैसवाड़ी से निराला आते हैं, जयशंकर प्रसाद भोजपुरी क्षेत्र से आते हैं। हिंदी अपनी चरित्र में सामासिक है। हिंदी assimilative है। बड़े होने की पहचान है कि आप अपने से असहमत को भी सम्मान देंगे। हिंदी का स्वभाव यह है कि वह अन्य क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों से शब्दावली भी ग्रहण करती है और भावबोध भी ग्रहण करती है। और शायद इसलिए टिकाऊ है। तिलक जब हिंदी का समर्थन कर रहे हैं, कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी जब हिंदी का समर्थन कर रहे हैं, राजगोपालाचारी जब हिंदी का समर्थन कर रहे हैं तो इसी भावबोध के साथ समर्थन कर रहे हैं। अगर हिंदी को आप एक पांथिक, एकपक्षीय और गलदशु भावुकता के साथ बोले जाने वाली भाषा के रूप में स्वीकारिएगा तो हिंदी की उस सांस्कृतिक सातत्यता के साथ आप न्याय नहीं कर पाइयेगा।
हिंदी रोने धोने की भाषा नहीं है। हिंदी शासन की भाषा है, हिंदी लोकतंत्र की भाषा है, हिंदी संविधान की भाषा है, हिंदी सबल राष्ट्र की भाषा है। हिंदी अगर राष्ट्र भाषा है तो हिंदी में राष्ट्र भी होना चाहिए। हिंदी का पूरा इतिहास दिल्ली से शुरू हुए और कलकत्ता तक जाते- जाते हाँफने लगे, ब्रम्हपुत्र के बाद हिंदी है इसकी बात भी नहीं करते । जब आप हिंदी की बात करें तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक , कच्छ से कटक तक के लोगों की आवश्यकताओं, सुशासन, स्वभिमान और सत्ता की अभिव्यक्ति की भाषा के रूप में बात करें। सिर्फ इश्क़ की भाषा नहीं है हिंदी, अगर सिर्फ इश्क़ की भाषा है तो हिंदी का वही हाल होगा जो हिंदी विभागों का हो गया है।
भाषा सत्ता के गलियारों में नहीं बनती, भाषा विश्वविद्यालयों में भी नहीं बनती, ख़ास कर हिंदी को देखे तो हिंदी के सत्ता केंद्रों का और हिंदी समाज केंद्रो का हमेशा छत्तीस का आँकड़ा रहा है। जो हिंदी समाज का कवि है वह हिंदी के विश्वविद्यालयों का कवि नहीं है। जो विश्वविद्यालयों का कवि है उसे समाज मे कोई पूछता नहीं है। सत्ता द्वारा किए गए प्रयास, समाज द्वारा किए गए प्रयासों को अनुशासित कर सकती है, किंचित स्थलों पर उसे दिशा दे सकती है। जिन समितियों ने काम किया है कृतज्ञता का भाव तो है, वह कृतज्ञता आपके मनुष्य होने की पहचान है। हम ये कैसे कह दें कि सरकारों ने कुछ नहीं किया, परम्परा में कुछ हुआ ही नहीं, समितियों ने कुछ नहीं किया… मेरा सिर्फ एक निवेदन है कि हिंदी अगर committee की भाषा होती, हिंदी अगर सिर्फ सरकारों की भाषा होती तो नहीं चल पाती। सरकारों की भाषा अरबी- फ़ारसी थी, सरकारों की भाषा अंग्रेजी भी थी, चली गई। अगर कोई भाषा समाज की भाषा नहीं रहेगी तो वे चलेंगे नहीं चाहे आप जितने भी committee बना लें। हिंदी का यह सौभाग्य है की यह समाज की भाषा है। हिंदी को अगर समझना हो रामचरितमानस को, महाभारत को समझना होगा। महाभारत एक ऐसे स्थल पर खड़ा है जहाँ भाई, भाई से कहता एक इंच भी बिना युद्ध के नहीं दूंगा। और दूसरा सब कुछ छोड़ रहा है, राज त्याग कर के चला जा रहा है। हिंदी इन दो विरोधी भावबोधों के बीच से रास्ता निकलती हुई भाषा है वह इसलिए बची रही है। अगर इसमें लोहिया है तो उसमें दीनदयाल उपाध्याय के होने की भी संभावना है। लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय दोने के भावबोध को जिस हिंदी में अभिव्यक्त किया जाएगा वह इस देश के साथ संवाद की भाषा होगी। सिर्फ सत्ता संस्थानों की भाषा, विश्वविद्यालयों की भाषा, पाठ्यक्रम की भाषा, कविताओं की भाषा, एकेडमी की भाषा, committees की भाषा इन पर चलती नहीं रही है। हिंदी का सौभाग्य है कि वह गली- मोहल्लों की भाषा है, हिंदी का सौभाग्य है कि वह मालियों की भाषा है, हिंदी का सौभाग्य है कि वह नागरी है, वह बाजार की भाषा है। हिंदी को committees की भाषा मत बनाइये। कमिटियां सिर्फ उस भाषा को नियंत्रित कर सकती है, उसको अनुशासित कर सकती है, दिशा दे सकती है।
1992 में फैजाबाद में अखिल भारतीय साहित्य परिषद का एक अधिवेशन था । वहाँ संघ के पांचवे सरसंघचालक पूज्यनीय श्री सुदर्शन जी ने कहा कि भाषा का प्रश्न भावबोध का होता है, शब्दों के अर्थ का भी होता है। अगर आप किसी मथुरा के लोगों को कहिए या फिर जो ब्रज जानता हो, वृंदावन जानता हो, गोखुल जानता हो उसे कहिए कि ‘राधा ने कृष्ण की बांसुरी चुराय लियो’ तो वह समझेगा की ये प्रेम का मामला है,हँसी ठिठोली का मामला है, राधा दे देगी। यह माधुर्य भाव की भक्ति बोध का मामला है, भारतीय समाज का मामला है। इसी वाक्य को अंग्रेजी में कह लो- ‘Radha is stolen the flute of krishna’ और किसी फिरंगी को कहिए तो वह कहेगा कि ‘so what, go to the police station and write the report’
भाषा बदलते ही भावबोध बदल गया, सांस्कृतिक प्रतीक बदल गया। इस देश के अधिसंख्यक लोगो की भाषा हिंदी है, गरीबों की भाषा हिंदी है। हम लोगों में से अधिकांश को माननीय हिंदी ने बनाया, सरकारी स्कूलों ने बनाया। सरकारी स्कूल और हिंदी हमारे जीवन राग में है। स्वातन्त्र्योत्तर भारत के मध्यवर्ग के निर्माण में हिंदी की भूमिका को कोई माननीय नजरअंदाज नहीं कर सकता है। इसलिए हिंदी बची रहे इस देश के स्वप्न बचे रहेंगे, सांस्कृतिक सातत्यता बची रहेगी, गरीब आदमी के लिए सपना बचा रहेगा, मालियों को माननीय होने के लिए जगह बची रहेगी, अगर हिंदी गई तो सपना भी गया’।

रिपोर्ट: अनंत मिश्रा

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