World Environment Day Festivals Like Jud Sheetal Of Mithila Should Be Linked With Namami Gange Mission – World Environment Day: अपने ‘जुड़ शीतल’ से क्यों कट रहा ‘ग्लोबल मिथिला’?
‘बर्थडे’ मनाने वाले “वैज्ञानिक-युग” में फसलों को उगाने का उत्सवी तरीका भी मूर्खतापूर्ण ही है. ऐसे में पंचांग पद्धति और उसके आधार पर मनाये जानेवाले लोक पर्वों की औकात ही क्या है! एक तरह से कहें तो हमने आत्मघृणा का एक किला गढ़ लिया है जिसमें सब पुराना अन्धविश्वास है और हर नया विज्ञान. जबकि हमें यह भी समझना चाहिए कि इन पंचांगों के अनुसार विकसित लोकपर्वों के भीतर भी उतने ही वैज्ञानिक मूल्य थे जितना कि आधुनिक विज्ञान दावा करता है. नया सूरज, नया चाँद, नयी फसल, नयी पैदावार, और फिर नया जीवन- दुनिया की किसी भी पंचांग प्रणाली का अंतिम मकसद यही रहा है. इसने मौसम का अनुमान लगाया, इसने फसलों को उगाने का समय बताया, इसने बताया कि कब इसे बोये और कब इसे काटे. इसने जीवन में उत्सवों और अवसरों को तय किया. इसने दुखों और सुखों को भी संतुलित किया. इसने ‘उपयोगी’ और ‘अनुपयोगी’ जैसे शब्दों को ‘शुभ’ और ‘अशुभ’ शब्दों से पुकारा. कह सकते हैं कि पारलौकिक सा दिखने वाला दर्शन अपने मूल में पूरी तरह लौकिक रहा है. अबूझ दिखने वाली परम्परा बेहद ही सरल और सहज रही है. यह किसी अदृश्य सत्ता की उपासना पद्धति नहीं, बल्कि दृश्य जगत को जारी रखने का एक जरिया है. बिहार के मिथिला क्षेत्र में ‘जुड़ शीतल’ यहाँ की सदियों पुरानी पंचांग प्रणाली से निकला एक उत्सव है. यह उत्सव है प्रकृति को जीवित रखने का- इसे पुनर्जीवित करने का.
पारंपरिक-सामुदायिकता में मनुष्य के साथ साथ सम्पूर्ण जीव जगत आता था. उनका विश्वास था कि प्रकृति से वे हैं न कि उनसे प्रकृति. आज की सामूहिकता मनुष्य जाति तक ही सीमित रह गई है. कह सकते हैं कि इस सामूहिकता के प्रेरक तत्व निर्मम-व्यक्तिवादिता ही है. आदमी केंद्र में हैं और प्रकृति हासिये पर. लेकिन मिथिला की सामुदायिकता में आज भी कमोबेश व्यापक समावेशी सोच है जो इसके तमाम लोकपर्वों में दिखती है. अंग्रेजी पंचांग के सन्दर्भ में देखें तो अप्रैल में ‘जुड़ शीतल’ मनाया जाता है. यह मिथिला का नया वर्ष भी है. गर्मी की शुरुआत के साथ ही मौसम में एक बड़ा बदलाव शुरू हो जाता है. इस बदलाव से खान-पान सहित जीवन के अन्य पक्षों को भी बदलना जरुरी हो जाता. जुड़ शीतल इसी परिवर्तन को साकार करने का सांकेतिक और व्यावहारिक लोकपर्व है. इसे मनाये जाने के तरीकों से इसके भीतर की तार्किकता को समझा जा सकता है. किसी भी त्यौहार के आमतौर पर दो पक्ष होते हैं- पहला भोजन और दूसरा उत्सव या ख़ुशी मनाने का तरीका. सभी रीति-नीति और कर्मकांड इन्हीं दोनों के इर्द-गिर्द घूमते हैं. और इन्हीं दोनों में इनका सम्पूर्ण दर्शन छुपा होता है.
इस पर्व में अगर भोजन की रीति को देखें तो पहला दिन ‘सतुआइन’ कहा जाता है. इसमें जौ का सत्तू, कच्चे आम के टिकोरे और गुड़ कुल देवता को चढ़ाएं जाते हैं. इस बेहद ही सामान्य चढ़ावे से कुल देवता प्रसन्न होते हैं. यह वाकई देवता के असामान्य-देवत्व को दिखाता है जिसमें देवता ने आम आदमी के सामर्थ्य को महत्व दिया है. ये सारे खाद्य पदार्थ स्थानीय तो हैं ही साथ ही यह गर्मी और लू से बचाने वाला भी है. एक तरह से ये सभी मेडिसिनल खाद्य हैं. आम के टिकोरे से एक प्रकार का पेय भी बनाया जाता है जिसे ‘पन्ना’ कहते हैं. यह लू से बचाने वाला पेय है. पेप्सी और कोला के युग में एक तरह से यह विलुप्त हो गया था, लेकिन हाल के कुछ वर्षों में यह अब नगरों में भी दिखने-बिकने लगा है. इसके अलावा भात (पका चावल) के साथ दही और दाल से बनी कढ़ी बनाई जाती है. यह एक ठंडा भोज्य है, जो गर्मी के अनुकूल है. इस दिन बासी खाना भी खाया जाता है. बासी खाना का यह उत्सवी रूप आज के युग में अजीब सा है, लेकिन इसके पीछे उस समाज की अपनी सदियों पुरानी समझ है. इस दिन के बाद बासी खाना बंद कर दिया जाता है. यह एक प्रकार से संकेत है कि गर्मी आनेवाली है, अब भोजन हल्के-फुल्के और सुपाच्य खाएं. बासी तो बिलकुल न खाए.
उत्सव और आनंद मनाने के तरीके के सन्दर्भ में देखें तो दूसरा दिन ‘धुरखेल’ के रूप में मनाया जाता है. धुरखेल शब्द धूल और खेल का स्थानीय रूप है. यह इस लोकपर्व का सबसे अनूठा पक्ष है. यह प्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण संरक्षण से जुड़ा है. प्रथमद्रष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि कीचड़ और पानी से खेलने की यह परम्परा भदेश और मूर्खतापूर्ण है, लेकिन स्विमिंग पूल की पीढ़ी को पता नहीं कि उनकी ऐसी ही परम्पराओं के कारण प्रकृति आज भी मुस्कुरा रही है. यह खेल खेल में आसपास के तालाबों और अन्य जल श्रोतो को साफ करने का तरीका है.
इस पर्व में तीन मुख्य बातें हैं- ‘आनंद’, ‘सामूहिकता’, और ‘सामाजिक-कार्य’. कीचड़ से खेलना, उसमें लोटना-पोटना वाकई आनन्ददायी होता है. यह जीवन की आपा-धापी और औपचारिकताओं से थके लोगों को जीवन की सहजता से साक्षात्कार कराता है. आदमी आदमी के बीच जो बड़े छोटे का भेद है वह मिट सा जाता है. शायद यही सुख है, आनन्द है. आदमी का आदमी में मिल जाना- आदमी का प्रकृति में मिल जाना.
अब दूसरी बात है कि इस आनंद का श्रोत कहाँ है! बेशक सामूहिकता ही वह श्रोत है जहाँ से आनंद निकलती है. हर त्यौहार सामूहिक होता है, क्योंकि सामूहिकता के बिना न तो कोई उत्सव संभव है और न उसका आनंद लिया जा सकता है. अकेले बंद कमरे में, बिना किसी से मिले जुले, बिना सबके साथ के आपकी तमाम दौलत भी आपको वो ख़ुशी नहीं दे सकती जो सबके साथ मिट्टी, कीचड़ में मिल जाने से होती है. सामूहिकता व्यक्ति के बहुत सारे दुखों को हर लेती है.
तीसरी सबसे महत्व की बात कि यह लोकपर्व खेल खेल में एक बड़े कार्य को कर जाती है. जिन कार्यों को करने के लिए तमाम सरकारों को लाखों-करोड़ों खर्च करने पड़ते हैं वह कार्य आनंद के साथ बिना किसी खर्चे के कर दिया जाता है. आज सरकारें अरबों रुपयें खर्च कर रही हैं गाँवों और नगरों के जल-श्रोतों को साफ़ रखने और उन्हें संरक्षित करने में. तमाम राज्यों के साथ-साथ केंद्र की सरकारों ने भी अबतक न जाने कितने अरब रुपये खर्च कर डालें, लेकिन परिणाम-‘ढाक के वही तीन पात’. न कुओं और तालाबों का मिटना रुका और न नदियाँ ही साफ़ हुई. लेकिन जुड़ शीतल में यह सब कार्य सामुदायिक उत्सव के साथ कर दिए जाते थे. हालाँकि ग्लोबल होती दुनिया में कई स्थानीय चीजें गायब भी तेजी से हुई हैं. इस लोक पर्व के साथ भी ऐसा ही दिख रहा. खुद “ग्लोबल-मिथिला” के लोग भी अब इस त्यौहार से दूर होते चले गए हैं. मात्र औपचारिकतायें ही रह गई हैं. खाना-पीना तो फिर भी कुछ हद तक आज भी प्रचलन में है, लेकिन इसका सबसे मुख्य सरोकार जो जल- श्रोतो के संरक्षण से था वह अपने विकृत रूप में किसी तरह सांसे ले रही है.
‘जुड़ शीतल’ जैसे पर्यावरण केन्द्रित लोकपर्व हर प्राचीन समाज का हिस्सा रहा है. हां, इनका स्वरूप और मनाने का तरीका अलग-अलग हो सकता है, लेकिन अपने परिवेश और पर्यावरण को जीवित और संरक्षित रखने की परम्पराएँ सामान्य रूप से देखी जा सकती है. ऐसे लोकपर्वों पर सरकारों का एक अलग बजट होना चाहिए ताकि इन लोकपर्वों के बहाने प्रकृति और समाज दोनों का संरक्षण हो सके. जो कार्य सरकारी तंत्र बड़े बड़े घोटालों के बाद भी नहीं कर पाते उसे समाज की पुरानी परम्पराएँ उत्सवों के माध्यम से कर सकती है. ‘नमामि गंगे’ प्रोजेक्ट के अंतर्गत भी ऐसी लोक-परम्पराओं के लिए कुछ प्रावधान किये जाने पर विचार किया जा सकता है. जल श्रोतों को साफ करने, या नदियों तालाबों को सूखने से रोकने के लिए आर्थिक नीतियों को बनाने के साथ साथ उन लोक-परम्पराओं को खोजने और उन्हें संरक्षित करने की अधिक जरुरत है जिसमें पर्यावरणीय-धारणीयता के दर्शन मौजूद है.
(केयूर पाठक हैदराबाद के सीएसडी से पोस्ट डॉक्टरेट करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. अकादमिक लेखन में इनके अनेक शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित हुए हैं. इनका अकादमिक अनुवादक का भी अनुभव रहा है.)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण):इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.