हिंदी के विश्वबोध को भारतीय बोध के लास्य के रूप में पढ़ा जाना चाहिए।-प्रो.चंदन कुमार

हिंदी के विश्वबोध को भारतीय बोध के लास्य के रूप में पढ़ा जाना चाहिए।-प्रो.चंदन कुमार

लक्ष्मीबाई महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय)
विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर हिंदी साहित्य परिषद्, हिंदी विभाग द्वारा आयोजित कार्यक्रम में ‘हिंदी का विश्वबोध’ विषय पर आदरणीय गुरुवर Prof. Chandan Kumar सर ने दिनांक 10 जनवरी 2023, प्रातः 11:45 बजे अतिथि के रूप में वक्तव्य दिया।

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वक्तव्य का आरंभ करते हुए प्रो.चंदन कुमार ने विश्व हिंदी दिवस की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालते हुए कहा कि आज विश्व हिंदी दिवस है 10 जनवरी 2006 को प्रथम विश्व हिंदी दिवस मनाया गया।इसकी पृष्ठभूमि है 10 जनवरी 1975 को नागपुर में प्रथम ‘विश्व हिंदी सम्मेलन’ हुआ।यह कहने के पीछे मेरा एक उद्देश्य है और वह उद्देश्य यह है कि तत्कलीन प्रधानमंत्रियों की एक दृष्टि रही होगी हिंदी को लेकर हिंदी विश्व भाषा बनें,हिंदी की वैश्विक भूमिका हो,हिंदी के साथ सबलीकरण और सशक्तिकरण के आयाम जुड़े।भाषा का सशक्तिकरण क्या होता है?
यह दिवस ऐसा अवसर देता है कि हम भाषा को देखने की अपनी दृष्टि पर विचार करें जो भाषा हमें दाय में मिली है।वह देखते ही देखते यूरोप,आस्ट्रेलिया, केरेबीआई देशों,अफ्रीका,अमरीका और एशिया के विभिन्न भूभागों में संवाद और ज्ञान की भाषा के रूप में स्थापित होती है।अखिल भारतीय स्तर पर भी यह संवाद और ज्ञान की भाषा बनती है।इसी संवाद से हिंदी का विश्वबोध निर्मित होता है।

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विश्वबोध (worldview) हमारे मूल्यबोध हमारी दार्शनिकता,हमारी चिंतन पद्धति, अपेक्षाओं और कर्मण्यता का समुच्चय है विश्वबोध(worldview)।
बोध क्या है? बोध बुद्धि भी है और दाय भी।दाय सातत्यता है (continuty)जीवन की लयात्मकता है।

भारतीय ज्ञान परंपरा एवं सांस्कृतिक सातत्यता को विश्लेषित करते हुए प्रो.चंदन कुमार ने कहा कि अगर भारतीय ज्ञान पंरपरा के शब्दों को अगर मैं उधार लूं तो बोध लास्य है।लास्य क्या है? पार्वती लास्य करती हैं ।शंकर ताण्डव करते हैं।भरतनाट्यम हो या केरल का मोहिनीअट्टम हो,मणिपुरी का लावण्या हो इन सब पर लास्य का ही प्रभाव है।लास्य कोमल है,यौवक है,ललित है,सतत्,विरासत है।
हिंदी के विश्वबोध को भारतीय बोध के लास्य के रूप में पढ़ा जाना चाहिए।उसकी सातत्यता में पढ़ा जाना चाहिए।
सातत्यता और उत्सव बोध भारत के जीवन राग को बनाते हैं।मैं जब विदेशी विद्यार्थियों से पूछता हूं इंडिया क्या है? तो वह तीन चीज़ो से भारत की व्याख्या करते हैं colour भारत रंग बिरंगा है।दूसरा भारत उत्सव है (festivity)।भारत परिवार है परिवार संस्था शायद भारत से बेहतर कहीं और नहीं है।दुनिया के और समाजों में परिवार संकट में है पर हम अभी भी परिवार को बचा कर चलने वाले समाज हैं।इस जीवन राग की व्याख्या आईडिया ऑफ इंडिया की व्याख्या है।देश कैसा हो?देश किसके लिए हो?यह समझना हिंदी के विश्वबोध को समझना है।हिंदी के चरित्र को समझना है।

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प्रो. चन्दन कुमार ने विश्वबोध की भारतीय परिप्रेक्ष्य में पड़ताल करते हुए कहा कि प्रश्न यह है कि पाठ क्या हो? पाठ (text) क्या हो?पाठ से अवधारणा तय होती है।जिसको आज concept कहते है वह text से बनता है।मैं कई बार कहता text से context बनता है।

इसलिए जब विश्वबोध की व्याख्या करें तो एक सभ्यता बोध के रूप में करें।इस सभ्यता बोध को जिन तत्वों ने निर्मित किया है अगर उनको आप समझ लेंगे तो हिंदी के worldview को समझ लेंगे।वह बोध क्या है?संस्कृत है,संत है,मठ और सूत्र है,मंदिर और नामघर है,पूरोहित और सत्राधिकार हैं।,परिव्राजक और यायावर हैं।हिंदी को इन्होने ही बनाया है।इसीलिए हिंदी अपने चरित्र में सामासिक है।सबको साथ लेकर चलती है।

विलियम कैरे का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए हिंदी की सामर्थ को अभिव्यक्त करते हुए प्रो.चंदन कुमार ने कहा कि
विलियम कैरे ईसाई धर्म प्रचारक थे 19 शताब्दी के शुरूआती दशकों में भारत आये।सन् 1815 ई.उनका कथन है। “मैं इस भाषा में हिंदुस्तान को समझा सकता हूं।इस भाषा में अर्थात हिंदी भाषा में।
कैरे ने अगर आप पूर्वोत्तर तक गये हों तो जहाँ असम शुरू होता है उस स्थान का नाम है श्रीरामपुर और जहाँ असम समाप्त होता है उस स्थान का नाम है नारायणपुर।
तो श्रीरामपुर गेट पर ‘डेनिस कॉलोनी’ बसायी और श्रीरामपुर मिशन और श्रीरामपुर कॉलेज के माध्यम से उन्होने ईसाई धर्म का प्रचार शुरू किया।उन्होने बाइबिल का बांग्ला में,संस्कृत में,और कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया।
भारत में बैप्टिस्ट मिशनरी की स्थापना की।बंगाल के श्रीरामपुर में अपना डेरा जमाने वाले विलियम कैरे ने बांग्ला सीखी पर जिस उद्देश्य के लिए वह इस देश में आये थे यानी धर्मांतरण उसकी पूर्ति में वह तबतक असमर्थ रहे जबतक उन्होने हिंदी नहींं अपना ली।मैं ऐसा कह रहा हूं तो हिंदी की ताकत की ओर आपका ध्यान ले जाना चाह रहा हूं।
आप अपने विरोधी से घृणा करें,आपको छूट है पर उसके ताकत के कारणों को भी तो समझे।जो लोग भारत में धर्मांतरण के इतिहास से परिचित थे उन्हें यह ज्ञात होगा की विलियम कैरे की कितना बड़ा योगदान है ईसाई मिशनरी के संदर्भ में है।
मेरा संकेत उस ओर है चाहे ब्रिटिश गर्वनर लॉर्ड वैलसली हों जिन्होने 10 जुलाई 1800 को कलकत्ता में फॉर्ट विलियम कॉलेज बनवाया।
या इसके प्राचार्या जॉन गिलक्राइस्ट हों या श्रीरामपुर कॉलेज के संस्थापक विलियम कैरे हों,सभी हिंदी की ताकत से परिचित थे।इसलिए इन्होने फिरंगी होते हुए भी हिंदी को प्रश्रय दिया।यह प्रश्रय भले ही साम्राज्यवादी हितों की पूर्ति करने के लिए दिया गया हो पर इस देश की जनता का भाषा प्रेम है।जो हिंदी को ताकतवर बनाता है।

हिंदी की लोकप्रियता के कारणों का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए प्रो.चंदन कुमार ने कहा कि हिंदी को राष्ट्रभाषा या राजभाषा या विश्व भाषा किसी जी ने नहीं बनाया है इसका कारण वह कोटि कोटि हिंदी जन हैं जो हिंदी को आसेतु हिमालय है,सुख-दुख की,प्रेम-घृणा की ,जय-पराजय की,सपनों की और समृद्धि भाषा के रूप में स्वीकार किया है।
इस स्वीकार से हिंदी का एक सामाजिक और सर्वग्राही चरित्र विकसित होता है।हिंदी का चरित्र ही सबको साथ लेकर चलने वाला है।20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध को याद कीजिए आप
अंग्रेजी भद्रलोक बना रही थी।भारतीय मध्यवर्ग सत्ता में अपने होने को अंग्रेजी के माध्यम से सिद्ध कर रहा था।देश की आजादी की चेतना को अभिव्यक्त करने की भाषा के रूप में हिंदी आई।
हिंदी की वकालत जिन लोगों ने की उनमें से अधिकांश लोग गैर हिंदी भाषी थे।महात्मा गांधी, सुभाष बॉस चक्रवर्ती राजगोपालाचारी किसी की मातृ भाषा हिंदी नहीं थी।पर सभी ने हिंदी को महत्वपूर्ण माना देखते ही देखते हिंदी इस देश की इच्छा और भावना को अभिव्यक्त करने वाली भाषा के रूप में आई।

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हिंदू- उर्दू के विवाद पर प्रकाश डालते हुए प्रो.चंदन कुमार ने कहा कि एक प्रश्न हिंदी और उर्दू का भी आता है।जब भी हिंदी की लोकप्रियता की बात होती है तब उर्दू की भी बात आती है मैं दो तर्क देना चाहूंगा जब हम विश्वविद्यालयों में पढ रहे थे तब हमें राजा लक्ष्मण सिंह बनाम शिवप्रसाद सितारे हिंद के उदाहरण से हिंदू-उर्दू विवाद समझाया जाता था और कोशिश सलेक्टिव फैक्ट पहले कोई उद्देश्य या निष्कर्ष तय कर लेना और फिर उस उद्देश्य के आधार पर तथ्यों का चयन करना और उसकी व्याख्या करना ।बाद में इसको ज्ञान बताया गया।
स्वातंत्र्योत्तर भारत के विश्वविद्यालयों में ज्ञान के यह खेल खूब हुए हैं।
केवल लिपि भेद होने से केवल script के अंतर से कोई भाषा दूसरी भाषा नहीं हो जाती है।जिस भाषा में क्रियापद नहीं होते हैं उसे कोई दूसरी भाषा माना नहीं जा सकता है।इस आधार पर हिंदी उर्दू से अलग कोई भाषा नहीं है या इसको यूं कहें उर्दू हिंदी से अलग कोई भाषा नहीं है।

वली ,गालिब एवं मीर तकि मीर आदि शायरों का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए प्रो.चंदन कुमार ने उर्दू को हिंदी को ही अभिव्यक्ति करने वाली बोली बताते हुए कहा कि
अगर मैं थोड़ी सी छूट ले लू्ं तो उर्दू को हिंदी की अंदाज़-ए-बयां कह सकते हैं-

“हैं और भी दुनिया में सुख़नवर (शायर) बहुत अच्छे
कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और, ”

तो उर्दू को हिंदी की एक बोली के रूप में आप मान सकते हैं।यह कोशिश जितनी जल्दी होगी देश हित में होगी।
मेरा प्रयास है कि देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में अरबी,फारसी में लिखित हिंदी साहित्य शीर्षक से प्रश्न पत्र चलाया जाए।
‘अरबी-फारसी लिपि में लिखित हिंदी साहित्य’
उर्दू का का एक कवि है वली दक्खनी (वली मुहम्मद वली) उसे उर्दू कविता का पिता भी कहा जाता है।उनकी कविताओं को पढ़ लीजिए उनके गज़लों में और उनकी कविताओं में भारतीय विषय,भारतीय मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग है ये वली दक्खनी महोदय उर्दू की परंपरा को हिंदी के प्रमाणिक पाठ के रूप में पढ़ने के हिमायती हैं।

मीर-तकी-मीर पूरा नान खु़दा-ए-सुखन मुहम्मद तकी 1723 में आगरा में पैदा हुए। अहमदशाह अब्दाली और नादिरशाह के आक्रमणों से कटी-फटी दिल्ली का अगर कोई प्रमाणिक पाठ है तो वह मीर-तकी-मीर है।उन्होने दिल्ली का वर्णन किया है।जो दिल्ली को नादिरशाह ने लूटा ,मीर को पढ़िए।

“हमको शायर न कहो मीर कि साहिब हमने
दर्द -ओ-ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया”

मैं मीर का उल्लेख उस विरासत को समझने के लिए कर रहा हूं जो फारसी में अधिकाधिक हिंदुस्तानी शब्दों का प्रयोग की हिमायती है।

“देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआं सा कहाँ से उठता है

यूं उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है”

मीर की मृत्यु 1810 में हो गयी थी।यह पंक्ति 18वीं सदी की है जो मैं आपको सुना रहा हूं।उसकी भाषा और शब्दावली देखिए यह हिंदी है आपको कहाँ यह अरबी दिख रही है।

स्वातंत्र्योत्तर भारत और पांथिक मान्यताओं पर प्रकाश डालते हुए प्रो.चंदन कुमार ने कहा कि मेरा निवेदन आपसे यह है कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत से निकला हुआ वह भाव बोध है जो हमें बताता है कि हिंदी और उर्दू का विवाद तार्किक और तथ्यात्मक नहीं है।यह भारतीय समाज को कमज़ोर देखने की इच्छा से प्रेरित एक साम्राज्यवादी भौतिक षडयंत्र है ।
मैं बार-बार। कहता हूं कि हिंदी -उर्दू विवाद की अवधारणा (construct)है एक निर्मिति है।
जब हिंदी के विश्वबोध पर बात-चीत चल रही है।भाषा को पांथिक विरासत का पर्याय मानना हमारी सास्कृतिक विरासत के साथ अन्याय करना है।
पांथिक(semetic)
एक सज्जन है अकबर एस अहमद की पुस्तक है जिन्ना पाकिस्तान एण्ड इस्लामिक आईडेंटिटी ।पुस्तक में बहुत रोचक निष्कर्ष है।पुस्तक के लेखक अकबर सलाउद्दीन अहमद यूनिवर्सिटी ऑफ बर्मिंघम में पढ़े और यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन में पढे।
सन् 1943 में प्रयागराज में पैदा हुए थे और वासिंगटन में पढ़ाया भी ।उनको पढ़ना यह जानने के लिए जरूरी है।कि पांथिक मान्यताएं भाषाई चेतना का पर्याय नहीं होती है।
अकबर सलाहुद्दीन अहमद को पढ़ना इसलिए भी जरूरी है कि वह भाषाई चेतना ,राष्ट्रबोध और पांथिक मान्यता पर बात करते हैं। पांथिक मान्यता के आधार पर पाकिस्तान बना और भाषा के नाम पर पाकिस्तान टूट गया।

हिंदी की अर्थवत्ता एवं महत्वता को रेखांकित करते हुए प्रो.चंदन कुमार ने कहा कि मैं जब ऐसा आपसे कह रहा हूं तो आप से ध्यान देने की वकालत कर रहा हूं इस देश की भाषाआ चेतना आत्ममुग्धता का पर्याय नहीं है अपितु सांस्कृतिक और बौद्धिक आत्मावलोकन के भाव से प्रेरित रही है।भारतेंदु का बलिया वाला भाषण देखिएगा-
बलिया के ददरी में एक मेला लगता है।कार्तिक को यह मेला लगता है।1884 की कार्तिक पूर्णिमा को वहाँ भारतेंदु ने एक भाषण दिया।गंगा और घाघरा के मिलन स्थल पर पूर्वांचल के ददरी गांव में दिया गया यह भाषण 19वीं -20वीं शताब्दी की भाषाई चेतना और सामाजिक समझ का घोषणा पत्र है।’भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है’ उस भाषण का शीर्षक है। रामविलास शर्मा जी ने क्रिस्टोफर किंग ने इस भाषा के बहाने से पुनर्जागरण की चेतना पर बातचीत की।बलिया के तत्कालीन अंग्रेज डिप्टी कलेक्टर रॉबर्ट के सामने यह दिया गया भाषण है।सत्ता के सामने अपनी बात कहने की ताकत बहुत कम लोगों में होती है पर इस भाषण में भारतेंदु आह्वान करते हैं।

“भाइयों अब तो नींद से चौंको अपने देश की सब प्रकार से उन्नति करो,जिससे तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताबे पढ़ो,वैसे ही खेल खेलो ,वैसे ही बातचीत करो,परदेसी वस्तु और परदेसी भाषा पर भरोसा मत रखो।अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करो।भारतेंदु का यह भाषण आपको बताता है कि परिस्थितियाँ कठिन हो सकती है किंतु स्वाधीन चेतना का मतलब है ‘निज भाषा,निज देश के हितों के पक्ष में बात करना।

हिंदी के विश्वबोध की विवेचना करते हुए प्रो.चंदन कुमार ने कहा कि हिंदी का विश्वबोध इसी आत्मचेतस गौरव से बनता हुआ विश्वबोध है।यह चेतना आपको एक आत्म चिंतन का भाव देती है।हिंदी की पूरी परंपरा को आप उठाकर देख लें हिंदी विषमवादी स्वरों को महत्व देने वाली भाषा है।हिंदी में नवजागरण की शुरूआत दो वाक्यों से होती है उनकी दो पत्रिकाओं के ध्येय वाक्य हैं।

“होयी मनुष्यहिं क्यों हम गुलाम वे भूप
आदमी तुम भी आदमी हम भी
तुम राजा हम गुलाम नहीं चलेगा”

“नारी नर सम’ स्त्री और पुरूष बराबर है। आज सब कोई कहता है भले मानता न हो ।पर आज से 100 साल पहले यह बात कहना एक बौद्धिक आत्मगौरव की मांग करता है स्वातंत्र्योत्तर भारत में जिस संविधान की हम कसमें खाते है न वह हिंदी की आत्मचेतना से निकला हुआ संविधान बोध है।इसलिए हिंदी में जब भी बात करें आप तो इस विषय पर ध्यान करते हुए बात करें हिंदी आत्ममुग्धता की भाषा है।जिस राष्ट्र के निर्माण की आप बात करते हैं उस राष्ट्र का निर्माण एक आत्मचेतस व्यक्ति के साथ आत्मा लोचन की प्रक्रिया से निकला हुआ भाव-बोध है।

हिंदी की रचनात्मकता तथा उसकी पक्षधरता को व्याख्यायित करते हुए प्रो.चंदन कुमार ने कहा कि हिंदी को हिंदी के जन और हिंदी की बोलियों ने बनाया है।आप 18वीं शताब्दी के पूरे रचनात्मकता को देख लीजिए ब्रज भाषा,अवधी,भोजपुरी क्षेत्र से आते हैं।पूरी की पूरी ब्रज भाषा कविता खड़ी बोली से आती है।हिंदी का चरित्र सामाजिक है।बड़े होने की पहचान क्या है?बड़े होने की पहचान यह है कि आप अपने से असहमत को भी अपने स्वभाव यह है कि उसने क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों शब्दावली को ग्रहण किया है और भाव-बोध को भी ग्रहण किया है।

जब तिलक हिंदी का समर्थन करते हैं ,जब कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी हिंदी का समर्थन करते हैं,जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी हिंदी का समर्थन करते हैं तो इसी भाव-बोध के साथ समर्थन करते हैं ।

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने रातों-रात तमिलनाडू में हिंदी लागू कर दिया अगले दिन उनकी सरकार चली गई।चक्रवर्ती राजगोपालाचारी हिंदी क्षेत्र के नहीं थे।अगर आप हिंदी को एक पांथिक गलदश्रु और एकपक्षीय भाव को अभिव्यक्त करने वाली भाषा के रूप में व्याख्यायित करेंगे तो उस सांस्कृतिक सातत्यता के न्याय नहीं कर पायेंगे। जो स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत थी।

यह सिर्फ इश्क करने की भाषा नहीं है
सिर्फ ‘ नैन नचाई कछु मुस्काई
लला फिर आइयो खेलन होरी’
की भाषा नहीं है।शासन की भाषा है,लोकतंत्र की भाषा है,सबल राष्ट्र की भाषा है।

हिंदी के मूल में दो पाठों केंद्रीयता को परिलक्षित करते हुए प्रो.चंदन कुमार ने कहा कि हिंदी को अगर समझना है तो पाठो को आप जरूर समझियेगा।एक रामचरित मानस और दूसरा महाभारत ।महाभारत में एक भाई दूसरे भाई से कहता है ‘एक इंच नहीं दूंगा बिना युद्ध के और दूसरे में भाई कहता है-

तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥

चौदह वर्ष तक खड़ाऊ रखकर पूजा कर रहा है हिंदी दो सिरों पर और दो अतिवादों पर खड़ी हुई भाषा है।इसलिए इसमें पंडित दीनदयाल उपाध्याय भी है और राममनोहर लोहिया भी।हिंदी को अगर समझना है तो इन अतिवादों के बीच से समझने की कोशिश कीजिए। सिर्फ इससे की हिंदी देश के इतने विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है।इतने देशों में बोली जाती है।इतने लोग पी.एच.डी कर रहे हैं यह हिंदी के निष्कर्ष हैं इससे हिंदी का कुछ भला नहीं होता है।दुनिया के 132 देशों में बोली जाती है उसका कारण इस देश की ताकत है।

अपने वक्तव्य का अंत करते हुए प्रो.चंदन कुमार ने कहा कि
हिंदी जब आगे बड़ी है तो इस देश के गिरमिटिया मजदूरों ने बढ़ाया है।कंप्यूटर से नया कंप्यटुर गिरमिटिया पैदा हुआ है उसने हिंदी बढ़ाई है।
दुनिया के किसी भी देश में चले जाइये जर्मनी में चले जाइये वहाँ टर्किस्ट लोग रहते हैं आप अगर कहेंगे की आप भारत से आते हैं तो वह कहेगा अमिताब बच्चन शारूखखान।यहीं आप गोहाटी के बाद चले जाइये आपको लगेगा की हिंदी को किसी आचार्य जी ने मंगेश्कर और मुकेश ने पहुंचाया है।
इसलिए जब हिंदी के विश्वबोध पर बात करे तो हिंदी की प्रचार सभा और नागरी प्रचारिणी सभा से ज्यादा थोड़ा मुकेश और लता मंगेश्कर पर भी बातचीत कर लिया करें।
विलियम कैरे जब हिंदी की बात कर रहे थे उन्हें धर्मातंरण करना था।अब गुगल,पैप्सी ,कोक हिंदी की बात कर रहे हैं तो हिंदी की पूंजी सामर्थ की बात कर रहे हैं।
यह हिंदी का नया बाजार है।इस बाजार में अगर आपको जगह बनानी है तो इसके शर्तों पर बनानी है। हिंदी की नई दुनिया पूंजी की दुनिया है।यहलएक तार्किक दुनिया है।
हिंदी का विश्वबोध पूंजी और तकनीक से संवलित विश्वबोध है।आप पूंजी और हिंदी की तार्किक दुनियाँ के साथ जाए यह कामना है।

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